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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


'...मुरलिया तू कौन गुमान भरी!'


कभी एक गाना सुना था : “मुरलिया तू कौन गुमान भरी, सोने की नाही, चाँदी की नाँही, नाँही रतन जड़ी...” किन्तु सोने-चाँदी की न होने पर भी, कभी-कभी गुणी वादक के अधरों पर धरी यही मुरली संगीत रसिक जनों को अमृतरस से सराबोर कर उठती है। आज से लगभग अठारह वर्ष पूर्व मैं अपने पति की देखभाल के लिए इलाहाबाद के अस्पताल में थी। अस्पताल में, वह भी इलाहाबाद के उस अरण्य स्थित नए बन रहे अस्पताल में, सन्ध्या घनीभूत होते ही उदासी का गह्वर गला घोंटने लगता था, अँधेरा होने से पहले ही सियारों की 'हुआ-हुआ' वातावरण को और भी मनहूस बना देती थी। एक दिन आधी रात को नींद टूटी तो सुना कोई करुण स्वर में बंसी बजा रहा था। न जाने कौन-सा राग था किन्तु दोनों निषादों के स्पर्श में मंद्र सप्तक के मेघ का स्पष्ट संकेत था। लग रहा था कोई अपनी ही वेणुध्वनि से मुग्ध शिल्पी मग्न चैतन्य होकर स्वरों में डूब-उतरा रहा था। स्वरों की ऐसी विलक्षण परिक्रमा वैदग्ध्य के बिना सम्भव नहीं हो सकती, पर कौन था यह शिल्पी? कोई मरीज या कोई संगीत रसिक डॉक्टर? दूसरे ही दिन मेरी जिज्ञासा का उत्तर स्वयं मिल गया। अपने नन्हे पत्र की शल्यक्रिया के लिए रघनाथ सेठ अस्पताल में मेरे ही प्रतिवेशी थे। “मरीज़ों की नींद खराब न हो, इसी से रज़ाई से मुँह ढाँपकर बजा रहा था, सोचा था आवाज बाहर नहीं जाएगी पर देखिए ना, आपको भी जगा दिया।" उन्होंने खिसियाये स्वर में कहा, मैं उन्हें कैसे विश्वास दिलाती कि उस जगाने के लिए मैं उनकी कृतज्ञ थी।

चार भाई और तीन बहनों के भरे-पूरे एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे रघुनाथ सेठ को संगीत की प्रेरणा मिली अपनी जननी से, जो नित्य अपने भजन-कीर्तन से, अबोध पुत्रों को अनजाने ही जन्म से संगीत की घुट्टी पिलाती रहीं। परिवार में भाई काशीनाथ ही थे वंशीवादक। रघुनाथ भी कभी वंशीवादक के रूप में ख्याति प्राप्त करेंगे, यह शायद कभी किसी ने सोचा भी नहीं था। पिता नौगाँव में पोलिटिकल एजेंट के दफ्तर में नियुक्त थे, वहीं रघुनाथ की प्रारम्भिक शिक्षा आरम्भ हुई। बड़े भाई की वंशी को वे सदा लोलुप दृष्टि से देख-भर सकते थे, वे उन्हें अपनी वंशी छूने भी नहीं देते थे। “एक दिन हमने भाई की वंशी रख ली, बाद में उन्हें पत्र लिखा कि वंशी हमारे पास है।” वंशी के साथ-साथ रघुनाथ भाई की प्रतिभा भी अपने साथ ले आए। अग्रज पिछड़ गए, अनुज ने प्रभूत ख्याति प्राप्त की।

इलाहाबाद आकर उन्हें मनचाहा वातावरण मिल गया। आकाशवाणी में नियुक्ति हुई और दिन-रात विभिन्न घरानों के सुख्यात गायक-गायिकाओं को सुनने का अवसर मिलने लगा। "हम सुनते और सीखते कि कैसे विभिन्न घरानों के गायक, एक ही राग को विभिन्न ढंगों से प्रस्तुत करते हैं। उनके प्रयोग हम अपनी वंशी में उतारते रहते।" वहाँ संगीतकारों को सुनने का अवसर तो मिलता ही, सुमित्रानन्दन पंत एवं इलाचन्द्र जोशी जैसे साहित्यकारों का सुखद साहचर्य भी अनायास ही मिल गया। किन्तु आकाशवाणी के समयबद्ध कार्यक्रमों का पूर्वनिर्धारित अंकुश उन्हें धीरे-धीरे कोंचने लगा। तत्कालीन प्रसिद्ध वंशीवादक पन्नालाल घोष के चरणों में बैठकर सीखने की अदम्य इच्छा, रघुनाथ को बम्बई खींच ले गई। उस महानगरी में न उनका किसी से परिचय था न रहने का ठौर-ठिकाना। उनके वे दिन अत्यधिक संघर्षपूर्ण थे, उन्होंने मुझे बताया कि कैसे वे पैदल चलकर, लम्बी दूरी पारकर पन्नालालजी के पास जाते, उन्हें भी कभी समय रहता कभी नहीं, किन्तु सुयोग्य गुरुशिक्षा का वही जल-बिन्दु निपात, उनके घट को भर गया। अनेक कठिनाइयों से जूझते-जूझते कभी-कभी वे हिम्मत हारने लगते, उन्हें लगता प्राणों से प्रिय वंशी पर उनकी पकड़ शिथिल हो रही है, क्यों न फिर आकाशवाणी की ही नौकरी कर लें किन्तु फिर विजय वंशी की होती और वे दुगुने उत्साह से जुट जाते।

कभी-कभी लगता है, यह लगन हमारे आज के शिष्यों में नहीं रह गई है। कुछ वर्ष पूर्व मैं नेशनल आर्काइव के लिए पण्डित कृष्णराव शंकरजी का साक्षात्कार ले रही थी, उन्होंने कहा था, “आज के शिष्य में कुछ सीखने का धैर्य ही कहाँ रह गया है? वह तो अब अहंमत्त हो भस्मासुर की भाँति, स्वयं गुरु को ही भस्म करने को सदा तत्पर रहता है। जल्दी-जल्दी सीखा और बन गए पण्डित। हम लोग पाँच वर्ष की उम्र से पिता के साथ संगीत के जलसों में जाते थे, घण्टों स्वरों के उतार-चढ़ाव को सुनते थे, दिन-रात रियाज करते थे तब कहीं मंच पर गाने का साहस कर सकते थे। राज्याश्रय भी था, पुरस्कार भी थे किन्तु दोनों ने सदैव कलाकार को दिशा-संकेत ही दिया, भ्रष्ट नहीं किया।"

हमारी भारतीय कला की विशेषता है उसका सशक्त आत्मिक पक्ष, पाश्चात्य संगीत की भाँति केवल संहति या 'हारमनी' को ही हमारा संगीत सबकुछ नहीं मानता, इसी से जब कभी पूर्वी एवं पश्चिमी संगीत की युगलबंदियाँ होती हैं तो पूरब पूरब है, और पश्चिम पश्चिम की उक्ति सार्थक लगने लगती है। भारतीय संगीत का प्राण है ‘गमक'। कम्पन, आन्दोलन, मीड़, कण, गिटकिरी, मुरकी इत्यादि का प्रयोग पश्चिम के संगीत में असम्भव है। उनकी 'हारमनी' का अर्थ ही है कि प्रत्येक स्वर से तृतीय स्वर का निरन्तर प्रयोग हो, ऐसा प्रयोग भारतीय संगीत के लिए यदि सम्भव भी हो तब भी उसके लिए क्षतिकर है। ऐसे आयोजन भले ही सुखश्राव्य हों, पूर्व-पश्चिम की इस मिश्रण की अभिज्ञता हमें किसी विशेष उपलब्धि से समृद्ध नहीं करती। रघुनाथ सेठ ने यद्यपि ऐसे प्रयोगों के सफल प्रदर्शन पश्चिम में किए हैं, हालैण्ड में जर्मनी के क्रिस्ट हिंज के साथ, अमेरिका में हर्बिमन, पाल हौर्न के साथ।

वंशीवादन में रघुनाथ की एक मौलिक देन है, उनकी एक और सूझ। उनके कथनानुसार कई राग ऐसे होते हैं जिनमें मध्यम-पंचम के बीच, मीड़ का होना आवश्यक है, कभी-कभी 6 छिद्रों में इनकी परिवेशना कठिन होती है, सातवाँ छिद्र अँगुली से बजाने के लिए कष्टकर हो उठता है, या तो फिर बहुत लम्बी अँगुलियाँ हों, पर उन्हें भी कोई कहाँ तक फैला सकता है? इसीलिए सातवें छिद्र को, कुछ निकट बनाया गया। फिर भी समस्या नहीं सुलझी, इसी कठिनाई को दूर करने के लिए रघुनाथ ने एक 'की' बनाई, इससे दक्ष वादक विशुद्ध मध्यम-पंचम की मीड़ प्रस्तुत कर सकता है। उदाहरणार्थ मालकौंस में धैवत मिलता है, 'की' लगाने से मन्द्र में मध्यम मिल जाता है, म ध की मीड़, इसकी सहायता से वंशी में भी सम्भव हो जाती है।

मैंने रघुनाथ सेठ का वंशीवादन अनेक बार सुना है, संगीत के अखिल भारतीय कार्यक्रम में भी, अस्पताल में रजाई के भीतर बजाई जा रही वंशीध्वनि में भी। इसी वर्ष, प्रायः नित्य ही प्रातःकाल. वरली स्थित शिव-मन्दिर के दर्शन को जाती थी, मन्दिर के दूसरे छोर पर ही रघुनाथ का फ्लैट था। प्रातःकाल के उस धुंधलके में जब वरली की मुखर सड़क निःस्तब्ध पड़ी होती थी, वंशी की ध्वनि वैतालिक की मिठास का आभास देती थी। मैंने एक दिन पूछा तो बोले, “हाँ, वही समय मुझे रियाज के लिए ठीक लगता है, चारों ओर निःस्तब्धता का गांभीर्य, यही मुझे चाहिए, तब ही मैं तन्मय एकाग्रता से घंटों वंशी बजा सकता हूँ।"

आज, ऐसी एकाग्र तन्मयता न श्रोता के लिए आवश्यक रह गई है न संगीतकार के लिए। श्रोता कभी भी टेप कर उस परिवेशित संगीत का आनन्द ले सकता है। जब श्रोता के हृदय में एकाग्रता नहीं रहती तो संगीतकार में ही एकाग्रता कैसे रह सकती है? पहले श्रोता, आनन्द में निमग्न हो कला का आस्वादन करता किन्तु शैल्पिक प्रयोग ने आज प्रत्येक कला को संस्करण सुलभ कर दिया है। हम आज कलाकृतियों के नकली रूप का ही आस्वादन करने के अभ्यस्त हो गए हैं। संभवतः यही कारण है कि प्रचार-प्रसार से दूर स्वयं अपने सुदृढ़ दुर्ग में बन्द रहकर जो कलाकार निष्ठा से अपनी कला की सृष्टि में निमग्न रहता है, उसे मान्यता यदा-कदा ही मिल पाती है। यही कारण है कि रघुनाथ को भी वह मान्यता आज तक नहीं मिल पाई जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। वैसे, शायद ही कोई ऐसी डाक्यूमेंटरी होगी, जिसका संगीत उन्होंने न बाँधा हो, साथ ही लता मंगेशकर, भूपेन्द्र, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, सुरेश वाडकर, अनुराधा पौडवाल आदि का संगीत निर्देशन किया है, विदेशों में कई सफल कार्यक्रम दिए हैं, कितने ही एल. पी. बने हैं, किन्तु सम्भवतः इसी ने उनके वादन पक्ष को लेकर आलोचकों को मुखर कर दिया कि वह व्यवसाय से जुड़ गए हैं। मैं तो सोचती हूँ यह उनका सराहनीय पक्ष है, फिल्मों में जैसा कर्णकटु संगीत लोकप्रिय होकर लोगों की निम्न रुचि जगा रहा है उसके लिए आवश्यक है कि उन्हें सुयोग्य व्यक्ति का संगीत-निर्देशन मिले-क्या श्री भीमसेन जोशी किसी चलचित्र में संगीत नहीं दे रहे हैं? और क्या इससे उनके उत्कृष्ट स्तर के गिरने की कोई सम्भावना हो सकती है। कभी नहीं! लोकप्रियता पाने के लिए यदि कोई कलाकार जानबूझकर धरती-आकाश एक करता है तो वह लोकप्रियता कालजयी नहीं हो सकती किन्तु यदि अपनी प्रतिभा के बूते उसे लोकप्रियता प्राप्त होती है, तो वह स्वयं सरस्वती का अनुग्रह है, उसकी कभी क्षति नहीं हो सकती। स्वयं रघुनाथ के शब्दों में, “संगीत-साधना मेरे लिए एक सतत प्रवाहमयी नदी की धारा है जो मुझे नित्य जीवन-शक्ति देती रहती है। प्रत्येक पद पर वह मुझे अपने अस्तित्व की अभिज्ञता से झकझोरती रहती है एवं नित्य नवीन प्रेरणा देती है। मेरे लिए वंशी एक सशक्त आयुध है जो नैराश्य, क्लान्ति एवं तनाव के कठिन क्षणों को भी पराजित करने में सक्षम है। मैं इस भावना का अनुभव कर सकता हूँ किन्तु व्यक्त करने में असमर्थ हूँ। वंशी के स्वरों से लुकाछिपी के खेल में ही मुझे सर्वाधिक आनन्द आता है। अपनी कला या घराने के विषय में क्या कहूँ? इस संदर्भ में एक घटना स्मरण हो आती है। एक बार श्री लक्ष्मीलाल पित्ती के निवास स्थान पर एक संगीतानुष्ठान किया गया। प्रख्यात चित्रकार हुसेन भी वहाँ आमंत्रित थे-उन्हें तूलिका थमा दी गई और मुझे वंशी। मुझसे फरमाइश की गई, मैं वंशी पर गोरख कल्याण बजाऊँ और श्री हुसेन से आग्रह किया गया कि वे उस राग को चित्रांकित करें।

“उन्होंने मुझसे पूछा-'आपकी स्टाइल क्या है?'

“मैंने पूछा-'आपकी?'

"हम दोनों ही इस दुरूह प्रश्न की व्याख्या नहीं कर पाए।"

जितनी ही बार मैंने रघुनाथ का वंशीवादन सुना है एक अभिज्ञता अत्यन्त सुखद लगी है-जटिल लयकारी के बीच, पुनः मुखड़े में प्रत्यावर्तन, वह भी इस सहजता से जैसे सीढ़ियाँ उतर रहे हों। यह एक कटु सत्य है कि इस युग में, अनेक औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक साधना के बूते जिसने अपने को प्रतिष्ठित कर लिया वही आज श्रेष्ठ कलाकार है। चमकीले चीनी रेशम के कड़े कुर्ते का परिधान कन्धे पर पूर्वाभ्यास की गई उदासीनता से डाला गया जामेबार शाल, सोने के बटन, कार्यक्रम के पूर्व बाँधी गई स्वयं अपनी ही आत्मश्लाघा से ओतप्रोत भूमिका, मंच पर तीन-चार विदेशी चेलों की उपस्थिति ये सब आज मंचीय शिष्टाचार के लिए आवश्यक हैं।

लन्दन के अनेक दूरदर्शनी कार्यक्रमों में मैं ऐसे एक नूर चेहरा सौनूर परिधान के अनेक लटके देख चुकी हूँ। रघुनाथ का सरल व्यक्तित्व सौभाग्य से इन लटकों से अछूता ही रह गया है। उनकी सरला सहचरी का सहयोग उन्हें उनके उस एकान्त वंशीवादन में कोई व्याघात नहीं पड़ने देता। सीधासादा परिवार, न कोई सज्जा, न आडम्बर, एक ओर धरा नाना आकार की वंशियों का स्तूप और वहीं जमीन पर बिछी चाँदनी पर बैठ उनका वंशीवादन, मुझे मंच पर आसीन समय के अंकुश से बद्ध वंशी बजा रहे रघुनाथ के वेणुवादन से कहीं अधिक मधुर लगा था।

रघुनाथ की यही आत्मलोपी प्रवृत्ति उनका दुर्लभ गुण है। प्रसिद्ध विदेशी कलाविचारक जाक मारितै ने इसी प्रवृत्ति को पूर्वीय कला का विशेष गुण माना है। पूर्व का कोई भी सच्चा कलाकार अपने अहं को अपने कृतित्व में नहीं उभरने देता। उसका पहला कर्त्तव्य रहता है, अपने को भूल जाना।

ईश्वर करे रघुनाथ प्रशस्ति कामना से अछूते ऐसे ही तन्मय कलाकार बने रहें।

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