नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
किन्तु, उसने उत्तर ही नहीं दिया और विवश अश्रुपूरित दृष्टि से अन्ना उन्हें देखती ही रह गई। मनुष्य भी कैसा विचित्र जीव है! बड़े-से-बड़े आघात को भी वह बलवान समय. की बाँह गह, धीरे-धीरे भूल जाता है। इससे बड़ा आघात और हो भी क्या सकता था! अब वह कालिंदी को कभी अन्यत्र विवाह के लिए राजी नहीं कर पाएगा, और अपने मन से वह कभी विवाह करेगी नहीं।
कैसे-कैसे कल्पना के महल बनाए थे देवेन्द्र ने! कन्यादान कर, वह पहले शीला और दीदी को लेकर जाएगा बनारस, वहाँ गंगा नहाकर फिर जाएँगे तिरुपति, कन्याकुमारी, रामेश्वरम। उसके बाद दीदी को चारों धाम करा, वे पहाड़ चले जाएँगे। वर्षों से अवहेलित पड़े खंडहर पैतृक गृह को सर्वथा नवीन रूप देकर सँवारेंगे। जिस गृह में उसकी बाल्य स्मृतियाँ, ईंट, चूने-गारे के साथ रसी-बसी धरी थीं, उन्हें खोद-खोदकर निकालेगा वह, और फिर समस्त सुख-सुविधाओं से भर देगा-गीजर, गैस सब कुछ और फिर दीदी से कहेगा, "दीदी, याद है तुझे? यहीं तू कैसे आँखें धुएँ से लाल कर, बाँज के दूंठ जला, डालडा के टिन में, हमारे लिए नहाने का पानी गरम कर अँगुली डुबो-डुबोकर देखती जाती थी कि पानी गरम हुआ या नहीं। अब तुझे अँगुली नहीं डुबोनी होगी-गीजर लगा दिया मैंने। अपने गहन दुख के क्षणों में ही मनुष्य बार-बार अपने खो गए अतीत को टटोलता है, सुख-सम्पन्न को अपने वर्तमान वैभव के बीच न अपना अतीत ही याद आता है, न सर्वशक्तिमान विधाता।
आज देवेन्द्र को दोनों ही याद आ रहे थे--अपने इष्ट देवता गोल्ल गोरिल और अपना अतीत! ढालू पथरीली छत का वह मकान, जिसके चौड़े-चौड़े पत्थर का अबरक, सूर्य की प्रथम किरणों का स्पर्श पाते ही, हीरे की कनियों की चमक से आँखें चौंधिया देता था। सामने सीढ़ी से उतरते खेत, आँगन में खड़ा अखरोट का वह दीर्घकायी पेड़, जिसकी दिगंत व्यापी शाखा-प्रशाखाओं पर लदे अखरोटों को वे तीनों भाई पकने से पहले तोड़कर, पटक-पटककर उनका हरा कलेवर विच्छिन्न कर, कच्ची गिरी को सींकों से निकाल-निकालकर खाते थे।
"अरी अन्ना," दादी उस फलहीन वृक्ष को देख घंटों उन्हें कोसती, "तू देख नहीं सकी इन चोट्टों को! अरे नासपीटो, पकते तो तुम्हीं तो खाते, फिर कच्चे फलों का सत्यानास क्यों किया, मरभुक्खो? इनके मारे तो कभी भी कोई पहला पका फल, देवथान में भी नहीं चढ़ा पाती हूँ। क्या सेब, क्या नाशपाती मिहिल, यहाँ तक कि खट्टे अधपके नीबू जामिर भी तोड़-तोड़कर भकोस गए हैं भुखमरे!"
पर दीदी बेचारी क्या देखती! वहाँ तो फल वृक्षों का मुंडन पर्व आधी रात को सम्पन्न किया जाता था। सुबह उठते ही नहा-धो, संध्या कर ही तीनों भाइयों को स्कूल-कॉलेज जाना होता था। कुशासन में बैठे, शिखा फटकार, आँखें बन्द कर, एक अंगुली से नासिका रन्ध्र दाबे प्राणायाम की मुद्रा में उन तीनों को देख, दादी गद्गद होकर कहतीं, “और जो हो रे रुदिया, करम इनके जैसे भी हों, देखने में तेरे ये तीनों खबीस, साच्छात ब्रह्मा, विष्णु, महेश लगते हैं-कौन कहेगा, मौका पाते ही ये पेड़ों पर लंगूर बने एक फल भी नहीं रहने देंगे!"
"क्यों, आज फिर कुछ किया?” रुद्रदत्त का अनुशासन तीनों बेटों को केवल भृकुटि-संचालन से ही उठाता-बिठाता था। मजाल कि कोई दिन डूबे बाद घर से पैर तो बाहर निकाल ले! लघुशंका से निवृत्त होने के लिए भी पिता की स्वीकृति अनिवार्य थी। देवेन्द्र को अच्छी तरह याद था कि एक बार छोटे भाई नरेन्द्र ने ऐसी ही अनुमति लेकर, निवृत्त होने में अनावश्यक विलम्ब कर दिया तो पिता ने गरजकर कहा था, "क्यों रे नरिया, क्या कर रहा है तब से, रावण की-सी पेशाब कर रहा है क्या?"
वहीं पर खड़े देवेन्द्र ने देखा था कि छोटे ने सहमकर प्राकृतिक धार ही रोक दी थी और नाड़ा बाँधते-बाँधते पिता के सामने सिर झुकाकर कहा था, “बड़ी जोर से लगी थी बाबू।"
“जोर से लगी थी।" बाबू ने उसी रुष्ट मुद्रा में उसे चीरकर रख दिया था, “जोर से लगी थी, अरे तब पूरे छः महीने की एक साथ क्यों करता है बे, पहले निवृत्त नहीं हो सकता?
परीक्षा-फल लेकर तीनों भाई लौटते तो बेचारी अन्ना जाखन देवी के बरदायी मन्दिर में दीया जला मन्नतें माँगतीं, “हे देवी, तीनों के गणित में सौ में सौ आएँ, नहीं तो बाबू जिन्दा गाड़ देंगे।"
बाबू ने एक बार नरिया के सौ में से अस्सी आने पर, उसकी नंगी पीठ पर, 'सिसूण' (बिच्छूबूटी) का झाडू-सा बना ऐसा झपकाया था कि पैंट गीली कर दी थी बेचारे ने! सारी पीठ में ददोरे उभर आए थे। रात-भर दादी ने रक्तचन्दन का लेप लगाया था और कठोर पुत्र को बीसियों गालियाँ दी थीं, "अरे रुदिया, तू आदमी है या पत्थर, नन्ही-सी जान को ऐसी बेरहमी से पीटा जाता है कहीं! एक तो बिना माँ का है अभागा, उस पर कौन-सा फेल हुआ था, सुनूँ!"
“तू बीच में मत बोल इजा, तेरे ही लाड़ ने इसे बिगाड़ दिया है, और खिला मक्खन-चीनी लगा 'बाल' (रोटी में मक्खन लगाकर बनाया गया पहाड़ी 'क्रीम रोल')। ज्योतिषी का बेटा है, गणित में पूरे नम्बर नहीं ला पाया तो क्या खाक गणना कर पाएगा?"
"लो, और सुनो, ये भी बाप की तरह जिन्दगी भर भांग भंजकर ही पेट भरता रहे? मेरे महेन्द्र, देवेन्द्र, नरेन्द्र तो डिप्टी बनेंगे, डिप्टी!"
उन दिनों कुमाऊँ में डिप्टी बन जाने का आशीर्वाद ही सबसे अमूल्य आशीर्वाद माना जाता था। उसे याद है, जब बाबू के भांजे रमेश ने उनके चरण छूकर कहा था-"मामा, आपने मेरी ग्रहगणना ठीक ही की थी-मैंने डिप्टी कलक्टरी की परीक्षा में पहला स्थान पाया है।"
"वह तो ठीक है रे भानजे,” बाबू ने लम्बी साँस खींचकर कहा था, "जब किसी मरुभूमि में, एक छायादार पेड़ कभी उग आता है तो सब थके-माँदे राहगीर उसी की छाया में सुस्ताने बैठने लगते हैं। अपने खानदान की मरुभूमि का पहला छायादार पेड़ बन गए हो अब डिप्टी सैप (डिप्टी साहब)। पूरी बिरादरी तेरी ही छाँह गहने जुटने लगेगी-हम पहाड़ियों की यही कमजोरी है भानजे, हर परिवार में एक न एक अकर्मण्य निठल्ला अवश्य मिल जाएगा- कहीं बड़ा भाई है, कहीं छोटा। कहीं भानजा है, कहीं भतीजा।
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