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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


"क्या पीने लगे हैं?" भोली चन्दन ने आश्चर्य विस्फारित दृष्टि पार्श्व में बैठे पति के चेहरे पर निबद्ध कर पूछा। उसका सरल प्रश्न और निष्पाप दृष्टि नंगी संगीन-सी ही विक्रम की छाती में धंस गई। उसके जी में आया, वह दर्शन के रँगे चेहरे पर एक झापड़ धर दे।

"शराब! और क्या मैं दूध-चाय पीने की बात कर रही हूँ?" दर्शन ने निर्लज्जता से फिरै दाँत दिखा दिए थे।

उस रात को मानिनी का मान भंग करने, विक्रम ने घुटने टेककर शपथ खाई थी कि वह आज से नहीं पिएगा और दर्शन को दिखा देगा कि उसकी पत्नी के सौन्दर्य में कैसी अद्भुत शक्ति है।

"विक्रम!"-उसकी छुट्टियाँ खत्म होने ही वाली थीं कि रुक्मिणी ने खाने की मेज पर अपना सुझाव दिया था, “चन्दन, अभी एकदम बच्ची है। तुम्हारी गृहस्थी क्या सम्हाल पाएगी? क्यों नहीं उसे यहीं छोड़ जाते। यहाँ कॉलेज ज्वाइन कर लेगी और छुट्टियों में तुम्हारे पास आती-जाती रहेगी।"

सास के प्रस्ताव से चन्दन वहीं पर अनमनी हो गई थी। रात को वह पति के गले में दोनों बाँहें डालकर बच्ची-सी मचल पड़ी थी। वह यहाँ अकेली नहीं रहेगी। सुमीता, दर्शन-सबसे उसे बड़ा डर लगता है। फिर पढ़ने में कभी भी उसकी रुचि नहीं रही। जहाँ विक्रम जाएगा, वह वहीं जाएगी। दुबली कलाइयों को थामकर पति ने हँस-हँसकर उसे प्रेम-पगे आश्वासन में बाँध लिया था। वह उसे नहीं छोड़ेगा, "तुम्हें जो हम पढ़ा रहे हैं चन्दन, वह और कौन पढ़ा सकता है? इससे अच्छी पढ़ाई और हो ही क्या सकती है?" वह अपने कथन की पुष्टि करने, चेहरा उसके पास ले आया था।

"हट, हट।" कहती उसे दोनों हाथों से दूर धकेलती, सुन्दरी शिष्या हँसती-हँसती फिर अपने उदार शिक्षक की बाँहों में खो गई थी। माँ से बिना मिले ही वह पति के साथ कलकत्ता जाने को स्वयं उद्यत हो गई तो रुक्मिणी मन-ही-मन प्रसन्न ही हुई थी। उसके बिगड़े पुत्र को उसने सचमुच ही छोटी-सी अवधि में साध लिया था। पीना तो दूर, वह अब सिगरेट भी नहीं छूता था। विदेशी मित्र-मंडली स्वयं ही बहिष्कृत हो गई थी। दर्शन आती भी तो विक्रम नहीं मिलता, जली-भनी वह स्वयं ही थोड़ी देर में लौट जाती।

श्वसुर भी अपनी इस बच्ची-सी बहू पर अनोखा लाड़ लड़ाते। वह उनके सामने छोटा-सा घूघट निकालकर आती और नित्य वे उसे एक न एक उपहार थमा देते। इसी से जब बह को लेकर बेटे के नौकरी पर जाने की बात श्वसुर तक पहुँची, तब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, "पहली बार बहू अपनी गृहस्थी सँभालने जा रही है, पुरोहितजी को पत्रा दिखाकर साईत निकलवा लेना।"

स्वयं उनके श्वसुर थे साहबी रुचि के बैरिस्टर! पुत्री को उनके साथ विदा किया था ठीक अमावस के दिन, तब से वही अमावस जीवन-भर उनके साथ चली आ रही थी। श्वसुर ने शायद जान-बूझकर ही संस्कारी जामाता के अंधविश्वास पर कुठाराघात किया था, किन्तु संस्कारों की जटिल ग्रंथि कटी नहीं। उनके स्टिफ स्टार्चवाले कालर के नीचे अब भी यज्ञोपवीत का पवित्र साया था, इसी से कुछ संस्कार बचे रह गए थे।

"क्या बेवकूफी की बातें करते हो! पन्द्रह को उसे ज्वाइन करना है और आज बारह तारीख है। अब बेकार में पोथी-पत्रा दिखाकर क्या उसे उलझन में डालोगे? कहीं पोंगा पंडित ने कह दिया कि साईत सोलह को पड़ती है तो बेचारा साईत छोड़ेगा या नौकरी?"

पति के साथ, उसे फिर मनचाहा लम्बा एकान्त मिलेगा, यह सोच-सोचकर, चन्दन दो-तीन रातों से ठीक सो भी नहीं पा रही थी। सास ने ढेर-सारी चीजें रख दी थीं, जिससे नई गृहस्थी का तम्बू तानने में उसे किसी प्रकार का परिश्रम न करना पड़े।

कलकत्ते में विक्रम का एक नेपाली मित्र था। उसने बड़े आग्रह से, नवविवाहित जोड़े को निमन्त्रण दिया था कि वह बम्बई जाने से पूर्व उससे मिल जाए। फिर वहाँ से बम्बई की दूरी, वह उन्हें अनायास ही हवाई-यात्रा से पार करा देगा, क्योंकि वह स्वयं इंडियन एयरलाइंस का एक ऊँचा कर्मचारी था।

यात्रा का पहला दिन, हँसी-खेल में ही कट गया था और फिर आरम्भ हुआ था कालरात्रि का प्रथम पहर। खा-पीकर, दोनों पास-पास की बर्थ पर लेटे थे। न जाने किस छोटे-से स्टेशन पर गाड़ी रुकी और तीन-चार फौजी छोकरे से अफसर, उनके एकान्त में व्याघात डालने घुस आए। उन्हें बिना सामान के चढ़ते देख, चन्दन मन ही मन आश्वस्त भी हुई थी। लगता था एक या दो स्टेशन की ह्रस्व यात्रा के वे यात्री, दो-तीन घंटे में ही कहीं उतर पड़ेंगे। रात-भर रहनेवाले होते तो क्या इतनी ठंड में एक छोटा-सा बुकचा लटकाए चले आते? कुछ ओढ़ना-बिछाना तो होता साथ में!

तब क्या वह जानती थी कि उनकी यात्रा का आरम्भ, उनकी यात्रा का अन्त होगा। वेगवती गाड़ी गति तीव्र करती जा रही थी, उधर उन चारों ने बैग खोलकर बोतलें निकाली और बड़ी ही अभद्रतापूर्ण निर्लज्जता से बोतलें खोल बँगला में न जाने क्या-क्या कहते, चन्दन को देखते गुटकने लगे। सकपकाकर, निरीह दृष्टि से चन्दन ने पति की ओर देखा, जैसे कह रही हो, 'मझे डर लग रहा है!' विक्रम का चेहरा तमतमा गया। पति के सुदर्शन चेहरे की वह तमतमाहट, चन्दन आज भी नहीं भूल पाई थी।

“चन्दन, तुम मेरे पास चली आओ।" उसने उसे बड़े अधिकार से पुकारा।

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