नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
चन्दन के हाथ से चाय का प्याला लेकर चरन ने नीचे धर दिया और फिर चहकने लगी,
"इधर काका, कर्ता को 'मौत का कुआँ' में फटफटिया चलाना सिखा रहे हैं, कहते
हैं, बड़ा तेज दिमाग पाया है भतीजे ने, एकदम नहीं डरता मौत के कुएँ से। सो
हमने कहा, 'डरेगा कैसे खुड़शशूर' (चचिया ससुर), आधी जवानी ही तो मौत के कुएँ
में फूंक दी है तुम्हारे भतीजे ने।'-खूब हँसे काका बाबू।
"ऐ भैरवी!' वह चन्दन का हाथ पकड़कर अनुनय-भरे स्वर में कहने लगी, “चलो न
हमारे साथ, तुम्हें तो चेहरा देखकर एकदम ही भर्ती कर लेंगे मनीजर साहब।"
चन्दन बिना कुछ कहे ही उठ गई। बातों ही बातों में उसे माया दी का ध्यान ही
नहीं रहा था।
‘जल्दी लौट आना, भैरवी!' उन्होंने चलते समय कहा था। उसी आदेश ने, उसे
चाबुक-सा मारकर उठा दिया। चरन की आवेग-तरल धारा की एक बूंद भी उसे नहीं छू
पाई।
"चलूँ चरन, माया दी के घुटनों में आज बहुत दर्द है।"
वह उठकर जाने लगी तो चरन ने फिर उससे कुछ नहीं कहा। शायद अपने दुःसाहसी
आह्वान की व्यर्थता वह समझ गई थी। उस दिन दूसरे ही मार्ग से चन्दन घर लौट गई।
दूसरे दिन, जब वह मन्दिर की झाड़-पोंछ करने गई तो श्मशान-विहार के टीन-टक्कड़
सब नदारद थे। चरन चली गई थी। माया दी अब भी उस अकृतज्ञ लड़की को क्षमा नहीं
कर पाई थीं। वर्षों से, जिसकी सेवा की वे अभ्यस्त हो चुकी थीं, उसके एकदम चले
जाने से वे स्वयं ही अपनी पराजय से मूक बन गई थीं। कहाँ पर चूक हो गई थी उनके
तन्त्र-मन्त्र में? क्या स्वयं उनके ही चित्त के विकार-व्याल ने, उनकी शक्ति
को डंस लिया था? उसकी-सी चिलम अब कौन सजा सकता था? फिर लाख दोष हों छोकरी
में, पैर दबाने में, रोटी बनाने में, समय-असमय गुरु को चिलम पहुँचाने में कौन
पा सकता था उसे? उस पर निरन्तर उसे गलियाने की अभ्यस्त माया दी की जिह्वा के
लिए, अब मनोरंजन ही क्या रह गया था?
चन्दन को वे क्या उसकी तरह डाँट सकती थीं? और वह कलूटी, जिसे चाहने पर ही,
टुकड़ों पर गली के कुत्ते की भाँति, वह दुत्कार और पुचकार सकती थीं-उन्हें
छोड़ गई।
'खुद भुगतेगी हरामजादी।' वह आप ही आप कभी रात को उठ-उठकर ऐसे बड़बड़ाने लगतीं
कि चन्दन को लगता कि उनका दिमाग भी फिर रहा है। दिन-रात डाँटने-मारने पर भी
शायद अनजाने में, उन्होंने उस पालिता दुर्दान्त किशोरी को प्यार भी किया था।
इसी से उसकी प्रवंचना उन्हें और भी गहरा धक्का दे गई थी।
“जाना ही था, तो मुझसे कहकर जाती। मैं क्या उसे रोक लेती, भैरवी? कहीं तुम तो
मुझे ऐसे छोड़कर नहीं भागोगी?" आधी रात को वह उसे खींचकर छाती से लगा लेती और
अकारण ही देर तक सिसकती रहतीं।
पर भैरवी नहीं भागी, भाग गई स्वयं योगमाया!
इधर चरन के जाने के बाद गुरु को चिलम पहुँचाने चन्दन ही जाती थी। पहले-पहले
उसे भय भी हुआ था, किन्तु ठीक ही कहती थी चरन! चिलम, क्या वह किसी भी
हाड़-चाम के पुतले को थमाती थी? वह तो जैसे ठोस पत्थर की मूर्ति बढ़ाकर चिलम
थाम लेता।
किन्तु एक दिन चिलम थमाकर गुरु ने पुकारा, "भैरवी!"
उसका कलेजा धड़कने लगा, किन्तु, धूनी धूम्र से अवसन्न धुंधलके में अनोखे तेज
से दमकता चेहरा देखकर, भय की बेड़ियाँ स्वयं कट गईं।
"तुम अंग्रेजी पढ़ी हो न?" आँखें बन्द थीं-केवल मूर्ति के दो होंठ हिल रहे
थे।
“जी!"
"तब तुम्हें एक काम करना होगा-हमको हिन्दी ठीक नहीं आती।" आँखें अभी बन्द
थीं। विचित्र दुर्गन्धमय धुएँ की एक विलम्बित रेखा, घूमती-घामती चन्दन के
इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगी।
“मैं तुम्हें कुछ अंग्रेजी की पुस्तकें दूँगा, तुम उन्हें हिन्दी में लिखना,
हम भी हिन्दी लिख लेगा।"
आँखें पूर्ववत मुँदी ही रहीं, किन्तु होंठ हँसने लगे-कैसा दिव्य स्मित था
गुरु का! दूसरे दिन से, गुरु साधना को निकलते तो कई मोटी-मोटी पुस्तकों में
लाल पेंसिल की रेखाएँ खींचकर उसे थमा जाते। प्रत्येक पुस्तक में, गुरु का
नाम, उनके सुन्दर अक्षरों में लिखा रहता-भैरवानन्द! ऊपर लिखे यत्न से
काटे-कूटे नाम को भी चन्दन ने पढ़ लिया था, शिवशंकर स्वामीनाथन। निश्चय ही यह
भी उनका ही नाम था। चेहरे से, बोलने के ढंग से वे पक्के दक्षिणी लगते थे, उस
पर स्वयं माया दी ने भी एक दिन कहा था, 'गुरु, इस बार शायद फिर दक्षिण चले
जाएँगे-वहीं तो घर है उनका।
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