नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
किन्तु जब नेहा को देखा तो लगा, ऐसे अटूट स्वास्थ्य की स्वामिनी से कड़ी से कड़ी व्याधि भी सदा थरथराती ही रहेगी-विचित्र शरीर की गढ़न और वैसी ही विचित्र वेशभूषा। धोती-शलवार की शिथिल भाँजे देख लग रहा था, अब खुली तब खुली, पारदर्शी कुर्ते का निर्लज्जता से खुला गला और गले में मफलर-सी लपेटी गई चुन्नी। होंठों पर प्रगाढ़ लिपस्टिक, आँखों के इर्द-गिर्द अबरखी हरा प्रलेप!
इतने वर्षों में अन्नपूर्णा पहली बार उस भाई के विचित्र परिवार को देख रही थी।
कंठ में रुलाई का अटका गह्वर सहसा आँखों से बह निकला, "तेरे लिए तो हम सब मर ही गए ददा-कैसा पत्थर का कलेजा है रे तेरा!"
"क्या करूँ अन्ना, नौकरी ही ऐसी है-दम मारने की भी फुर्सत नहीं मिलती, पूरी उम्र ही निरर्थक दौरों में निकल गई।” उसने खिसियाकर, समर्थन के लिए पार्श्व में बैठी स्थूलांगी पत्नी की ओर दृष्टिपात किया, “वह तो देख ही रही हूँ-उम्र कुछ अधिक तेजी से निकल गई है, लगता है। एकदम बूढ़ा हो गया है रे तू-कितनी शक्ल मिलने लगी है बाबू से!" एक लम्बी साँस खींचकर अन्ना ने बड़े स्नेह से उसकी पीठ पर हाथ फेरा-कैसा अजीब रिश्ता है भाई-बहन का, समय के साथ-साथ अपनी गृहस्थी की ही सीमारेखा में बँधा भाई अपनी बहनों को जिस तत्परता से भुला देता है उसी तत्परता से बहन उस निरर्थक भग्न भुलाए गए रिश्ते की डोर को कसकर मुट्ठी में बाँधे रखना चाहती है।
उसे वे दिन बार-बार याद आने लगे, जब चारों भाई-बहन एक ही थाली में, परम सन्तोष से एक साथ खाने बैठ जाते थे-कभी दाल में पड़ी जमे घी की डली, दक्ष अँगुली के चातुर्य से बड़ा भाई अपनी ओर खींच लेता, कभी छोटा-मँझला भाई और अन्ना हमेशा टोटे में रह घृतविहीन दाल ही चाटते रहते-भविष्य की उस अविवेकी छलना का आभास तो अन्ना उस समवेत भोजन में ही पा चुकी थी।
“विवाह में हलवाई नहीं आएगा!" मँझले ने कहा था, “सुरुचिसम्पन्न, ऊँची पसन्द का समधियाना है, ओबेराय से खाना आएगा, आजकल उन्हीं के स्टाल लगते हैं-वहीं सब प्रबन्ध करेंगे दीदी!”
“कैसी बातें करता है तू! कुँअर कलेवा भेंटुणा का तो शुगन होता है रे, तू चिंता मत कर, मैं अपने हाथों से बनाऊँगी।"
बारात के ठहराने का प्रबन्ध भी पूरा हो गया था, ओबेराय के ही कुछ कमरे बुक करवा लिये गए थे, दोनों मामा एयरपोर्ट रिसीव करने जाएँगे, वहाँ से तो पाँच ही बाराती आ रहे हैं-वर, वर के पिता और दो मामा। यहाँ से उनके कुछ इष्टमित्र भले ही जुट जाएँ।
“उन दो मामाओं से तो हम दो मामा निबट लेंगे-क्यों, है ना रे?" पहली बार सहमे बड़े मामा ने छोटे भाई से रसिकता करने की चेष्टा की पर उसी क्षण दबंग पत्नी की तीखी दृष्टि ने उन्हें फिर भीगी बिल्ली बना दिया।
"अरे भई, कालिंदी को किसी ब्यूटी सैलून में ले जाकर जरा ढंग से सजा-वजा तो दो, कहो तो मैं ले जाऊँ? वैसे हमारी बेबी को इन सबकी खासी पहचान है, बालों में शैंपू भी करवाना हो तो वहीं जाती रहती है, पैडिक्युअर, मैनिक्युअर, वैक्सिग, पता नहीं क्या-क्या!" बड़ी मामी के विराट् वपु पर तम्बू-सी तनी भारी कांजीवरम की सुवर्ण तरंगें फिसली जा रही थीं। "नहीं,” कुछ कठोर अशिष्ट स्वर में ही कालिंदी ने वह उदार प्रस्ताव वहीं फेर दिया था, “मैं जैसी हूँ, वैसी ही रहूँगी-मुझे कोई सजना-वजना नहीं है..."
"तुम्हें जरूरत ही कहाँ है कालिंदी,” माधवी उसे खींचकर अपने साथ बाहर ले गई, “बाप रे बाप! तेरी बड़ी मामी हैं या पूरी बोफोर्स तोप! क्या गोले पर गोले दागे चली जा रही हैं और तेरी ममेरी बहन! गर्दन है ही नहीं, उस पर अदा ऐसी कि कोठे की बाई जी भी पानी भरें। किस चक्की का पिसा आटा खाती हैं माँ-बेटी!"
कालिंदी को हँसी नहीं आई, खिन्न स्वर में कहने लगी, “जानती है माधवी, पहली बार मुर्दा चीरने में भी मुझे ऐसा डर नहीं लगा था, न जाने क्यों भीतर ही भीतर थरथराती जा रही हूँ। यह सब नौटंकी मुझे अच्छी नहीं लग रही है।"
"तब हाँ क्यों कर दी थी? उस वक्त तो तस्वीर देखकर दिल मचल गया था, क्यों? अरी घबड़ाती क्यों है, वह भी डॉक्टर है, तन और मन दोनों की नाड़ी ठीक ही थामेगा! अच्छा, एक बात बता, तेरी तस्वीर भी क्या उसे दिखाने भेजी गई थी?"
“नहीं, कम-से-कम मुझे पूछकर तो नहीं भेजी गई, और मामी बिना पूछे कोई ऐसा काम नहीं कर सकतीं।"
“बड़ा समझदार है पट्टा तब तो। मान ले, तू लूली-लंगड़ी-कानी होती तब?"
“उसी से पूछ जिसने यह मूर्खता की है। सच कहूँ तो मुझे अपने इस रिश्ते के लिए न उत्साह है, न कौतूहल-अम्मा इधर मेरे लिए बेहद परेशान रहने लगी थीं, कहती तो कुछ नहीं थीं, पर मैं उनके मन की बात खुली किताब-सी बाँच सकती हूँ माधवी, दो वर्ष बाद मामा रिटायर हो जाएँगे-माँ को दिन-रात एनजाइना परेशान किए रहता है. मामी डायबिटिक हैं-मामामामी दोनों को यह रिश्ता बेहद पसंद था, मैं क्या कभी उनका दिल दुखा सकती हूँ?"
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