नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
और एक दिन, चरन की डोरी ने काँच लगे माँजे की ही भाँति, सिद्धयोगिनी की डोरी
काट दी, फिर उस कटी पतंग की डोर माया दी, लाख लपकने पर भी नहीं पकड़ पाई।
उनका यह रौद्र रूप देखकर, चन्दन भी थर-थर काँपने लगी थी। खुले बाल, नशे से
कपाल पर चढ़ गई लाल आँखें और हाथ में नंगा त्रिशूल! मत्त-भैरवी-सी हो वे
नाचने लगी थीं।
“सच बताना, भैरवी, क्या तुम्हें पता नहीं है कि वह कहाँ है? कैसे मैंने इस
छोकरी को छाती से लगाकर पाला! ठीक कहती थी विष्णुप्रिया दी! जिस थाली में
खाया है, उसी में यह एक दिन छेद करेगी।
कैसा चट-चट जवाब देने लगी थी, मैं जानती हूँ, वह कहाँ गई है। हो न हो, वही
मसानी चांडाल उसे ले भागा है।
"एक बार सोचती हूँ, अच्छा ही हुआ, भाग गई। प्रिया दी कहती
थी-'भृत्यश्चोत्तरदायकः, ससर्पे च गृहे वासे मृत्युरेव न संशयः।' वह मुँह
लगानेवाली चरन दासी यहाँ रहती भी तो साथ में मौत ले आती।" माया दी का अनुमान
ठीक था।
चरन खैपा के साथ ही चली गई थी। चरन चली गई थी, इसी से चन्दन ही को मन्दिर की
धूनी जलाने जाना पड़ा। माया दी के घुटनों में वात-विकार था, वह उतनी दूर चल
नहीं पाती थीं। मन्दिर के मार्ग में ही चन्दन ने देखा, 'श्मशान-विहार' के टीन
के द्वार बन्द थे और एक बड़ा-सा ताला लटक रहा था। वह समझ गई कि चरन खैपा के
साथ ही भाग गई है। चौथे दिन फिर वह उसी मार्ग से निकली तो देखा, ताला खुल गया
था।
अकेले में, खैपा को देखकर चन्दन को न जाने कैसा भय होता था, इसी से वह तेजी
से निकल रही थी कि आँधी के झोंके-सी ही चरन, न जाने किस टीले से कूदकर,
हँसती-हँसती उसका मार्ग अवरुद्ध करती खड़ी हो गई।
"कि गो लतून भैरवी-खुब फाँकी दिच्छिले तो?"
-"क्या है नई भैरवी, खब बद्ध बनाकर भाग रही थीं क्यों? माया दी ने तुम्ह भा
भड़का दिया है क्या? चलो भीतर. पहले तम्हें अपने 'कौत्ता' (कता) के हाथ की
गर्म-गर्म पेशल चाय पिलाऊँ, तब बातें होंगी।"
आज चरन दासी की वेशभषा ही निराली थी। माँग में थी पाब-भर सिन्दूर की गाढ़ी
रेखा, काले पैरों में महावर की दो अंगुल चौड़ी बाढ़, लाल चटक केले की रेशमी
साडी और दोनों हाथ भरी चूड़ियों के बीच श्वेत 'शाखा' और 'नोआ' (लोहे की
चूड़ी) उधर लाल चेक की बुश्शर्ट और काली चुस्त पैंट पहने खैपा भी, दूसरा ही
रूप धारण किए मुस्कुरा रहा था। दोनों के प्रेमतृप्त चेहरों पर एक अनोखी दिव्य
छटा ने ब्रुश-सा फेर, कालिमा को चमका दिया था।
“बैठो," उसने अबकी भैरवी को, लकड़ी के एक उलटे खोखे पर, हाथ पकड़कर बिठा दिया
और हँस-हँसकर पूछने लगी, “क्यों जी, क्या हाल है हमारी माया दी का? पता नहीं
कैसी-कैसी गालियाँ दे रही है खूसट कि रोज गले में खरास लग रही है।"
चन्दन चुपचाप चाय पीती रही, इतने दिनों बाद चाय का वह प्याला उसे अमृत
पात्र-सा ही लग रहा था। जब से चरन गई थी, उसने चाय पी ही कहाँ थी! माया दी, न
चाय पीती थीं, न पीने देती थीं।
"हमने तो भाई, भैरवी!" चरन कहने लगी, “गृहस्थी बसा ही ली। आज यहाँ का
डेरा-डंडा उखाड़ने ही आए हैं। बस यह चांडाली धंधा एकदम खत्म। आज ही दो
बारातों को हमने ठीक बोहनी के वक्त भी लौटा दिया, अपने 'हजबैंड' से एकदम बोल
दिया 'नो'। अरे, जिस हाथ से मेरी माँग में सिन्दूर भरा है, उस हाथ से अब
सूतकियों को चाय थमाएँगे कर्ता? क्यों ठीक कहा न भैरवी?" फिर वह खैपा की ओर
अपनी भुवनमोहिनी हँसी से सबरा कटाक्ष फेंकती, दोनों टाँगें हिलाती टीन की
कुर्सी पर झूला-सा झूलने लगी।
"कलकत्ता में इनके चाचा हैं।" जिस खैपा को यह 'तू' कहकर पुकारती थी उसे अब
'आप' कहती बार-लार स्वर्ग के सिंहासन पर बिठा दे रही थी। "वैसे तो सारे
हिन्दुस्तान में उनकी कम्पनी घूमती रहती है, पर आजकल पड़ाव कलकत्ता में है।
उनकी सर्कस कम्पनी के मनीजर हैं मद्रासी, इनके काका बाबू उन्हीं का खाना
बनाते हैं। कहते हैं, मुझे भी काम दिलवा देंगे। बड़ा मजा आता है, भैरवी!
शेरनी की आँखें हैं एकदम अपनी माया दी कीसी। जो चाहो खाओ-पिओ, बिना टिकट के
तीन-तीन शो का तमाशा देखो और फिर अपने-अपने तम्बू के पर्दे तान, दिन चढ़ने तक
मजे से सोती रहो। रात-भर तमाशा करते हैं कारीगर, इसी से जिसका जितनी देर जी
चाहे, उतनी देर सो ले। यह नहीं कि चिमटा कोंच-कोंचकर, ससुमी माया दी सुबह चार
बजे जगा रही है। ऐ बड़े-उड़े लोहेदार पिंजरों में चीते, भालू, शेर, बड़े-बड़े
हाथी, अजगर। उधर चेहरों पर फलकारी किए जोकर और केले के पेड़-सी मोटी
जाँघोंवाली लड़कियाँ-ऐ भैरवी तुम्हारी कसम, रेशमी जाँघिया और ब्लाउज पहनकर,
ऊँचे झूलों में ऐसी छलाँगें लगाती हैं कि मैं तो मारे डर के आँखें बन्द किए,
'जयगुरु जयगुरु' जपती रहती हूँ। नीचे खड़े रहते हैं, बड़ी-ही जाली लिए आठ
नौकर। ऐसी बात नहीं है पक्का इन्तजाम रहते हैं मनीजर बाबू।"काका बाबू कहते
हैं। सीखने पर एकदम वैसी ही छलाँग लगाने लगूंगी तो पूरे डेढ़ सौ रुपया महीना
बाँध देंगे। मुश्किल काम नहीं है छलाँग लगानी। काका बाबू बतला रहे थे कि जब
तारा और मदा नौकरी करने आई थीं तब ढलढल नाक बहा करती थी, और आज आग के जलते
छल्ले के बीच से सर्र से निकल जाती हैं।"
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