जीवन कथाएँ >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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शिवानी की जिन्दगी पर आधारित संस्मरण...
यह भी विधाता की कैसी विचित्र लीला है कि आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व जो
सन्तान पिता की एक ही गर्जना से थरथर काँपती थी, आज उन्हीं माता-पिता को
सन्तान की गर्जना थरथर कँपा रही है। तब दरिद्रता के बावजूद प्रत्येक
तीज-त्यौहार को अदम्य उत्साह से मनाया जाता था। आज उन्हीं तीज-त्यौहारों की
आगमनी को क्रमशः अजगर का-सा मुँह फैलाती महँगाई ने भयावह बना दिया है। दीवाली
हो या होली, कैसा उत्साह रहता था और कैसे उल्लास! भले ही आटे के गुड़, सौंफ
डते गुलगुले ही क्यों न बनें, पकवानों की सुगन्ध तो घर में बिखरती ही थी।
जहाँ आडम्बर होता है, दिखावा होता है, वहीं फिर त्यौहारों का निर्वाह भी एक अनचाही विवशता बन उठता है। आज की दीवाली देखती हूँ तो कहने में भी संकोच होता है कि हमारा देश दरिद्र है। यदि पहले भारत 'सोने की चिड़िया था, तो अब तो वह शायद 'हीरे की चिड़िया' बन गया है। जितना ही बड़ा पद हो, जितनी ही ऊँची कुर्सी हो, उसी से मेल खाते उपहारों से गृहस्वामी का घर भर जाता है। काजू की बर्फी से उँसे-फंसे डिब्बे, उनकी भी ऐसी अपूर्व सज्जा कि लगता है कि डोली में बैठी, लाल चुनरी ओढ़े, मोटे किरण से सँवरी दुल्हन चली आ रही है। पाँचसितारा होटलों के भेजे गए केक, चाँदी के गिलास, मेवों से छलकते मिट्टी के हाथी, ऊँट, घोड़े और गणेश तो अब इस युग के सबसे अधिक लोकप्रिय देवता बन गए हैं। कोई भी दीवाली की डाली शायद ऐसी होगी, जिसमें लम्बोदर विराजमान न हों, कहीं मिट्टी के कहीं पीतल के और कहीं-कहीं तो चाँदी के, हाथ में डिब्बे, डिब्बे में लड्डु। कभी हम देवालय जाकर गणेशजी को मोदक खिलाते थे, आज वे स्वयं मोदक लेकर हमारे घर आ जाते हैं।
आज लोग त्यौहारों पर उपहार भेजनेवालों के हृदय की गरिमा को नहीं तौलते वे उपहारों की गरिमा तौलना सीख गए हैं। बाह्याडम्बर जितना ही बढ़ता जा रहा है, उतना ही हृदय सिमट, सिकुड़ छोटा होता जा रहा है।
कई घरों में तो विदेशी आसव के क्रेट के क्रेटों का भेजा जाना अनिवार्य हो उठा है। ऐसा स्वाभाविक भी है, क्योंकि आज ऐसी छूट हमारे लिए मरणासन्न रोगी को दी जानेवाली वसंत कुसुमाकर की महँगी यूंट-सी ही अनिवार्य हो उठी हो।
अब वह यग नहीं है कि खाँड के खिलौने, खील-बताशे देखकर ही बच्चों की बाँछे खिल उठे। खाँड के खिलौने भी ऐसे कि किसी घोड़े की टूटी टाँग या ताजमहल की टूटी मीनार ही हमारे हिस्से में आए, पर उसे चाटने में कैसी रस-तृप्ति! दूर-दूर तक पहाड़ की ढालू छतों पर जुगनू से चमकते प्रदीप, भूले-भटके किसी समृद्ध गृह से सर से निकल गई मेहताब, या फिर गलाबी डिब्बों में भरे मिट्टी के-से डले, जो दियासलाई दिखते ही तेजी से सरसराते भयानक साँप बन फन उठा लेते। आज के-से एटम-बम वाले पटाखे नहीं कि बाबर की तोपों-सा धुंआ उगल अपनी गगनभेदी गर्जना से, हमारे हृदय कँपा दें।
होली आती तो अल्मोड़ा के छोटे से बाजार की शोभा ही द्विगणित हो जाती। बाल सिंघौड़ी से भरे मिठाइयों के थालों के बीच कभी स्वयं जोगाशाह हलवाई तो कभी उनका पुत्र अमरनाथ दुकान पर बैठता। ऐसा साहित्य-प्रेमी हलवाई, फिर हमने आज तक नहीं देखा। उनकी अपनी लाइब्रेरी थी, जो केवल कुछ ही ग्राहकों के लिए खुली रहती। उन भाग्यशालियों में हम भी एक थे। वैसे उनसे हमारा और उनका हमसे बार्टर प्रणाली की पुस्तकों का आदान-प्रदान चलता था। उनकी दुकान के 'गोझे' (उन्हें गुझिया कहना, उनका अपमान करना ही होगा) तब पूरे शहर में प्रसिद्ध थे। मोयन डले, खालिस खोये, गिरी, सौंफ, दरदरी पिसी काली मिर्च, किशमिश और छोटी इलायची से ठसाठस भरे उन स्वादिष्ट गोझों को एक बार खाकर पानी पी लो, तो पेट डम्म! छोटे-मोटे खिलौने से सजी दामूशाह की दुकान, जहाँ से मैंने एक बार सात रुपये में गुड़ियों का एक सोफासेट खरीदा, तो पूरे मोहल्ले में शोर मच गया था कि सात रुपये का महँगा खिलौना खरीदकर लाई है।
अपने विराट पथरीले प्रांगण की दीवार पर, हम अपने पूरे खिलौने सजा देते। बीचोंबीच खड़ी रहती प्रिंसेस एलिजाबेथ की अनुकृति में ढली मेरी गुड़िया! गुलाबी फिलदार फ्रॉक पहने गले में मोतियों का हार, सफेद जूते-मोजे, सुनहरे बालों का गुच्छा, स्वर्णवर्णी पक्ष में जिन्हें लिटाए जाने पर वह बड़े मोहक ढंग से झपकाकर अपनी आँखें मूंद लेती। मेरे पिता मेरे लिए यह अनुपम सौगात विदेश से लाए थे। मैं उसे किसी को छूने भी नहीं देती थी, किन्तु दीवाली देखने सुदूर ग्रामों से आई भीड़ को प्रभावित करने, मेरा अहं जागृत हो उठता। 'लो-देखो, देखी है कभी ऐसी गुड़िया?'
भीड़ ठिठककर खड़ी हो जाती, "अरी, देख-देख, लिटाते ही आँखें बन्द कर लेती है। हे भगवान, तेरी कैसी माया! लली जरा खड़ी कर दिखाओ, हम भी देखें । कहाँ से खरीदी?"
“यहाँ की नहीं है, विलायत से मँगाई है।" मेरा अहंकार, मेरे उत्तर को कुछ रूखा भी बना देता।
तब ही तो कहूँ-“अंग्रेज ही बना सकता है ऐसी चीज।"
यह वही सरल भीड़ थी, जिनके लोक-कवि ने कभी जलेबी को देखकर अपनी वह पंक्तियाँ लिख डाली थीं-'धन्न रे अंग्रेजो, तेरी कावा, मैदे की नलि भीतर चीनि कसि हावा (अरे अंग्रेज, तेरी कला धन्य है, मैदे की नली में तूने चीनी कैसे पहुँचा दी?)
मेरे बड़े भाई के लिए भी एक विचित्र बीभत्स चेहरे का लोहे का हशी विदेश से मँगवाया गया था। घुघराले बाल, लाल-लाल आँखें, भोटे-मोटे होंठों पर डरावनी हँसी, लाल कोट पहने उस हब्शी की फैली हथेली पर पैसा धरो, बटन दबाओ तो वह चट से पैसा खाकर पेट में डाल लेता था। उसका यह अभूतपूर्व प्रदर्शन देख, हमारा एक नौकर उसे माँगकर जौलजीवी के मेले में ले गया और पेट भर पैसे उदरस्थ कर हमारे हब्शी ने उसकी खासी आमदनी करा दी थी।
वह स्वामिभक्त हब्शी अब भी शायद हमारे पैतृक निवास में याचक की उसी मुद्रा में खड़ा होगा।
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