नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
"नहीं चन्दन, तुम मेरे पास चली आओ इधर ।" उन चारों में से एक नाटे फिल्मी
खलनायक के-से चेहरे पर घनी मूंछोंवाले व्यक्ति ने हँसकर बाँहें फैला दीं।
दूसरा उठकर बत्ती के पास गया और हठात् पूरा डिब्बा घुप्प-से अन्धकार में डूब
गया।
पति से लिपटी, काँपती चन्दन को उसी व्यक्ति ने बड़ी निर्ममता से अपनी ओर
खींचा। फिर तीनों, पत्नी को बचाने के लिए छटपटाते विक्रम को तडातड़ घूसों से
मारते, उसी की बर्थ पर चादर से बाँधने लगे। रेलगाड़ी जन्म-जन्मान्तर की बैरन
बनी, गति को तीव्र से तीव्रतर करती जा रही थी।
"ऐई जे नैडा-एक बारे बाघिनी जे!"
“अरे गंजे-यह तो एकदम शेरनी है रे!" वही नाटा खूँखार व्यक्ति अपने गंजे साथी
से कहने लगा।
पर, चार-चार, नर-व्याघ्रों की मार से और भी खूँखार बन गई बाघिनी, क्या उन्हें
पराजित कर सकी?
उधर विवश बँधा उसका पति कराह रहा था-ओफ! क्या अभागों ने उसका मुँह भी बाँध
दिया था?
क्या उसकी जान ही ले लेंगे वे? यदि पति की जान नहीं भी ली तो अब, क्या वह
अपना अभिशप्त चेहरा उसे दिखा पाएगी?
दूसरा नरव्याघ्र उसे अपनी ओर खींचने ही लगा था कि वह बिजली-सी तड़पी। और कुछ
न हो, रेलगाड़ी का द्वार तो वह अँधेरे में भी टटोल ही सकती थी। पूरे वेग से
भाग रही रेलगाडी का द्वार पाते ही, उसने फिर एक क्षण भी विलम्ब नहीं किया।
आठ-आठ भूखी बाँहों को छलती वह द्वार खोलकर कूद गई थी।
मृत्यु और केवल मृत्यु ही अब उसके इस कलुष को मिटा सकती थी।
किन्तु मृत्यु ने भी सहसा अपनी बाँहें पीछे खींच लीं। आज पूरा एक वर्ष बीत
गया था और वह अपने अभिशाप के साथ ही जी रही थी...।
पूरा एक वर्ष कितनी जल्दी बीत गया और उन बीते दिनों का एक-एक पल निरन्तर उसे
अतीत की ओर खींचता रहा, पर वह भाग नहीं सकी।
क्यों?
इस ‘क्यों' का उसके पास, कोई उत्तर नहीं था।
“सिद्धयोगिनी है माया दी।" चरन ने एक दिन मन्दिर के एकान्त में उससे कहा था,
"जिसे वह चाहने लगती है, उसे वह छोड़ नहीं सकती। अपनी मन्त्रपूत डोरी से ही
बाँधकर रख देती है। तुम्हें बहुत चाहती है, अब देख लेना, चाहने पर भी तुम कभी
भाग नहीं पाओगी।"
"पर तुमसे तो इतना चिढ़ती हैं, फिर तुम्हें क्यों नहीं भगा देतीं?" कुछ
झुंझलाकर चन्दन पूछ बैठी। पर दूसरे ही क्षण, वह स्वयं खिसिया गई। यह भी भला
कोई बात थी पूछने की!
उससे तो, कभी भी किसी ने कुछ नहीं पूछा-वह कौन है, कहाँ से आई है, क्यों चलती
गाड़ी से कूद पड़ी? घर क्यों नहीं लौट जाती?
यही तो इस वैराग्य-कन्दरा में रहने का सुख था। किसी को भी, न कोई जिज्ञासा न
कोई कुतूहल ! क्या गाँजे-चरस के दम ने ही इन दो नारियों की नारी-सुलभ
जिज्ञासा को बेदम कर दिया था?
“हाँ ठीक कह रही हो तुम, मुझे माया दी देख नहीं सकतीं। सोचती हैं, मैं उनके
गुरु को छीन लूँगी, अपने चेहरे के बल पर नहीं, इस निगोड़े शरीर के बल पर। छीन
सकती तो सच, कबका छीन चुकी होती, भैरवी!"
चरन अपना काला चेहरा चन्दन के पास ले आई, गाँजे के दम से आरक्त आँखें देखकर
चन्दन समझ गई कि नशे ने ही उसे और भी प्रगल्भ बना दिया है।
“गुरु तो एकदम पत्थर हैं पत्थर।" वह विरक्ति के स्वर में कहने लगी, "आधी-आधी
रात को अमावस चीरती गई हूँ श्मशान, उस पत्थर की मूरत की मुट्ठी में चिलम थमा,
घंटों खड़ी रही हूँ, कभी आँख उठाकर भी जिसने नहीं देखा, उसे क्या मैं छीन
सकती हूँ? यही तो जान गई है वह योगमाया। इसी से न भागती है, न भागने देती है।
पर मैं भी तो परीबाबा की मजार पर डोरी बाँध आई हूँ, देखू, कैसे नहीं भागने
देती!"
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