नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
कौन थे यह स्वामीनाथन? कैसे, अघोरी साधना-चक्र के जाल में बन गए स्वामी
भैरवानन्द? यह सब चरन भी नहीं जानती थी। माया दी उन्हें कुम्भ के मेले में
मिली थीं, इतना ही उसे पता था। पहले माया दी थीं बाल-विधवा और वल्लभी अखाडे
की वैष्णवी, फिर वहीं से सधवा बनकर चल दी थीं किसी घरबारी नाथ-जोगी के साथ और
फिर जब हरिद्वार के कुम्भ में गुरु को देखा, तब अपनी सुखी गृहस्थी स्वेच्छा
से ठुकराकर इन्हीं के पीछे चली आईं।
'माया दी!' एक दिन दुष्टा चरन ने नशे के झोंक में झूम रही माया दी को चन्दन
के ही सामने छेड़ दिया था, 'आप कब से जानती हैं गुरु को?'
'जन्म-जन्मान्तर से जानती हूँ री, चरन!' और माया दी न जाने कैसी आत्महारा
दृष्टि से उन दोनों को देखकर हँसने लगी थीं।
'खबरदार छोकरी, आज तो पूछ लिया, पर आगे से ऐसी बात कभी मत पूछना। मूरख कहीं
की, क्या पार्वती से किसी ने पूछा था कि वह शिव को कब से जानती है?"
इधर, चरन के चले जाने से माया दी वैसे ही बहुत बदल गई थीं, फिर जब से गुरु
चन्दन से हिन्दी सीखने लगे, तो वह और भी अनमनी हो गई।
गुरु के जाते ही अपना काम निबटाकर चन्दन बस्ता सँभालकर लिखने बैठती तो माया
दी नहा-धोकर वहीं बैठ जातीं। न साबुन लगाती थीं, न और कुछ, फिर भी खुशबूदार
साबुन की बट्ठी-सी ही महकती थीं माया दी, जैसे संदली अगरबत्ती का बंडल खोलकर
नाक के सामने धर दिया हो।
“क्या-क्या लिखने को दे गए गुरु, जरा मुझे भी तो सुना दो, भैरवी?"
और चन्दन उन्हें एक-एक पंक्ति का अनुवाद कर सुना देती :
'आई एम द लार्ड ऑफ ऑल माई सैन्सिज
ऑल अटैचमैंट्स हैव आई शैड
ईवन फ्रीडम ल्योर्स मी नॉट
चेन्जलैस एम आई-फॉर्मलैस
एंड ओमनीप्रेजेन्ट
आई एम शिव, शिव इज इन मी!"
(मैं जितेन्द्रिय हूँ, मोह के समस्त बन्धन मैं तोड़ चुका हूँ-मुक्ति भी मुझे
अब नहीं लुभा सकती-मैं अपरिवर्तनशील हूँ-निराकार सर्वव्यापी शिव हूँ,
मैं-शिवोहं शिववोंह!)
साथ ही दोनों हाथ मस्तक से टेक माया दी कह उठतीं, “जय गुरु, जय गुरु, जय
गुरु, किसने तुम्हें ऐसे खुली पुस्तक-सा बाँच दिया?" झर-झरकर माया दी की
आँखों से आँसू बहने लगते और वह मूर्ति-सी बनी एकाएक स्थिर, अचल हो उठतीं।
किन्तु एक दिन का अनुवाद चन्दन उन्हें नहीं सुना पाई।
लाल पेंसिल से गहरी लालिमा में रँगे उस दिन कई पन्ने, गरु कैसे उसे थमा गए
थे! उस दिन कैसा बदला-बदला चेहरा लग रहा था उनका!
“आज बहुत काम दे गया हूँ, कुछ कठिन भी हैं पद्य, तुम कर पाओगी?"
और उसने पुस्तक थाम, बिना देखे ही गर्दन हिला दी थी।
अनुवाद करते-करते उसे अब अपने गुरु के दिए इस गृह-कार्य में आनन्द भी आने
लगता-चिन्मय शिव तत्व की ज्योति आँखों के सामने जगमगाती रहेगी तो क्या वह
अन्धी थी, जो नहीं देख पाएगी!
तन्त्र-मन्त्र, कुंडलिनी शक्ति, षट्चक्र, इंगला-पिंगला, सुषुम्ना, सहज समाधि,
प्रत्याहार प्राणायाम, सबकुछ तो उसके सहजिया सिद्ध उसे जानेअनजाने पढ़ाने लगे
थे।
वह घंटों बैठी लिखती रहती और पास बैठी माया दी एक-एक पंक्ति का अनुवाद
सुनतीं।
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