नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
|
10 पाठकों को प्रिय 358 पाठक हैं |
पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
इस रूप की चिंगारी को, अपने यहाँ के बारूदखाने में रखने का साहस,
विष्णुप्रिया सहसा खो बैठी। रानीजी का यूवा भानजा बीच-बीच में, अपने मित्रों
को लेकर आता रहता था। फिर स्वयं विष्णप्रिया के गुरु भी तो उससे मिलने कभी आ
सकते थे। जिसके अलौकिक रूप ने, माया के सिद्ध-सहजिया का हृदयासन डिगा दिया,
वह क्या उसके अधेड़ गुरु को विकार तरंगों में घरनियाँ नहीं खिला सकता था?
स्पष्ट था कि सदा के लिए अपना अखाड़ा छोड़कर आई है, जानकर, अब विष्णुप्रिया
दी उसे अपने अखाड़े की स्थायी सदस्या बनाने में हिचक रही थीं।
वह माया की चेली बनकर दिल्ली घूमने आई है, यह जानकर ही वह उसे साथ ले आई थीं।
उनके दो बार पछे गए प्रश्न का बिना कुछ उत्तर दिए ही चन्दन उठ गई।
"म अब चलूँ, प्रिया दी!" उसने गेरुआ चादर कन्धे पर डाल ली।
कुछ सन्ध्या की उतावली आगमनी ने और कुछ मेघखंडों के जमघट ने अधर का तम्बू-सा
तान दिया था। लगता था, असमय ही वर्षा आरम्भ हो जाएगी।
"ओ मा! नई जगह में ऐसे कहाँ चली जाओगी? और फिर यह चेहरा लेकर। यहाँ तो अधेड़
वैष्णवियों के पीछे भी गुंडे लग जाते हैं, फिर तुम...?" उन्हें बीच में ही
रोककर, चन्दन ने हँसकर कहा, "तुम मेरे चेहरे की चिन्ता मत करो प्रिया दी, अब
इसे छिपाना मैंने खूब सीख लिया है।"
सचमुच ही चादर को लपेट-लपेट उसने बुर्का-सा तान लिया।
"देखा, न?" घुटी आवाज में वह कहने लगी, “अब कौन पहचान सकता है भला वह
संन्यासी है या संन्यासिनी?" वह चली गई और प्रिया दी देखती ही रहीं। चलो
अच्छा ही हुआ, सिर पर आई बला स्वयं ही टल गई।
गेरुआ चादर से कसकर चेहरा ढाँप-ढूँप, चन्दन बस-स्टैंड पर खड़ी हो गई।
सोनिया-विक्रम के साथ न जाने कितनी बार, वह इसी बस-स्टैंड पर खड़ी हुई थी।
सामने रंग-बिरंगे धप-धप जलते और दप-दप बुझते अक्षरों में चमकती एल. आई. सी.
की बुलन्द इमारत, उसे हाथ पकड़कर स्मृतियों के खंडहर में खींचने लगी।
जहाँ चढ़ना था वहाँ चढ़ने में, और जहाँ उतरना था, वहाँ उतरने में फिर उसने
रत्ती-मात्र भी भूल नहीं की। फिर इस विराट कोठी को पहचानने में वह भूल ही
कैसे कर सकती थी?
राह में ही चाय की दुकान पर बैठकर उसने चाय पी, फिर चादर से ही मुँह ढाँपे,
उसने कमर में खोंसी चिलम निकाली, आँचल में बँधे बारूद से सजा, दुकानदार से
चार जलते अंगारे माँगने गई तो वह चौंक पड़ा। सारा मुँह ढंका, केवल दो ही
आँखें देख पाया वह। कैसा मुँह ढाँपे था वह संन्यासी! क्या पता किसी वीभत्स
रोग के प्रकोप से, नाक झड़ गई हो और चेहरे के वीभत्स अवयवों को छिपाने ही
गेरुआ बुर्का बाँधे घूम रहा हो। दिल्ली में तो एक से एक नमूने दीखते रहते
हैं।
कुछ देर से ही, उसने भट्टी से चार जले कोयले निकालकर उसकी चिलम में छोड़ दिए।
चिलम लेकर, वह चौराहे पर खड़ी जिस नेता की मूर्ति की ठंडी शिला पर बैठ गई,
उसे भी वह खूब पहचानती थी।
'कभी रास्ता भूल जाओ तो याद रखना भाभी!' सोनिया ने कहा था, 'इसी मूर्ति की
नाक की सीध में चलती, इसके बाएँ कान की ओर मुड़ जाना। सफेद जालीदार
मेहराबवाला फाटक है हमारा।' मूर्ति की ही ओट में बैठकर, उसने कसकर दम
खींचा-'जय गुरु जालन्धर, बस यहाँ तक जब ले ही आए हो, तो तुम्हीं रखना लाज।'
बाबा पीर, तुम्हारे मजार पर डोरी बाँधी है, चिलम का नशीला धुआँ धीरे-धीरे
मस्तिष्क में चढ़ता, शरबती मदमस्त आँखों में अंजन बनकर उतर आया।
वह उठी तो न पैर काँप रहे थे, न हृदय। यह तो कोई स्मरान्धा नायिका, निःशंक
अभिसारिका बनी चली जा रही थी, अपने भवजलधिरत्न को ढूँढ़ने।
मेहराबदार फाटक पर लगी, दूधिया बत्तियों के दो गोलाकार गुम्बद देखकर भी वह
रत्ती-मात्र विचलित नहीं हुई। यह मार्ग, क्या अब उसके लिए खुला रह गया था?
'स्वामी के घर से भागना कठिन नहीं होता, भैरवी'-माया दी एक दिन नशे में
झूम-झूमकर उसे सुना गई थीं, 'कठिन होता है लौटना! जिस द्वार को खोलकर कूद गई
हो, उससे अब क्या लौट पाओगी!'
पर पिछवाड़े का मार्ग तो था। वह सँकरा मार्ग, जिससे घोसी अपनी भैंस दुहने
लाया करता था। वहीं से वह ऐसे गहरे आत्मविश्वास से भीतर चली गई, जैसे कहीं
घूम-घामकर लौटी हो। अपनी खिड़की पहचानने में उसे समय नहीं लगा, उसी के नीचे
आगत भर्त्तिका बनी वह प्रतीक्षा में खड़ी हो गई।
|