नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
एक तो उस 'शौक' पोशाक का जादू, उस पर स्वयं पहननेवाली का जादुई व्यक्तित्व।
खड़ी धारियों से सजा, गाढ़े मैरून रंग का आधी खुल्लमखुला बाँहों का, किसी
मुसलमान फकीर का-सा कुर्तानुमा ‘च्युग', उसके ऊपर कुर्ते के अनावश्यक घेर को
कसी मंजूषा में बाँधे, सुडौल उभार को उभारती वास्कट 'रकल्च', नीचे गहरे नीले
रंग का टखनियों तक झूलता किसी विदेशी नन का-सा झब्बा 'वाला' जिसकी तिरछी
धारियों और नीले रंग में, कुर्ते की सीधी धारी तथा मैरून रंग से उचित
कन्ट्रास्ट का अद्वितीय पुट देकर, उन अनपढ़ भोटिया स्त्रियों की कलात्मक
कढ़ाई 'क्रमो' ने कलात्मक चार चाँद जड़ दिए थे। विदेशी मार्केट में जहाँ केवल
बनारस की जरी या लखनऊ के चिकन की ही ख्याति थी, वहाँ वह अनूठी शिल्पकला भारत
के लिए विदेशी मुद्रा का अटूट कोष संकलित कर सकती थी।
रुक्मिणी, पल-भर को, कैमरा खटकाना भी भूल गई। पैरों में थे, घुटने तक चढ़े
'बौक्च' उन पर तिब्बती जूतों की कढ़ाई, किसी भी हंगेरियन शिल्पकला में पटु
महिला को पटकनी दे सकती थी। सिर पर, एक खुले बुर्के-सा ही विचित्र बारह गिरह
जर्मन प्रिंट का परिधान था 'चुक्ती', उसके चन्दोबे-सा श्वेत 'दौरा' उसे किसी
डच सुन्दरी-सा ही अभिनव रूप प्रदान कर रहा था। कंठ में झूल रहा था माँ का
‘करेला' और मूंग की दुहरी लड़ों का हार।
“सुनिए, एक ऐसी ही ड्रेस क्या हमारे लिए भी बनवा देंगी? प्लीज..." सोनिया ने
कहा।
"दिल्ली में तो हमारे ड्रामेटिक क्लब की लड़कियाँ एकदम पागल हो जाएँगी इसे
देखकर।"
“पर यह तो बिकती नहीं बेटी।" राजेश्वरी ने कहा, “यहाँ की स्त्रियाँ स्वयं
कात-बुनकर, बड़े परिश्रम से इसे चार-पाँच महीने में तैयार करती हैं, मैंने भी
तो यह स्वयं ही कात-बुनकर पूरे पाँच महीने में तैयार की थी।"
"तो क्या आप, गलीचे-कालीन बुन लेती हैं?" रुक्मिणी बिना पूछे नहीं रह सकी।
"मैं धारचूला ही में जन्मी और पली हूँ।" राजेश्वरी ने हँसकर कहा, जिस लड़की
को कातना-बुनना, गलीचे-कालीन बनाना नहीं आता, वह फूहड़ समझी जाती है। इसी से
शायद मुझे भी सीखना पड़ा और इसी भय से आ भी गया कि कहीं कोई फूहड़ न कह दे।"
उसके कथन में न बनावट थी, न ओछापन।
तस्वीरें खींच, रुक्मिणी ने राजेश्वरी के दोनों हाथ पकड़कर बार-बार हिला दिए,
और स्वयं कृतज्ञता से दुहरी होकर झुक गई, "कह नहीं सकती, कितनी . आनन्दप्रद
रही यह दो दिन की यात्रा, और आपके यहाँ का सुखद पड़ाव! भगवान ने चाहा तो हम
अगले ही महीने दूसरे पड़ाव के लिए भी हाजिर होंगे। हमें केवल तुम्हारी गुणी
पुत्री चाहिए बहन, बस अपनी लड़की के हाथ पीले कर विदा कर देना।" और वह
हँसती-हँसती, स्वयं कार चलाती धूल के अम्बार और अचरज में डूबी समधिन को छोड़
गई थी।
क्या, ऐसे सर्वथा अनजान परिवेश में, फटाफट अंग्रेजी फूंकनेवाली, कार
चलानेवाली मेम-सी सास के साथ उसकी गऊ-सी शान्त लड़की, अन्त तक निभा पाएगी?
छुरी-काँटा पकड़ना तो दूर, वह अभागी तो किसी अपरिचित अतिथि के सामने गस्सा-भर
भात भी नहीं निगल पाती।
चाहे रुक्मिणी, बार-बार कह गई थी कि उसे लड़की के हाथ-भर पीले कर विदा-भर कर
देनी होगी बस, और उन्हें विधाता ने सबकुछ दिया था फिर वह समर्थ थी और तिस पर
बेटे की माँ थी! वह चाहने पर पहाड़ की किसी भी परम्परा पर कुठाराघात कर सकती
थी, किन्तु राजेश्वरी तो दुर्भाग्य से बेटी की माँ थी। संसार की कौन-सी
हिन्दू माँ आज तक बेटी के हाथों में खाली हल्दी पोत उसे विदा कर सकी है? और
कुछ न हो, तोला भर सोना तो कन्यादान के लिए तब भी लेना ही होगा।
समधिन का आश्वासन व्यर्थ नहीं था। उन्होंने जाते ही लम्बी-चौड़ी चिट्ठी में
स्पष्ट कर दिया था कि विवाह की तिथि पन्द्रहवें ही दिन पड़ रही थी, उसके बाद
फिर कोई शुद्ध लग्न नहीं जुट रहा था। पर राजेश्वरी को कोई चिन्ता नहीं करनी
होगी। उसने कन्यादान के लिए भी स्वयं एक बँगला देख लिया था। वह उसके आने तक,
वहाँ सब प्रबन्ध कर लेगी। वह केवल पात्री एवं अपने आत्मीय स्वजन लेकर चली आए।
किन्तु इधर आत्माभिमानिनी राजेश्वरी को, समधिन का यह प्रस्ताव मान्य नहीं था।
कन्यादान उसने अपने ही मकान से किया। पर्वतारोही दल के ग्यारह परिचित
मुस्कुराते चेहरे, एक बार फिर उसके आँगन में जुट गए। सज्जन समधी ने किसी भी
प्रकार का भार उस पर नहीं पड़ने दिया, यहाँ तक कि बारात का खाना बनवाने भी वे
रसद सहित पूरे एक दर्जन रसोइए, नौकर-चाकर, कड़ाही-पतीले, दो मोटरों में भरकर
ले आए थे।
चन्दन के विदा होते ही वह अपने कमरे में खिसक गई।
चन्दन चली गई थी, उसकी एकदम भोली सुकुमार चन्दन, जिस पर उसने कुटिल संसार की
छाया भी कभी नहीं पड़ने दी, जिसकी फरेबी चालों का, उसे अक्षर-ज्ञान भी नहीं
करवाया। क्या यह उसकी बुद्धिमत्ता थी या मूर्खता! सास जब इतनी आधुनिका थी तब
क्या बेटा दूध का धुला होगा?
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