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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


वह पास लेटी चन्दन के माथे पर हाथ फेरने लगीं, “बड़ी अच्छी है तू, वह चरन होती तो अनर्थ घट गया होता।" पर नहीं, उन्होंने एक लम्बी साँस खींचकर हाथ खींच लिया, “अब मायामोह नहीं बढ़ाऊँगी। मेरे पुराने अखाड़े की गुरुबहन, विष्णुप्रिया अब दिल्ली में है। है तो वल्लभी अखाड़े में, पर खाने-पीने का खूब सुख है और फिर प्रिया, तुझे सिर-आँखों पर बिठाकर रखेगी। कई बार मुझे लिख चुकी है-अपनी चरनदासी-सी एक टहलुवा छोकरी ढूँढ़कर भेज दो। इधर रानीजी ने अपनी बिटिया का छतरी बनवाई है, वहीं उसे भी एक कोठरी दे दी है, मन्दिर की देखभाल भी करती रहती है। तुझे वहीं पहुँचा दूंगी। प्रिया को तुमने देखा भी है, क्यों?"

प्रिया दी को चन्दन देख चुकी थी। एक बार अपनी गुरुबहन का अतापता पूछती विष्णुप्रिया इस अरण्य में भी उसे ढूँढ़ती पहुँच गई थीं। गोरी-उजली सी विष्णुप्रिया बड़ी ही मीठी आवाज में कीर्तन गाती थीं, पर उससे भी मीठा था उनका स्वभाव! पर उनका अखाड़ा था दिल्ली में।

और जो स्वयं उसके गुरु का अखाड़ा था दिल्ली में, वह क्या माया दी जानती थीं!

वह नित्य का काम-धन्धा निबटाकर मन्दिर की झाँड़-पोंछ के लिए चली गई। मन्दिर से लौटते-लौटते उस दिन उसे बड़ी अबेर हो गई थी।

पिछली रात की उत्तेजना से माथे की नसें झनझना रही थीं! धूनी रमाई, उसी से जलते अंगारे चिलम पर धरे, फिर हाथ स्वयं चला गया मूर्ति के पीछे। गहरा दम लगाकर वह फिर मन्दिर के ठंडे फर्श पर न जाने कब तक बेहोश पड़ी रही। कैसा सुख था उस निद्रा में। दोनों हाथ पकड़कर जैसे कोई आकाश में लिए जा रहा था। जब आँखें खुलीं, तब दिन डूब चुका था। वह हड़बड़ाकर उठी और मार्ग टटोलती बाहर आई। दूर जलती चिता की लालिमा डूबते सूर्य से हाथ-सा मिला रही थी।

'जय गुरु जालन्धर'-वह माया दी का सिखाया उनके कापालिक गुरु का नाम जपने लगी।

'दो अक्षर गुरु के नाम के लेना, भय स्वयं ही भाग जाएगा।' माया दी कहती थीं।

पर आज क्या कहेंगी माया दी? इतनी देर तक कहाँ थी? क्या कर रही थी? क्या चरन की भाँति उसे भी आज माया दी अपने संदिग्ध दृष्टि के अग्निबाणों से झुलसा देंगी?

वह एक प्रकार से दौड़ लगाती हाँफती-हाँफती गुहाद्वार तक पहुंची तो संध्या के घनीभूत अन्धकार ने गुफा पर काला कम्बल फैला दिया था।

द्वार बन्द था।

"माया दी!" उसने कुंडी खटकाई।

"चन्दन, चन्दन!" माया दी कराह रही थीं।

चन्दन किसी अनिष्ट की आशंका से ठिठककर खडी रह गई. फिर उसने द्वार का धकला, खट से मुँदे पट खुल गए। वह तेजी से भीतर गई। सिन्दूर पुतं त्रिशूल के नीचे गैरिक पोटली में कसकर बँधी पिटारी से क्रोध की फूत्कार उठ रही थीं, और वहीं पर पड़ा माया दी का शरीर घायल यंत्रणा में ऐंठ रहा था।

"चन्दन!" अजब लटपटे स्वर में माया दी एक बार फिर कराहीं।

“क्या हो गया, माया दी?" चन्दन ने उनके ऐंठते, टेढ़े पड़ रहे चेहरे को दोनों हाथों में साधकर पूछा।

एकदम भंगी दृष्टि से उसे देखकर वह बोलीं, “इँस लिया बैरी ने। दूध देने गई और यह देख।"-तर्जनी पर विषैले दन्तक्षत उभर आए थे।

"गुरु की यही इच्छा थी भैरवी, जो कभी उनकी साधना-मार्ग की पुष्पलता थी, वही बन गई कंटकों की बेल-उखाड़कर दूर फेंक दिया-ठीक ही किया। जय गुरु, जय गुरु!"

"माया दी, क्या बक रही हो, लाओ मैं अँगुली कसकर बाँध दूं।" वह काँपते हाथों से अपना आँचल फाड़ने लगी, पर आँखों के उमड़ते अश्रुवेग ने उसे अन्धी बना दिया।

क्या सचमुच ही माया दी नहीं बचेंगी? कितना बदलता जा रहा था चेहरा!

“मत बाँध भैरवी, प्रेमज्वर में मत्त नाग ने डॅसा है मुझे। संसार का कोई झाड़नेवाला भी अब उसका विष नहीं उतार सकता। देखती नहीं, अभागा सर्पिणी के लिए ही तो व्याकुल होकर फुफकारें छोड़ रहा है। उोई जे, सोहागेर आक (वह है प्रेम की पुकार)।" उस यंत्रणा के बीच भी आनन्दी माया दी ने हँसने की चेष्टा की, पर मुँह टेढ़ा हो गया और ढेर सारा फेन निकल आया, जैसे साबुन का टुकड़ा चबाकर थूक रही हों।

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