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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


बाबा की मजार पर बँधी डोरी, नशे में झूम रही आँखों के सामने सचमुच फहराने लगी थी।

दूर के कमरे से विदेशी संगीत का स्वर लहराता, तैरता चला आ रहा था। निबोरी की कड़की-मीठी सगन्ध से स्मृति के नथुने फड़कने लगे। सद्यादृष्ट स्वप्न की भाँति सुनहला अतीत सामने बिखर गया। एकसाथ ही छोटे-छोट अनजान स्टेशनों पर पति का हाथ पकड, प्रेम के नन्दन वन की सहस्र गलियों में भटकती रसिकप्रिया, फिर चढने-उतरने लगी। न अब उसे यह भय था कि कोई उसे देख लेगा, न सामान्य-सी आहट ही उसे चौंका रही थी।

पाटिका मन रुककर एक लम्बी कार सीधी उसी के पास रुक गई।

चालक, यदि इतनी सावधानी से न रोक लेता तो गाड़ी, निश्चय ही उससे टकरा जाती।

'कौन है यह बेहूदा?' वह गस्से में भन्नाया हआ उतरकर, उसके सम्मख खड़ा हो गया।

वह हँसी।

कैसी अद्भुत हँसी थी वह। जैसे परलोक का कोई यात्री सहसा क्षणिक चेतना के धुंधलके में, करुणाविमुग्ध स्मिृति का जाल बिछाता, आत्मीय स्वजनों से अन्तिम बार हाथ मिलाने चला आया हो।

देहवल्लरी को भगवा उत्तरीय से आवेष्टित किए, वह मदालसा लज्जा, समर्पण, असहायता की साकार त्रिवेणी बनी उसके सम्मुख खड़ी थी।

"मैं जानती थी, तुम्हें देख लूँगी, बाबा के मजार पर डोरी जो बाँध आई थी!" वह फिर हँसी और इस बार उसी हँसी के साथ, अरहर के खेत, कुएँ की रहट और धारचूला की घाटी, विक्रम के सम्मुख आकर बिखर गई।

"चन्दन, चन्दन!" वह पागलों की भाँति उसे बाँहों में भरकर चमने लगा। वह भूल गया कि अभी-अभी मृत्यु से जूझकर उसकी दूसरी पत्नी ने उसे एक शिशु-पुत्र का पिता बनाया है। वह भूल गया कि जिस मोटर से वह अभी उतरा है और जिसके उदार साये में वह पागलों की भाँति, उसे चूम रहा है, वह भी उसकी दूसरी सास की भेंट है। वह यह भी भूल गया कि पत्नी के प्रसव की कुशल-मंगल के बिना, उसकी सास और माँ, कमरे में चक्कर काट रही हैं। वह तो बाँहों में अपनी अभिरामा की नवीन रूप-छटा देखकर पागल बन गया था। घुटनों तक की भगवा धोती, कंठ में रुद्राक्ष की माला, पूर्ण औदार्य से प्रदर्शित अर्द्धनग्न यौवन की रत्न-मंजूषा जिसे वह अग्नि को साक्षी बनाकर अपने राजकोष में लाया था! उसकी पत्नी, सहचरी, उसकी प्रेमिका।

नहीं, कोई भी कलंक इस चेहरे को कलंकित नहीं कर सकता। चन्द्रमा के कलंक की ही भाँति क्या इसके कलंक ने भी इसे, इस अभिनव रूप में रंग दिया है! वह एक बार फिर उसके अधरों पर झुका, पर यह तो उस कस्तूरी की सुगन्ध नहीं थी, जो उसके शिकारी नाना के गृह में रहने से उसके शरीर में कभी रिस गई थी। इस सुगन्ध को वह पहचानता था। विदेशी मित्रों के दीर्घकालीन साहचर्य की सुगन्ध थी वह। हाल की पढ़ी पंक्तियाँ उसकी आँखों के सम्मुख नाचने लगीं।

'द स्मेल ऑफ मरिजुआना, क्लिग्स टु वेथ एंड क्लोदिंग। द स्मोकर्स सफर फ्रॉम ब्लड शाट आइज।' भगवा धोती की एक-एक भाँज से उठती मदभरी सुगन्ध की लपट, क्या आँखों को भी लाल बना गई होगी।

अपने सन्देह की पुष्टि के लिए, विक्रम ने छाती लगा चेहरा उठाया, पर उसकी अलस सहचरी ने बाहुपाश की जगड़ को और भी कठोर बना लिया। उसे जैसे भय हो रहा था कि इतनी कठोर साधना से जुटा यह सम्बल कहीं कोई छीन न ले।

"विक्रम! कहाँ गया तू?" हड़बड़ाकर दोनों विलग हो गए, सास का . कंठ स्वर चन्दन को अर्द्ध चेतना से यथार्थ के धरातल पर खींच लाया। वह तेजी से खम्भे की आड़ में छिप गई।

“आ रहा हूँ, मम्मी!" विक्रम माँ की ओर बढ़ा, और वह तेजी से सीढ़ियाँ उतरती मोटर के पास खड़ी हो गई थी।

खम्भे के पीछे छिपी छाया ने पास को देखा, उमड़ती हिचकी को कंठ में घुटककर उसने आँखें मूंद लीं।"

“क्या हुआ, कहता क्यों नहीं?" सास बेहद घबराई-सी लग रही थी।

विक्रम माँ का हाथ पकड़कर पोर्टिको की ओर ले चला-

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