नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
कहीं बाल विधवा बहिन है, कहीं परित्यक्ता..." कहते ही उनकी नजर, सिर झुकाए सब्जी काट रही पुत्री पर पड़ी और उन्होंने अपना अधूरा वाक्य कंठ ही में खींच लिया था।
रमेश दाज्यू के जाते ही, आत्मसम्मानी आहत दीदी, बाबू के सामने खड़ी हो गई थी, “बाबू मुझे आप आज ही वहाँ पहुँचा आइए।"
“कहाँ?" बाबू ने अनजान बनने की चेष्टा की, फिर उत्तर मिले बिना ही वे दीदी के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए थे, "मुझे माफ कर दे अनिया, मेरा मतलब तुझसे नहीं था, भैंस को क्या कहीं अपने सींग भारी होते हैं? उस कसाई के पास अपनी इस कपिला गाय को भेज दूं, ऐसा पत्थर नहीं हूँ मैं चेली (बेटी)!"
"मेरे मुँह से वह बात निकल गई थी, गैत्रबी (गायत्री की सौं), मैंने तेरे लिए वह बात नहीं कही,” पर उस दिन से दीदी एकदम बदल गई थी। न वह अब उनके दही-नीबू सानने के पर्व में सम्मिलित होती, न कभी बाजार से कुछ लाने ही की फरमाइश करती। भले ही बाबू के मुँह से बात निकल गई हो, कहीं न कहीं यह बात मन में धरी तो अवश्य ही होगी, तब ही तो बाहर निकली। उसकी उम्र के दस साल जैसे अचानक बढ़ गए थे-आह, कैसा अमृतोपम स्वाद होता था दीदी के हाथ के सने दही-नीबू का! पहले तीनों भाइयों को वह बड़े पीताभ नीबू की एक-एक फाँक छिलवाने के दुरूह कार्य करने देती, फिर रेशे उतरवाती और फिर बीज निकलवाती-तवे पर कोरे भुने जा रहे भांगा के बीज पट-पट कर सिपाहियों की सी कवायद के बूट फटफटाते फटकने लगते तो मुँहजोर नरिया कहता, "देख-देख दीदी, पंडित रुद्रदत्त भट्ट गुस्से में भटभटा रहे हैं।"
"चुप कर मुँहजले!” दीदी कहती पर छोटे भाई की रसिकता उसके होंठों के कोर पर दुलक आती।
“जो मुँह में आए वही बक देता है, बाबू के लिए ऐसी बात कहते शर्म नहीं आती!" वह उसे डपटती।
"जो भी कहो दीदी, हँसी तो तुम्हें भी आ ही गई।"
“अच्छा जा रे देबी, तू ज्यूंणी हलवाई से दवली का दानेदार कुंडे का दही ले आ।"
बड़े और छोटे की बदनीयती का प्रमाण, इतिपूर्व दीदी को कई बार मिल चुका था। रास्ते ही में दोनों दही की मलाई ही नहीं, ऊपर ढका कागज भी चाट जाते थे।
अब कहाँ गया वह ज्यूंणी हलवाई और कहाँ विलुप्त हो गया वह दानेदार दही! इकन्नी में पूरे पाव-भर का थक्का दही, वह भी ऐसा कि चाकू से काटो तो कलाकन्द-सा कट जाए।
फिर पड़ती चीनी, नमक, भुना जीरा, भुना भांगा और कार्तिकी शहदकटी मूली के लम्बायमान टुकड़े और फिर नमक-मीठा चखने तीनों हथेलियाँ लार टपकाती, बड़ी उमंग से दीदी के सामने बंढ़ आती, “ला तो दीदी, तनिक धर तो हथेली में, मैं गजब का चखुआ हूँ।"
बड़ा. कहता, "मुझे भी-मुझे भी दीदी।"
"नहीं,” दीदी हँसकर कहती-“मेरी क्या जीभ नहीं है?" फिर स्वयं ही अपने उदार करपृष्ठ पर दही सनी फॉक धर, अपनी लाल-लाल जिह्वा से चाटकर स्वयं आत्मश्लाघा में विभोर हो आँखें मूंद लेती, “वाह, इसे कहते हैं अंदाज! एकदम ठीक नमक और मीठा-न रत्ती-भर कम, न रत्ती-भर ज्यादा-अब लाओ तिमिल के पत्ते।"
वहाँ तो तिमिल पत्र पहले से ही धुले-धुलाए रखे रहते, किसको रहता फिर इतना धैर्य कि सनने पर पत्ते लेने भागे।
बड़ा भाई अपने रिश्ते की गरिमा का सहसा जयघोष कर, तनकर कहता, "मैं बड़ा हूँ सबसे, पत्ते-वत्ते में मैं नहीं खाऊँगा-पाली ही में देना मुझे, अपने हिस्से पत्रों पर धर, पाली मुझे थमा दो।"
“वाह, बड़े आए हैं पाली चाटने वाले! मैंने मेहनत की है, मैं खाऊँगी पाली में।"
"देख छोकरी, अच्छा नहीं होगा, कहे देता हूँ। नहीं दिया तो बाबू के आने पर कह दूँगा कि तुमने उनकी कोट की जेब से इकन्नी चुराई है।"
"मैंने नहीं चुराई!" दीदी ने सहमकर कहा था।
“भले ही तूने नहीं चुराई, नरिया को तो तूने ही भेजा था चुराने। एक-एक पैसा गिनते हैं बाबू। हो सकता है, अब तक गिन भी चुके हों और कम देख घर लौट ही रहे हों!"
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