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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


'गुरु ने ही मुझे इसी धूनी के पास प्रबोध चन्द्रोदय की कहानी सुनाई थी भैरवी!' माया दी ने कहा था, उससे पूछना-'मेरे कौलाचार्य, अन्ततः तुमने नई भैरवी को ही क्या पार्वती बनाया?'

'उन्हें तुम कापालिक गुरु भैरवानन्द मत बनने देना भैरवी-तुम भाग जाना, दूर चली जाना, बहुत दूर।'

क्या वह यह सब गुरु से कह सकती थी?

माया दी की रक्तचन्दन-पुती छाती भी बैंगनी पड़ने लगी। साँस अभी भी चल रही थी, पर रातों की दोनों पट्टियाँ कस गई थीं।

"भूल मेरी ही थी, माया।" गुरु स्वयं ही बड़बड़ाने लगे, "मैं जानता था, एक दिन यही होगा। इसे पन्द्रह दिन पहले ही जंगल में छोड़ देता तो यह अनर्थ नहीं घटता।"

धीरे-से गुरु ने माया दी का मस्तक अपनी गोदी में धर लिया, और फिर न जाने किस भाषा में बड़बड़ाने लगे।

कभी उनके साँवले चेहरे की नसें तन उठतीं, कभी थककर गर्दन माया दी के चेहरे पर झुक आती।

क्या उनके विष को नीलकंठ अब स्वयं अपने कंठ में धारण कर रहे थे?

कितनी देर तक उनके तन्त्र-मन्त्र चलते रहे, पर अब माया दी की साँस भी रुक गई थी। गुरु जैसे मोह निन्द्रा से जागे।

"भैरवी!" उन्होंने चन्दन की ओर बिना देखे ही उसे पुकारा, जैसे हृदय में छिपे विकार से व्यर्थ बन गई उसकी साधना की पराजय चन्दन ने भी देख ली हो..."गरमी के दिन हैं, अब मृत देह को और यहाँ रखना ठीक नहीं। चिताग्नि तो इसे दे ही नहीं सकता, जलसमाधि के लिए भी बड़ी दूर ले जाना होगा। वो खाई का पानी इतना गहरा नहीं, अजया या फिर इच्छामती नदी में देह प्रवाहित करनी होगी। तुम अकेली डरोगी तो नहीं?"

मोहमयी दृष्टि एक बार फिर तरल स्निग्धता से छलकने लगी।

अज्ञात भय धड़कता चन्दन का कलेजा मुँह को आ गया।

"नहीं।" उसने दृढ़ स्वर में कहा।

"तब ठीक है, मुझे लौटने में देर हो सकती है, घबराना मत, द्वार भीतर से बन्द कर लेना।"

उन्होंने माया दी की निर्जीव देह अपने चौड़े कन्धे पर ऐसे डाल ली, जैसे निचोड़ी गई धोती हो, फिर दूसरे से क्रुद्ध फुफकारों से काँपती गैरिक पोटली को उठाकर बोले, "इँसी गई देह के साथ ही इस इँसनेवाले प्रवंचक को भी आज जलसमाधि दूंगा।"

फिर न जाने किस ओर देखकर हँसते-हँसते लम्बी डगें भरता वह रौव अघोरी तेजी से बाहर निकल गया।

चन्दन ने लपककर कुंडी चढ़ा दी।

ओफ, कैसा विकट रूप था गुरु का! जैसे स्वयं साक्षात शिव ही दक्षकन्या की निर्जीव देह लिए सृष्टि का संहार करने के लिए निकल पड़े हों!

'तुम डरोगी तो नहीं, भैरवी?'

उस स्निग्ध दृष्टि को तो उसने पहचान लिया था।

अरहर के खेत में पति से लिपटी वह नवोढा, बहत पूर्व ही उस दृष्टि को पहचान चुकी थी। विक्रम, उसे खेत में ही छोड़ कुएँ की रहट पर भूल आया अपना कैमरा लेने गया था और जाने से पहले इसी दृष्टि की स्निग्धता में सराबोर कर गया था...'तुम अकेली डरोगी तो नहीं, चन्दन?'

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