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चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"बेटी ललिता, तू मौसी के पास बैठ, मैं अभी आया," कहकर वे उठे, कोट पहना और झोला लेकर बाहर निकल गए। मैं समझ गई कि बेचारे मेरे ही लिए जलपान की सामग्री जुटाने तीर-सा निकल गए हैं। ललिता चौके में चाय का पानी चढ़ाने गई तो मैं उठकर दीवारों पर लटकी तसवीरों में अपनी विस्मृत सखी के चेहरे को ढूँढ़ने लगी। एक ही कतार में ललिता की छह बहनों के पति सहित चित्र लगे थे, अपनी इन सुन्दरी दुहिताओं के अनुरूप वर जुटाने में जीजाजी को विशेष प्रयत्ल नहीं करना पड़ा होगा। मैं उन्हें देख ही रही थी कि ललिता आ गई।

“मौसी, अपनी फोटो देखोगी? माँ के साथ आपकी भी एक तसवीर लगी है बाबूजी के कमरे में।"

"मेरी कौन-सी तसवीर है री? मैंने तो कभी हीरा के साथ तसवीर नहीं खिंचवाई।"

"वाह, खिंचवाई कैसे नहीं, चलिए दिखा दूँ।” स्टूल पर चढ़कर एक धूल-गर्द से धूमिल तसवीर निकाल, आँचल से पोंछ-पोंछ, उसने मुझे थमा दी।

"ओह, मुझे तो इसकी याद नहीं थी, तेरे बाबूजी ने ही तो हम दोनों की यह तसवीर खींची थी।" अपनी इस विचित्र सज्जा को देख मुझे स्वयं हँसी आ गई। एक-सी मखमली बेल लगी जार्जेट की साड़ी के साथ हम दोनों ने एक ही से काले साटन के ब्लाउज सिलवाए थे, उन दिनों की प्रचलित चुन्नटदार बाँहें, कमर में इलैस्टिक की चुस्ती और गले में झालर। दाडिम के पेड़ के नीचे एक-दूसरे के कन्धे पर हाथ धरे हम दोनों खड़ी थीं। दाडिम के फूलों से लदी डालियाँ जीजाजी ने खूब झकझोर दी थीं और झर-झरकर, डमरू-से लाल-लाल पुष्प हमारे कन्धे, माथे, कान पर स्वयं लुभावने लोलक बन लटक गए थे।

“वाह, अब तुम दोनों वनदेवियाँ-सी ही लगोगी इस तसवीर में! अब मुस्कराओ तो जरा-एक, दो, तीन..." और प्रथम यौवन की वह चिन्ताहीन, उन्मुक्त निर्दोष हँसी अविकल आज भी उस धुंधली पीली पड़ गई तसवीर में ज्यों-की-ज्यों धरी थी।

“अच्छा, वही तसवीर दिखा रही है मौसी को।" हाथ के कागज के दो-तीन पूड़े ललिता को थमाकर वे बोले, "खूब बढ़िया चाय बनाना ललिता, तेरी मौसी को मसाले की चाय और वेदा होटल की दाल-मोठ बहुत पसन्द है।" उनके सुदर्शन चेहरे की झुर्रियाँ सहसा उद्भासित हो उठीं।

मेरा वेदनाक्रान्त अपराधी मन खिसिया गया। जिस स्नेही व्यक्ति को आज भी यह याद है कि मुझे वेदा होटल की दाल-मोठ और मसाले की चाय बहुत पसन्द है, अपने सुखी-समृद्ध जीवन के बीच क्या कभी एक क्षण भी मुझे इसकी याद आई? उनकी पुत्रियों के विवाह के मैंने औपचारिक उत्तर भी दिए, शगुन के मनीऑर्डर भी भेजे। हीरा की मृत्यु का राम-स्मरण अंकित कोने से चिरा पोस्टकार्ड भेजने में भी उन्होंने तत्परता बरती, पर उसके उत्तर में, क्या मात्र औपचारिक संवेदना देने ही का रिश्ता था मेरा?

"अच्छा हुआ, आज ललिता आपको यहाँ खींच लाई..."

“सुनिए जीजाजी, आप 'आप' कहकर और दंड न दीजिए मुझे। मैं स्वयं लज्जित हूँ। जानती हूँ मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है, इतने वर्षों में आपको एकदम ही भूल गई। पर आप 'आप' न कहें मुझे।" मेरा गला सँध गया।

"नहीं-नहीं, कैसी बात कर रही हो, तुम्हें दोष कैसे दूँ-हीरा के साथ ही मेरे सब रिश्ते खत्म हो गए। अब क्या अपने लिए जी रहा हूँ? भगवान् ने सबको पार लगा दिया, यही बची है। इसके लिए भी कई रिश्ते आ रहे हैं, पर क्या बताऊँ तुम्हें! अपनी बहनों जैसी यह नहीं है। वे बेचारियाँ तो जहाँ गाय-सी बाँधीं, वहीं बिना मीन-मेख निकाले बँध गईं। यह हर रिश्ता फेर देती है, कहती है, जब मेरा मन सन्तुष्ट होगा तब ही विवाह करूँगी, अब तुमसे क्या छुपाऊँ?" वे मेरे पास खिसक आए। “एक बड़ा पहुँचा गढ़वाली पंडित मेरा मित्र है, ऐसा दिग्गज तान्त्रिक कि जो अनुष्ठान हाथ में ले, वही सफल। उसी से मैंने इस नवरात्रि में पुरश्चरण करवाया है। कहता है, स्वयं लड़की आकर तुमसे कहेगी-बाबू, मेरी शादी कर दो..."

"क्या, मेरी बुराई कर रहे हो बाबूजी?" ललिता हाथ में चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर हँसती हमारे बीच खड़ी हो गई। उसके उत्फुल्ल कमनीय चेहरे की स्निग्ध हँसी देख मैं मुग्ध हो गई। चौके में जाकर, वह अपना मनहूस शॉल, जूते-मोजे, मफलर शायद उतारकर रख आई थी। लड़की यदि स्वयंवरा बनी भी थी तो उसने कोई अन्याय नहीं किया था। अपने रूप यौवन के अनुरूप जीवन सहचर न मिलने पर, उसे यदि जीवन-भर भी अम्लान पुष्पहार लिए राजपुत्रों की प्रतीक्षा में भटकना पड़े तो कोई दोष नहीं था।

उस दिन उसके दरिद्र परिवेश में भी जितनी ही बार मैं उसे देख रही थी, तेजोमय अष्टभुजा का-सा वह तेज मुझे उतनी ही बार निर्वाक् कर दे रहा था।

“यो माँ जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहती
यो मे प्रतिबलो लोके, स मे भर्ता भविष्यति"

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