नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
वह काँप उठी।
'इस कन्दरा में अनाचार मत होने देना, भैरवी!' यही था माया दी का अन्तिम आदेश।
सोचने-विचारने का समय था ही कहाँ? माया दी का कमंडलु ही था उनका अटैची, बैंक
सबकुछ। उसी में से मट्ठी-भर रुपये निकालकर चन्दन ने कमर में खोंसे, फिर खोजी
विष्णप्रिया दी की चिट्ठी, उन्हें भी तो खबर देनी होगी। सिरहाने, पुआल के
तकिए के नीचे माया दी अपनी नेपाली भुजाली रखती थीं, उसे निकालकर अपनी कमर में
खोंसने लगी तो पकड़, प्रच्छन्न पश्चात्ताप से स्वयं शिथिल हो गई। जिसकी देह
भी अभी प्रवाहित नहीं हुई होगी, उसको लूटपाटकर वह 'दस्य-कन्या' भाग रही थी।
पर माया दी, तुम्हीं ने तो यह आदेश दिया है मुझे-'भाग जाना भैरवी-दूर, बहुत
दूर।' वह स्वयं अपने को आश्वासन देती, द्वार खोलने बढ़ी तो स्तब्ध रह गई।
द्वार बाहर से भी बन्द था।
उसे भीतर से कुंडी चढ़ाने का आदेश देकर, क्या गुरु आश्वस्त नहीं हुए? स्वयं
भी उसे बन्दिनी बना गए। वह खिड़की खोलकर देखने लगी। एक बार ऊँचाई देखकर
झिझकी, फिर माया दी की ही भगवा धोती का एक सिरा, झूटी से बाँध, दूसरा अपनी
कमर से कस वह जंगली बिल्ली-सी सरसराती उतर गई।
जिस भगवा धोती ने कमर बाँधकर उसे मृत्युरूप से बाहर खींचा था, उसी ने आज
मुक्ति भी दे दी।
कमर का फेंटा खोल उसने एक बार उस खिड़की को देखा और फिर तेजी से भागने लगी।
कहीं भी मोड़ पर, उसे वह सहजिया साधक पकड़ सकता था। हाँफती, वह मजार के पास
पहुँची तो उस अरण्य में, आधी रात को नन्हा जादुई चिराग चल रहा था। लोबन की
खुशबू से तर नीम की बयार पसीने से लथ-पथ अधमरी चन्दन पर पंखा-सा डुलाने लगी।
इस अरण्य में, इतनी रात को भी कौन जलाता होगा, यह दीपक और लोबान? क्या यह भी
किसी भक्त की आत्मा का चमत्कार था? चन्दन के रोंगटे खड़े हो गए? दीये की
काँपती लौ में, मजार पर बँधे रंगीन डोरे भी हिल-हिलकर टेढ़ी-मेढ़ी छाया के
चित्र खींचकर कँपा रहे थे।
चन्दन घुटने टेककर बैठ गई, उसने अपने भगवा आँचल का चीर फाड़कर पाए से बाँध
दिया, आँखें बन्द कर न जाने किस मनौती में उसके होंठ बुदबुदाए, फिर वह गहरे
आत्मविश्वास से मुस्कुराती उठ गई।
मजार से निकला एक टेढ़ा-मेढ़ा पथ सीधा चला गया था, 'तालित'। वहीं पर जो भी
गाड़ी मिलेगी, उसी में बैठ जाएगी वह।
'हम ऐसे ही चल देंगे चन्दन!' कभी किसी ने कहा था, 'जिस स्टेशन पर तबीयत
करेगी, वहीं उतर पड़ेंगे और जिस ट्रेन को देखकर मन ललचेगा, उसी पर चढ़
जाएँगे। विक्रम ही क्या उसके कान के पास आकर फुसफुसाने लगा था।
हाँफती-काँपती वह स्टेशन पर खड़ी, उस रेलगाड़ी के जनाने डिब्बे में चढ़ गई।
सुबह का उजाला ठीक से फैला भी नहीं था कि गाड़ी उसके बैठते ही चल दी, जैसे अब
तक उसी की प्रतीक्षा कर रही हो। आज तक जो अरण्यवासिनी, अपनी ब्लाउजविहीन
वेशभूषा की ओर से एकदम उदासीन थी, अचकचाकर डिब्बे की महिला यात्रिणियों को
देखकर लजा गई। किसी मेले की भीड़ लौट रही थी। उस जन-कोलाहल के बीच उसकी सभ्य
चेतना एकाएक लौट आई। छिः-छिः, ऐसी अर्द्धनग्न देह देखकर सब क्या कहेंगी! अंग
की गेरुआ चादर से उसने हाथ-मुँह सब लपेट लिया।
न पास में टिकट था, न कोई संगीसाथी। गेरुआ पोटली-सी बनी वह एक कोने में बैठ
गई। गाड़ी के चलते ही मेले की भीड़ में दो कर्कशा ग्राम्याओं का भयानक
द्वन्द्वयुद्ध छिड़ गया। क्षण-भर को उस पर टिकी कतहली दृष्टियों का फोकस, अब
नवीन मनोरंजक यद्ध पर केन्द्रित हो गया। झगड़ा तब खत्म हुआ, जब भीड़ का
गन्तव्य स्टेशन भी आ चुका था। चन्दन अब उस डिब्बे में अकेली रह गई थी।
एकान्त के क्षणों में ऐसी ही एक यात्रा की स्मृति उसका कलेजा कचोटने लगी। वे
चार वीभत्स चेहरे, कुत्तों की भाँति उसे झंझोड़ते चारों दानव और कराहते पति
की भर्राई पुकार, 'चन्दन, चन्दन!' उसका सर्वनाश देख चुका था विक्रम, फिर भी
वह किस दुःसाहस से मजार पर डोरी बाँध आई?
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