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जीवन कथाएँ >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 3746
आईएसबीएन :81-216-0667-5

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शिवानी की जिन्दगी पर आधारित संस्मरण...


मुझे राजुला ने बताया कि जब वह अपने पेशे के उत्तुंग शिखर पर थी, तब ही उसे वह कुलीन और रंगीला प्रणयी जुट गया था, जो उसके कंठ की बाजीगरी पर मुग्ध हो, नित्य वहीं बना रहता। उच्च कुल के उस सजीले ब्राह्मण प्रेमी को पाकर राजुला ने स्वेच्छा से अपने कलुषित पेशे को लात मार दी। दुर्भाग्य से तब ही वह गर्भवती हो गई, "कैसी मूरख थी मैं लली, सोचती थी वह मुझसे ब्याह करेंगे, पर हम अभागिनियों के भाग्य में सात फेरे कहाँ? हमारे तो फेरे नित्य नये नौशे के साथ होते हैं। वह गांधी बाबा के भक्त थे, वहाँ चले गए। मैं एक ऐसी गुफा में रहने लगी, जहाँ सूरज की किरन भी नहीं फटकती थी। इस बच्चे को मैं पालूँगी। किसे पता लगेगा कि इसका बाप कौन है? पर हुआ, तो मैंने स्वयं ही हँसिया से नाल काटी, नहलाया-धुलाया तो देखा, वैसी ही नीली आँखें, ओंठ, नाक सब ऐनमैन बाप पर। बड़ा होगा तो सब पहचान लेंगे, किसका बेटा है। मैं कपड़े में लपेट आधी रात को नदी के किनारे पहुँची। दूर-दूर तक कोई नहीं था, फिर उसे इन्हीं पापी हाथों से नदी में बहा दिया लली।" वह फूट-फूटकर रोने लगी थी।


उसी सती प्रेमिका पर वर्षों बाद मैंने 'करिए छिमा' लिखी थी। कभी कहीं सुनी वह मर्मांतक चुटकी भी मैंने उस कथा में पिरो दी थी कि कैसे अपने नवजात शिशु को नदी में डुबो रही किसी कुँआरी माँ ने अंग्रेज कमिश्नर को उसकी मोबाइल कचहरी में अपनी अद्भुत दलील से चित कर दिया था। जब उससे कहा गया कि उसकी छोटी उम्र देख साहब को उस पर दया आ गई है। यदि वह उस कायर प्रेमी का नाम बता दे, तो उसे छोड़ दिया जाएगा, तो उस दुस्साहसी, प्रत्युत्पन्नमति किशोरी ने हँसकर कहा था, “आप इत्ते बड़े हाकिम हैं, गाँव-तहसीलों का दौरा करते हैं, प्यास लगने पर पहाड़ी झरनों का पानी भी पीते होंगे, आपको जुकाम हो जाए, तो क्या आप बता सकते हैं कि किस झरने के पानी पीने से आपको जुकाम हुआ है?"

संसार विचित्र है। इसकी इन्द्रधनुषी भीड़ में भटककर मुद्दो बार-बार यही लगता है कि राजुला जैसे जन, जो निर्धन हैं, अपढ़ हैं, वे कभी-कभी समृद्ध, शिक्षित लोगों से कहीं अधिक महान् और मानवीय सिद्ध होते हैं। अपने दृढ़ चेता आदर्श चरित्र की सच्चाई से हमें वह जो पाठ पढ़ा जाते हैं, वह दीर्घकाल तक हमें मानवता का मार्ग दिखाता रहता है। भले ही स्वयं वित्तहीन हों, किन्तु उनके अनुभवों की मंजूषा में खरे रत्न ही भरे रहते हैं। लेखक को ऐसे पात्रों को जहाँ और जब भी वे मिलें, सिर-माथे लेना चाहिए। दुर्भाग्य से आज हममें से अधिकांश साहित्यकारों को मनुष्य की चरित्रगत दुर्बलताओं एवं विसंगतियों का ही नकारात्मक वर्णन करने में ही अधिक आनन्द आता है। इस युग में ऐसे ही साहित्य को मान्यता भी मिलती है। साहित्यकारों में स्वनामधन्य आलोचकों में उसी की भूरि-भूरि प्रशंसा भी होती है, किन्तु मनुष्य के पशुवत् आचरण के सटीक वर्णन से हम भले ही क्षणिक वाहवाही लूट लें, चिरस्थायी कालजयी यश की कामना कदापि नहीं कर सकते। यदि हम ऐसे अविस्मरणीय चरित्रों को उजागर करने में असमर्थ हैं, या ऐसे लेखन को एकदम पुरानी बासी विद्या मानते हैं, तो हम अपना ही अहित करते हैं। साहित्यिक दलबन्दियों ने हमारे चित्त को यों भी बहुत छोटा बना दिया है। अपने मूल धर्म से हमारा यशलोलुप साहित्यकार निश्चित रूप से भटक गया है। मानव के प्रति मानव का क्या कर्तव्य है, यह पाठ एक सशक्त लेखक ही ग्रहण कर अपने पाठकों को भी लेखनी से पढ़ा सकता है।

एक बात और भी है इसे पुरुष लेखक माने या न माने, नारी की कलम ही नारी के चरित्रगत दौर्बल्य, उसकी महानता, सहिष्णुता, त्याग का सही मूल्यांकन कर सकती है। सम्मिलित परिवार की एक यही विशेषता रही है कि वह महाभारत की तरह अगाध अनुभव समेटे है। भरे-पूरे परिवार में रहकर एक नारी सास, जिठानी, भाई-भतीजों के माध्यम से जितना अनुभव बटोरती है, वह कोई शायद मन्त्री या प्रधानमन्त्री बनकर भी नहीं बटोर सकता। बड़े परिवार में रहकर ही वह सीखती है कि अपने एक ही विषबुझे व्यंगबाण से, शत्रु को अनायास धराशायी किया जाए। चोट भी लगे, पर पर्दा भी बना रहे।

कभी हमारी एक रिश्ते की ताई के विषय में माँ से सुना था कि पढ़ी-लिखी न होने पर भी उनकी सूझबूझ, दूरदर्शिता अद्भुत थी। उनकी आँखों से कभी कुछ छिपा नहीं रह सकता था, पर गजब का संयम! मेरी माँ की और उनकी अटूट मैत्री थी, “बिना उनसे पूछे माँ पानी का छूट भी नहीं घुटकती थीं", माँ कहतीं, "उनका भी मुझ पर उतना ही गहन विश्वास था। अचानक क्षय रोग ने उन्हें जकड़ा, तो नवजात पुत्र जीवन को मेरी गोद में डाल बोलीं, 'तेरी चन्दा से पन्द्रह दिन छोटा है, अब तू ही इसे अपना दूध पिलाकर पालना' ", माँ ने ऐसा ही किया और अन्त तक उन पर सगी माँ का स्नेह लुटाती रहीं।

जिन ताई पर पूरे कुनबे की मर्यादा निर्वहन का कार्य था, उन्होंने एक बार अपने ही परिवार की आश्रिता, दूर के सम्बन्ध की भतीजे बहू के संदिग्ध आचरण को पुलिस के सीखे कुत्ते की-सी घ्राण-शक्ति से सूंघ लिया। उस भोली कमसिन बाल-विधवा को शायद पता भी नहीं था कि प्रतिपल उसका सर्वनाश हो रहा है। दबे स्वरों में कानाफूसी भी होने लगी थी, किन्तु कहे कौन! क्योंकि भक्षक का वजन बहुत भारी था। यह काम ताई ने चुटकियों में कर दिखाया। रोज रात को काम निबटा घर की महिलाएँ पल-भर बैठ बतिया, स्वयं अपना मनोरंजन कर लिया करती थीं। उस दिन की महफिल का संचालन ताई ही कर रही थीं, बोली, “सुनो रही बहुओ, एक पहेली कहूँ?"

“हाँ-हाँ कहिए न, कौन-सी ऐसी अनोखी पहेली है आपकी, जिसे आज तक हमने चुटकियों में न सुलझा दिया हो?"

ताई कमर पर हाथ धरकर खड़ी हो गईं, “जेठाणोक ज्वे क्वै?" (जेठ की रक्षिता कौन?)

सबको जैसे एक साथ साँप सूंघ गया। पहेली तो सबने बूझ ली, पर उत्तर दे कौन? जिस पर ताई ने सधा निशाना लगाया था, उस बेचारी का चेहरा भय से विवर्ण हो गया। बड़े कौशल से दिए गए ताई के दंड ने अपराधिनी के सुप्त विवेक को चैतन्य कर दिया। दूसरे ही दिन वह मायके चली गई और फिर कभी नहीं लौटी, किन्तु कभी-कभी प्रतिष्ठित गृहों में भी अनहोनी घट ही जाती थी। इतना ही था कि उन गृहों की समृद्धि बड़े-से-बड़े पाप को भी बड़े कौशल से धरा में गहरा गाड़कर रख देती थी। घर्षिता, शोषिता, वैधव्य तक्षक की ढुसी, न जाने कितनी अभागिनें पीला विवर्ण चेहरा लिए किसी अनामा गुरु से तथाकथित दीक्षा ग्रहण करने हरिद्वार चली जातीं। साथ में जाता, रक्षक बना स्वयं भक्षक।

पिछले साल लक्षवर्तिका की थी बहू ने, वही तिल पात्र करने हरिद्वार गई है, किन्तु सास की यह कैफियत व्यर्थ ही जाती। जब बहू लौटती, तो उसका विवर्ण चेहरा, मुँडा सिर और कंकाल मात्र रह गई सपसपी देह, देखनेवालों को तिल पात्र का रहस्य स्वयं समझा देती।

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