लोगों की राय

नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :9788183610674

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

430 पाठक हैं

एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


माधवी ने देखा, उन निष्कपट निर्दोष आँखों में न भय था, न आकुलता-वह एक सादा साड़ी पहने थी, आभूषण के नाम पर कंठ में एक पतली-सी चेन थी, हाथ में एक सोने का मोटा-सा कड़ा-माधवी उसे मंत्रमुग्ध होकर देखती रही-सौंदर्य ने जैसे सहसा वैराग्य धारण कर लिया था। ठीक ही कहा है हमारे कवियों ने, मधुर आकृतियों के लिए सब कुछ ही मंडन द्रव्य बन जाता है।

अपने डॉक्टरी सफेद चोगे की जेबों में दोनों हाथ डाले, वह इस क्षण कितनी सुन्दर लग रही थी! कंठ में पड़ा आला भी जैसे कंठ की सतलड़ी बना चमक रहा था।

"सच कहती हूँ माधवी, मुझे बेहद डर लग रहा है...” उसने काँपते हाथ से माधवी का हाथ अपनी मुट्ठी में दाबकर कहा, “तू मेरी विदा तक मुझे एक पल को भी नहीं छोड़ना, मुझे बहुत घबराहट हो रही है।"

माधवी ने हँसकर उसे खींचकर कहा, "चल, कहीं जाकर एक प्याला कॉफी पी आएँ, तेरी सारी घबराहट दूर हो जाएगी।"

पुत्री की घबड़ाहट की छूत अन्ना को भी लग गई थी। वैसे तो कन्यादान के पूर्व किस जननी का कलेजा नहीं काँपता, पर अन्ना की आँखों में नींद नहीं थी। उसके अपने विवाह की कटु विलुप्त स्मृति सहसा आज फिर हरी हो गई थी-ठीक ऐसे ही उसकी दाहिनी आँख उस दिन भी फड़की थी और उस रात भी वह बेचैन करवटें बदलती रही थी, कौन देखेगा अब उसके दो भाइयों को, कौन बूढ़ी दादी के चौके के सरंजाम में वक्त लगाएगा, कौन बाबू की कुंडली गणना में उनकी सहायता करेगा? वक्त कितनी जल्दी बीत गया! कल ही तो कालिंदी की बारात आएगी और परसों तड़के ही वह उड़कर सात समुद्र पार चली जाएगी। सहसा उसका अश्रुबाँध टूट गया, उसका एकमात्र अवलम्ब उसकी कालिंदी, जिसे सयानी होने पर वह संकोचवश कभी छाती से लगा, मन-भर लाड़-दुलार भी नहीं कर पाई थी, एक बार उतनी दूर गई तो क्या सहज में लौट पाएगी?

भगवान करे, वह सहज में न लौट पाए, अपनी अभागिनी माँ की भाँति, मायके की देहरी ही उसकी नियति न बने! उसके जी में बार-बार आ रहा था, वह भागकर, अकेली सो रही बेटी के कमरे में चली जाए और उसे छाती से चिपटा, अपने सुप्त ममत्व के आँसुओं से उसे नहलाकर कहे, “जा बेटी, जा, अपने पति का भरपूर सुख भोग, दूधों नहा पूतों फल..."

आधी रात बीत चुकी थी-सहसा उसकी खिड़की से सटे नीम के पेड़ पर उल्लू बोला। इस मनहूस आवाज को पहचानने में वह कभी भूल नहीं कर सकती थी। ऐसे ही तो उसके विवाह के एक दिन पहले भी उल्लू बोला था। वह हड़बड़ाकर उठी और खिड़की के पास खड़ी हो गई। हाथ से ताली बजा, मुँह से "हट-हट" कर उसने उस दुर्दात पाहुने को भगाने की चेष्टा की, पर वह नहीं उड़ा और बोलता रहा। एक बार, दो बार, तीन बार-फिर फड़फड़ाकर डैने फटफटाता उडता गहनांधकार में विलीन हो गया। किसी अज्ञात आसन्नप्राय संकट की चेतावनी ही दे गया था क्या अभागा?

"बाबू, कल मेरी खिड़की के बाहर उल्लू कई बार बोलता रहा,” डरी-सहमी अन्ना ने पिता से कहा था तो उन्होंने तब उसे आश्वस्त किया था, "चिन्ता मत कर अन्ना, हमारे शास्त्रों में हर अमंगल निवारण का समाधान है, ऋग्वेद में इसी उलूकध्वनि के अमंगल नाश के लिए अचूक नुस्खा है, उसे दुहराती रह :

यदुलूको वदति मोघ मेतद्

अर्थात् “हे भगवान, इस उल्लू का कथन मिथ्या हो।"

किन्तु, कहाँ हुआ था उसका कथन मिथ्या! सोचते-सोचते कब उसकी आँखें लग गईं, वह जान भी नहीं पाई।

"दीदी, दीदी, आज घोड़े बेचकर सो रही हो क्या? नहा-धोकर नैवेद्य बनाना है, क्या भूल गईं? पूर्वांग की पीली धोतियाँ सुखाकर, तिल, जौ, कच्चा दूध सब रख आई हूँ," शीला का स्वर सुन वह अचकचाकर उठ बैठी।

“ऐसी नींद तो सुना, कन्या की विदा के बाद आती है-पर लगता है, तुम्हारी दीदी ने अभी से गंगा नहा ली।" बड़ी बहू की व्यंग्योक्ति ने अन्ना को खिसियाकर धर दिया।

नहा-धोकर वह निकली तो सब उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

पहाड़ से आयातित पंडितजी सुड़क-सुड़ककर चाय की छूटों के साथ मंत्रोच्चार करने लगे, “अब कन्या को वरपक्ष से आई हल्दी लगा, नहाने की परात में विठाइए-भट्टज्यू, इस पूजा में काफी देर लगती है, परलोक के सारे पितरों को जो न्यौता जाएगा..."

"आ कालिंदी, हम हल्दी लगा दें, तू फिर गुसलखाने में नहा लेना, अव कौन नहाता है परात में।" मँझली मामी ने उसे खींचकर पटले में बिठा दिया।

"अरे शगुन आखर गाओ हो कोई! नहीं आते क्या?” पंडितजी का ढीला चश्मा बार-बार नाक पर फिसला जा रहा था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book