नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
"बोलता क्यों नहीं? ठीक तो है दर्शन? बीसियों बार अस्पताल को फोन किया। तेरी
सास तो सौ बार बेहोश हो गईं। एक तो वैसे ही न्युरोटिक हैं, उस पर जब से सुना,
सिजेरियन होगा, तब से दर्शन-दर्शन कर बौरा-सी गईं। क्या हुआ? कह न बेटा, आई
एम प्रिपेयर्ड फॉर द वर्स्ट।'
“दशन ठीक है मम्मी, लड़का हुआ है।" उसने बहत ही धीमे स्वर में फुसफुसाकर कहा,
जिससे गज-भर की दूरी पर खम्भे की ओट में खड़ी छाया न सुन ले।
भाग्य ने कैसे विचित्र दलदल में फंसा दिया था उसे!
पर माँ ने उसकी फुसफुसाहट का बारूद अपनी कंठ की बुलन्द तोप में गोला बनाकर
छोड़ दिया : "अरी सोनिया दर्शन की मम्मी को फिर स्मेलिंग साल्ट तो सुंघा दे!
लड़का हुआ है। चल-चल भीतर, यहाँ खड़ा क्या कर रहा है, डैडी को ट्रंककॉल तो
मिला।"
"भाग्य दखा, रोज घर पर रहते हैं. आज नाती हआ तो चल दिए बम्बई।" पुत्र का हाथ
पकड़कर वह साथ खींच ले गई।
जिस मार्ग से जो आई थी वह चपचाप फिर उसी मार्ग से निकल गई। माया दी ने ठीक ही
कहा था....'यह चेहरा देखकर तो कोई भी पुरुष तेरे सात खून माफ कर देगा भैरवी.
फिर वह तो तेरा रूप-पिपासु पति है!'
दयालु न्यायाधीश ने सचमुच ही उसके सातों खन माफ कर दिए थे। किन्तु मुक्ति
पाकर भी क्या का कलंक की अमिट स्याही छूट सक है?
बेड़ियाँ कटने पर भी तो काल-कोठरी से छटा कैदी, मृत्यु-दंड को नहीं भुला
पाता, स्वयं उसकी ही अन्तरात्मा उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल देती है।
संशय में बँधा, वह चकित दृष्टि से, अपने बन्दी-जीवन काल में एकदम बदल गए
संसार को देखता, सोचता ही रह जाता है। वह अब कहाँ जाएगा...कहाँ?
ठीक वैसे ही, अनजान भीड़-भरे चौराहे पर खड़ी वह मुक्त बन्दिनी भी यही सोच रही
थी-वह कहाँ जाए? कहाँ!
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