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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


"नजमा के भाईजान की हनीमून की तसवीर है, अम्माँ।" उसने कैफियत दी तो अम्माँ और भड़क गई थीं।

"चूल्हे में जाए यह हनीमून! यही सब मना-मनाकर तो अब हम पहाड़ियों के बहू-बेटे भी रसातल को जा रहे हैं।"

"मैं नहीं जाऊँगी।" चन्दन ने पति के रसीले प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया था।

"क्यों?"

"अम्माँ नाराज होंगी!"

“वाह-वाह!" खूब जोर से हँस उठा था विक्रम और फिर चन्दन की नुकीली ठोड़ी पकड़, उसके दूधिया चेहरे पर झुक आया था, “सच, कभी-कभी तो मेरा भी मन करता है कि तुमसे भाभी की ही तरह पूछ दूँ कि तुम्हारे दूध के दाँत टूट गए हैं या नहीं? क्यों नाराज होंगी जी तुम्हारी अम्माँ? क्या मैं उनकी बेटी को भगाकर लाया हूँ?

"देख तो रही हो।" वह फिर उसे बच्ची की भाँति फुसलाने लगा, “रात होने तक क्या यहाँ एक पल भी अकेले बैठ पाते हैं? और रात ससुरी भी तो सवा घंटे में कट जाती है। दिन में जहाँ देखो, वहाँ मेहमान! विवाह के दस दिन बीत गए हैं, पर एक भी ससुरा टलने का नाम नहीं लेता। चलो, ठाठ से जहाँ तबीयत आएगी, वहीं घूमेंगे। उठाया बैग और चल पड़े, जिस स्टेशन पर तबीयत करेगी, वहीं उतर पड़ेंगे और जिस ट्रेन को देखकर मन ललचेगा, उसी पर चढ़ जाएँगे।"

सच, ऐसी ही हनीमून की बचकानी उमंग में रंगा वह रंगीन जोड़ा अटपटे स्टेशनों पर चढ़ता-उतरता पूरा महीना-भर घूमता रहा। हर स्टेशन पर एक चन्दन उतरती, और जैसे दूसरी नई ही चन्दन पति का हाथ पकड़ चढ़ आती। पल-पल भर में रंग बदलती अपनी अपूर्व तन्वी सहचरी को विक्रम ने बड़े यत्न से कैशोर्य की सीढ़ियाँ फँदा तारुण्य के जगमगाते सिंहासन पर बिठा दिया। कभी किसी ग्राम के अनजाने कुएँ के पास ही नीम की छाया में दोनों सुस्ताने लगते, लाठी में लटकाया बैग और जूते पेड़ से टिका, विक्रम किसी गँवार उजड्ड की ही भाँति नये-नये गौने से विदा कर लाई गई-सी बहू को खींचकर छाती से लगाता जोर-जोर से गाने लगता। “छि-छि, क्या कर रहे हो, कोई देख लेगा तब?" चन्दन पति को दूर धकेलती स्वयं निकट खिसक आती।

“तब क्या! मैं तो चाहता ही हूँ कि सब हमें देखें-ऐसी जोड़ी बड़े भाग्य से देखने को मिलती है, चन्दन!" कभी उसे खींचता वह अरहर के खेत में उठा ले जाता, “ऐसे ही खेतों में गाँव की स्त्रियों के आभूषण उतार उन्हें काट-कूटकर गाढ़ दिया जाता है चन्दन!" वह उसे ऐसी अनुभूत दृष्टि से सहमा देता, जैसे स्वयं उसी ने किसी सुन्दरी को लूटपाटकर वहाँ गाड़ दिया हो। भय से काँपती बच्ची-सी अपनी नई बह की डरी-सहमी आँखों को फिर वह प्रणयी अधरों के आश्वासन से मँद देता। कभी किसी जीर्ण मन्दिर के गूढ़ मंडप में ही रात कटती और कभी किसी धर्मशाला में।

एक दिन भूले-भटके दोनों घर लौटे तो सोनिया भागकर चन्दन से लिपट गई, “तुम तो इसे और भी सन्दर बना लाए. दहा! देखो न मम्मी, कैसा टैंड चेहरा बना लाई है!" सुमीता फिर विदेश चली गई थी। दर्शन शायद मन की व्यथा भुलाने अपनी माँ के साथ कश्मीर चली गई थी। उन दोनों की उपस्थिति ही चन्दन को सहमाती थी. इसी से इस बार उसे ससुराल भयावह नहीं लगी। वैसे श्वसुर-गह की विचित्र सज्जा देखकर वह अब भी बीच-बीच में सिहर उठती थी। वह भी कैसी सजावट थी बाबा! मुर्दे की खोपड़ी का ऐश-ट्रे, वह भी असली। स्वयं सोनिया ने उसे बताया था कि किसी लावारिस लाश जलानेवाले जमादारों से मम्मी ने पूरे सौ रुपये में यह खोपड़ी खरीदी थी। एक विदेशी मित्र तो उन्हें इस खोपड़ी के पाँच सौ दे रहा था, पर मम्मी ने नहीं बेची। दीवारों पर जगह-जगह टाँगे गए थे, टूटी-फूटी खंडित मूर्तियों के छिन्न-भिन्न अंग! कहीं किसी घनस्तनी का खंडित स्तन, कहीं पर अर्धांग से विलग किया गया छिन्न मस्तक और द्वार पर करघनी से विभूषित कटी जंघा तक धड़हीन मूर्ति के नितम्ब पर ही बड़े कौशल से लगी थी 'कॉल-बैल'। जब कभी अतिथि आकर घंटी बजाते और द्वार खोलने चन्दन जाती, उतनी ही बार लज्जा उसे रसातल को खींच ले जाती।

'पता नहीं, हमारी मम्मी का ऐसा मौरबिड टेस्ट क्यों है?' सोनिया प्रायः ही कहती रहती, पर रुक्मिणी बड़े गर्व से मुस्कुरा देती। सचमुच ही महा-मौरबिड रुचि थी उसकी। दीवारों पर दस फुटी नंगी चुडैलों की तसवीरें बनी थीं, जिनके अंग-प्रत्यंग से निकली निरर्थक लतागुल्मों की फ्रेस्को कला, पूरी छत को घेरे थी। दीवानखाने में कहीं कटे पेड़ का तना पड़ा था, तो कहीं एक विराट गजदन्त। गृहस्वामी ने यह सुन्दर कोठी टेहरी के महाराजा से खरीदी थी, किन्तु उसका सौन्दर्य रुक्मणी ने अपने जंगली गोदने से गोद-गोद कर सचमुच ही किसी आदिवासी के चेहरे की ही भाँति वीभत्स बना दिया था। दीवारों पर कहीं लाल रंग की मोटी-मोटी धारियाँ पड़ी थीं और कहीं था एक मोटा काला आकारहीन धब्बा, जैसे कोलतार का पीपा ही उलट दिया गया हो। उस पर रुक्मिणी दिन-रात एक तख्त पर पड़ी ऐसी विचित्र तसवीरें आँकती रहती, जिनका न सिर रहता, न पैर।

पर प्रेमदीवानी चन्दन को डेढ़ ही महीने में अपनी ससुराल का एक-एक पत्थर भी प्यारा लगने लगा था। कभी-कभी वह माँ की याद में उदास हो भी जाती तो रसिक पति न जाने कैसे उसकी उदासी को भाँप लेता।

"चलो चन्दन, आज तुम्हें हम कुतुब दिखा लाएँ।" और हवा के वेग से भगाई कार में वह अपनी नवेली को काँख में दबा-दबाकर पृथ्वी से दूर न जाने किन-किन ग्रह-नक्षत्रों की सैर करा लाता, और वह मायके की हुड़क भूलकर रह जाती। दर्शन कश्मीर से लौट आई थी और उसे एक दिन इंस भी गई “ऐ, जी डौल-ब्राइड! अपने पति का पीना-पिलाना भी छुड़ा दिया या नहीं! उसे छुड़ा सको तो हम भी तुम्हारा लोहा मान जाएँ। इत्ती-सी उम्र में यह बेहूदा बेहद पीने लगा है।"

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