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जीवन कथाएँ >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 3746
आईएसबीएन :81-216-0667-5

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शिवानी की जिन्दगी पर आधारित संस्मरण...


सात


उन दिनों पहाड़ में नन्दा देवी के मेले में भी एक बड़ी ही अशोभनीय परम्परा थी, पता नहीं अब है या नहीं। वर्ष के किसी उल्लेखनीय स्कैंडल को लोकधुन में पिरो अबीर गुलाल-सा ही उछाल दिया जाता था-

यसि जै के छी
डाब जै
जत्काली जै हैगे तब जे

(तेरी देह तो सपसपी थी, डिब्बे जैसी भरी-भरी कहाँ थी। प्रसव के बाद ही तेरी देह ऐसी गदरा गई है क्या?)

एक ऐसी ही घटना ने, तब पूरे शहर को स्तब्ध कर दिया था। पति की नुक्कड़ पर छोटी-सी दुकान थी। पिछवाड़े दोमंजिला छोटा-सा घर, जिसमें अपनी दो विधवा बहनों एवं पत्नी के साथ वह रहता था। बहनें किसी प्राइमरी स्कूल की टीचर थीं। साफ, झकाझक सफेद, कलफ करी साड़ियाँ पहन स्कूल चली जातीं और दिन डूबे लौटतीं। इस बीच वह रुग्ण-सा दुकानदार दुकान पर ही बैठा-बैठा धंधा करता, गाहक वैसे ही बहुत कम आते थे। पत्नी चूँघट निकाल वहीं उसका खाना रख जाती। चूंघट की यवनिका उसके लिए अनिवार्य थी, क्योंकि ऐसा बीभत्स वाराहदंती चेहरा पहाड़ में अमूमन कम ही दिखता है।

चेहरा जैसा भी हो गृहकार्य में वह निपुण थी। दो-दो गाय, बछिया-बछड़ों का भरा-पूरा परिवार, उनको बाहर-भीतर करना, बदबूदार मोल (खाद) निकालना, उधर घास के बोझ से कमर भरी जवानी में ही झुक गई थी। ननदें स्कूल से लौटतीं, तो उन्हें चाय-चबैना बनाकर देती। पति भी एक दिन क्षय रोग की भेंट चढ़ गया, तो उसका जीवन दुर्वह हो उठा। जैसा भी था, एक सहारा तो था। एक वर्ष बाद सुना, ननदों ने गाय-बछिया सब बेच दी है और भाभी को अव ताले में बन्द कर स्कूल जाती हैं। एक दिन वह रहस्य भी स्वयं खुलकर सामने आ गया। दोनों ननदें स्कूल चली गईं तो वह एक क्षण को खिड़की खोलकर खड़ी हो गई। उतनी ही अवधि में देखनेवालों ने उसके उदर का अस्वाभाविक उभार देख लिया। पति की बरसी हुए ही डेढ़ वर्ष बीत चुके थे,...तब?

देखते-देखते अफवाहें रुई के फाहों-सी उस छोटे शहर के ओने-कोने में फैल गई। एक दिन आधी रात को जब उस अभागिनी की चीखें, पहाड़ों से टकरा-टकराकर गूंजने लगी, तो पड़ोसियों ने भागकर द्वार खटखटाए पर दरवाजा नहीं खुला। पहले एक नवजात शिशु का रुदन उभर आया और अचानक सब शान्त। अब तक जिसका मुँह बन्द कर दिया गया था, वह किवाड़ों के पीछे पूरे जोश में चीखने लगी, “हत्यारिनों ने मार डाला रे मेरे बच्चे को। अरी, निपूती राँडो! मारना था, तो मुझे मारतीं। मैं तो भीख माँग कर भी उसे पाल लेती।"

दूसरे दिन, लोगों ने देखा, दरवाजे पर ताला लटका है और भाग्यहीना भाभी को उसी दुरवस्था में साथ घसीट दोनों ननदें तीर्थ यात्रा पर चली गई हैं। वे दोनों लम्बी छुट्टी लेकर गई थीं। लौटीं तो और मोटी होकर, न चेहरों पर शिकन, न हया। तीसरी उनके साथ नहीं लौटी। बहुत दिनों बाद एक दिन भटकती-भटकती वह आई और अपने पति की दुकान के बाहर पसर गई। लोगों ने देखा कि उसका दिमाग एकदम ही फिर गया था। ननदों को देखते ही पत्थर लेकर उन्हें दूर तक दौड़ाती और ताली दे-देकर हँसती। दूसरी गर्मियों में जब हम पहाड़ आए तो सुना, उसने अपने ही घर में फाँसी लगा ली थी।

मानवीय क्षुद्रता की एक अन्य झलक हमारे ही घर में एक बार सबको स्तब्ध कर गई थी। तब मेरा जन्म नहीं हुआ था। परिवार में दो बहनें थीं, एक भाई। पिता राजकोट आए, तो गृह के पुराने नौकर सब साथ हो लिए। माँ की नौकरानी भोतुली लाख समझाने पर भी नहीं मानी, वह बाल-विधवा तो थी ही, स्वभाव की भी बड़ी उग्र थी, हवा से भी लड़ती थी, उस पर कामचोर भी थी, पर जब वह बहत गिडगिडाई, तो अम्माँ उसे साथ ले आई। कछ महीने तो उसका जी लगा रहा, फिर पहाड़ जाने की रट लगा दी। डाँट-डपटकर चुप हुई, तो तेज बुखार आ गया। चीख-चीखकर उसने घर की नींव हिला दी।

चौथे दिन उसे भयानक चेचक निकल आई। ओले से बड़े-बड़े फफोलों को खुजला-खुजलाकर फोड़ लेती और फिर कपड़े उतार बाहर भागने लगती। राजकोट की डॉक्टरनी रुक्मा बाई माँ की मित्र थीं, उन्हें बुलाया गया, तो वह माँ पर ही बरस पड़ी, "क्या कर रही हैं आप, आपके छोटे-छोटे बच्चे हैं और इसे बड़ी माता निकली है, स्माल पॉक्स। लगता है, इसे कभी टीके लगे ही नहीं, फौरन अस्पताल भेजिए।"

पर अस्पताल के नाम पर मोतुली फिर माँ को ही गालियाँ देने लगी. "परदेश में लाकर, मुझे अब अस्पताल पटक रही है। अरे, तेरे बच्चों को भी ऐसी माता निकलती, तो क्या उन्हें भी अस्पताल भेजती?" घर-भर से विरोध मोल लेकर अम्माँ ने दिन-रात उसकी सेवा की। हालत ऐसी थी कि कपड़ों को बदन पर धरना कठिन था। नंगी देह को केले के पत्तों पर राख बिछाकर माँ उसे अकेले ही सुलातीं।

इकहरी साँस देख मैं डर गई, तुलसी, गंगाजल मुँह में डाला, देह सड़ गई थी, बदबू के मारे उबकाई आती थी, पर छोड़ती कैसे? और फिर उस मादरजाद नंगी औरत को किसके भरोसे छोड़ती?" माँ ने बताया। उसी की सेवा का असर था कि मोतुली मरी नहीं। धीरे-धीरे बुखार उतरा। पूरा चेहरा, नाक आँख माता की चाँदमारी से बीभत्स हो गया था. पर प्राण नहीं गए। परे तीन महीने में उठने-बैठने लगी। फिर एक दिन उसने वही रट लगा दी, "मझे पहाड़ भेजो!" उसका भी प्रबन्ध किया गया। उसी के भतीजे को तार देकर बुलाया गया। बुआ का वह बीभत्स रूप देख वह भी सहम गया।

जाने लगी, तो मोतुली ने हमारी माँ के पैर अचानक पकड़ लिए, “मुझे माफ कर दो धुलैणी ज्यू (दुल्हन जी)।"

"क्यों, माफी क्यों माँग रही है, बीमारी क्या तूने बुलाई थी?" माँ ने कहा। "नहीं, मैंने घोर पाप किया है।"

माँ का माथा ठनका, कहीं कुछ और तो नहीं कर बैठी थी मनहूस। कौन-सा पाप किया है?

"जब मैं नंगी पड़ी थी, मैं किसी तरह उठकर बाहर चली गई और दीवाल पर लगे आईने में अपना चेहरा देख लिया। भगवन् ! कैसी बदशक्ल हो गई थी मैं! मैंने सोचा, मैं तो अब ऐसे ही रहूँगी, पर इनके बच्चे गोरे, चिकने-चुपड़े क्यों रहे? सो अपना जूठा पानी मैं आधी रात को तुम सबके घड़ों में डाल आई थी।"

माँ की सेवा का ऐसा नीच प्रतिशोध? पर माँ के मन में कलुष नहीं था, "जा माफ किया", उसने कहा। माँ ने तो माफ कर दिया, पर विधाता ने भाग्यहीन मोतुली को शायद माफ नहीं किया। सुनते हैं, गाँव वापस जाकर बरसों तक कुत्सित कदर्य चेहरे पर बाल फैलाए वह नंगी सड़कों पर घूमती रही। कहते हैं, वह लगातार बुदबुदाती रहती थी, “अजी, मैंने बामणों को अपना जूठा पानी पिलाया है, इसी से गोल्लदेव ने मेरी आँखें छीन ली हैं।"
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