नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
'इन ढूं द फायर, व्हिच इज द सुप्रीम सेल्फब्राइटेंड बाई द पोरिंग अव द घी अब
मेरिट एंड डिमेरिट-आई, बाई द पाथ अव सुषुम्ना, एवर सेक्रीफाइस द फन्क्शन्स अव
द सेन्सिज, यूजिंग द माइंड ऐज द लेडल।"
अचानक वह माया दी को आगे की पंक्तियों का अनुवाद नहीं सुना सकी। उसके दोनों
कान सहसा लाल होकर दहकने लगे। वह क्या लिख गए थे। गुरु?
'हेअर कुड वन फाइंड, एनअदर एक्जाम्पिल ऑफ सच ब्यूटी?
'द वेअर सर्फेस ऑफ हर मिरर इज अनवर्दी ऑफ द फेस, हिच इट रिफलैक्ट्स।
'लाइक द स्वार्स ऑफ बीज, फ्लाइंग टू द पारिजात, लाइक द सोल्स ऑफ द सेजिस,
एम्पाइरिंग टू द मेडिटेशन ऑफ आत्मन, सो डू द आइज ऑफ मैन, ले एसाइड ऑल
एक्टीविटी एंड डाइरेक्ट देमसेल्ज टूवर्ड स हर अलोन।'
“सुनाती क्यों नहीं, भैरवी? क्या समझ नहीं पा रही हो?"
माया दी की आँखें चपल होकर नाचने लगी थीं। कहीं अंग्रेजी न जानने का झूठा
बहाना तो नहीं बना रही थी वे?
क्या पता, पढ़कर सब समझ चुकी हों। उनकी ओर देखकर चन्दन क्या कभी उनका आदेश आज
तक टाल सकी थी?
वह रुक-रुककर कहने लगी, “कहाँ मिलेगा ऐसा सौन्दर्य? उस सुन्दरी का दर्पण भी
उसके मुख को प्रतिबिम्बित करने की क्षमता नहीं रखता। पारिजात की सुगन्ध से
खिंची भ्रमरावलि-सी आत्मन् में एकाकार होने की आकांक्षा में साधनारत
तपस्वियों की आत्मन्-सी-उसे देखते ही मानवमात्र की दृष्टि सब कुछ छोड़ इसी की
ओर खिंची चली जाती है।"
माया दी का चेहरा बिना नशा किए ही नशे में तमतमा उठा। उसके हाथ से कागज छीनकर
उन्होंने फाड़ दिया और पत्ते-सी काँपती खड़ी हो गईं।
"कुछ नहीं लिखना होगा अब तुम्हें। चुपचाप जाकर मेरे कमरे में सो जाओ। मैं
गुसाईं से निबट लूंगी।"
बड़ी रात को गुरु लौटे। चन्दन की आँखों में नींद नहीं थी। माया खड़ाऊँ की
खरपट सुनते ही धूनी उकसाने उठ गईं। थोड़ी देर में वह उनकी गर्जना सुनकर उठ
बैठी।
माया दी का कंठ-स्वर क्रुद्ध होने पर अद्भुत रूप से कर्कश हो उठता था, जैसे
किसी माईक में मँह डालकर कोई मेघ गरज रहा हो।
"क्या-क्या लिखकर दे गए हो उसे? अब क्या महागुरु मत्स्येन्द्रनाथ की
तरह सिद्धामृत मार्ग छोड़ धाममार्गी बनोगे, गुरु? छिः-छिः! मैं इस आश्रम में
अनाचार नहीं होने दूंगी, समझे? यहाँ बीस-बीस नरमुंड साधकर मैंने गुरु का
त्रिशूल गाड़ा है। तुम यहाँ सोचते हो, मैं मूर्ख हूँ? जिस अधोमुखी त्रिकोण
में डूबने उतर रहे हो, वह क्या यह अभागी माया देख नहीं सकती?"
माया दी की गुरुगर्जना और भी उच्च अवरोह में चढ़ती जा रही थी, उधर गुरु
जिन्हें देखकर वह, चरन यहाँ तक कि स्वयं माया दी कभी थर-थर काँपती थीं, वे थे
चुप। एक ओर था दहकता ज्वालामुखी पर्वत और दूसरी ओर स्थिर अचल हिमभूधर।
“जय गुरु जालन्धर!" माया दी त्रिशूल को फटाफट धरती पर मारती फिर चीखने लगी
थीं, “चुप क्यों हो, कहो गुरु जालन्धर की शपथ खाकर! देह से पवित्र हो, यह मैं
जानती हूँ, पर क्या मन से भी पवित्र रह पाए हो?"
फटाक-फटाक कर खड़ाऊँ एक बार फिर खटकी और फिर सब शांत हो गया।
बहुत देर बाद माया दी उसके पास आकर लेट गईं। एक-एक साँस से चिलम की सुगन्ध उठ
रही थी।
“अच्छा है, चले गए। तू तो एकदम भोली है, भैरवी! पर अनर्थ होते देरी नहीं
लगती। मरद का मन, चाहे वह लाख साधे, औकात में होता है एकदम देसी कुत्ता!
सामने हड्डी रख दो, तो कितना ही सिखाया-पढ़ाया हो, कभी लार टपकाए बिना रह
सकता है? सो गई क्या?"
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