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चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है

दो


"तू तो इत्ती-सी लगती है, हेडमास्टरनी बनकर, अपने स्कूल की मास्टरनियों को सँभाल भी पाती है या नहीं!" मैंने हँसकर पूछा। उसने तो सिर झुका लिया, पर जीजाजी कहने लगे, "अजी, पूछो मत, सुना थर-थर काँपती हैं इससे सब! मजाल है जो इसके स्कूल की लड़कियाँ कोई ऐसा-वैसा कपड़ा पहन तो लें। सलवार के पाँयचों की चौड़ाई तक इंचटेप से नापती है यह!"

प्रत्येक कमरे की सुघड़ स्वच्छ छटा में, निश्चय ही उसके हस्ताक्षर थे। न कोई अव्यवस्था, न कहीं एक कण धूल का। कोने में कतार पर धरे बक्सों को, एक ऊँचाई में साध उनका जंग लगा कलेवर अदृश्य कर, उसने दर्शनीय दीवान का रूप दे दिया था। रसोई में गई तो देखा, चमकते बर्तनों को यथास्थान सजाया गया था। साफ-सुथरी मसालों से भरी शीशियाँ एक कतार में, एक ऊँचाई में कवायद में तने फौजियों-सी खड़ी थीं। वह फिर मुझे अपने कमरे में ले गई। इस आडम्बरहीन ग्राम से, शायद उसने कभी कदम भी बाहर नहीं रखा होगा, फिर भी अत्याधुनिक लटके इसने, क्या पत्र-पत्रिकाओं से ही देखकर अपने कमरे की सज्जा में उतारकर रख लिए? एक कोने में एक तख्त पर ही उसका बिस्तर लगा था। दीवाल पर हुसेन की 'झूला' की अविकल अनुकृति देखी तो मैं चौंक उठी।

"यह हुसेन के 'झूला' का रिप्रिंट है ना?"

"रिप्रिंट नहीं है मौसी, मैंने देख-देखकर बनाया है।"

“कहाँ सीखा तूने यह सब?" मैंने आश्चर्य से पूछा।

"सीखा कहीं नहीं, मुझे अच्छा लगता है, एक बार बाबूजी से कहा भी था-मुझे शान्तिनिकेतन भेज दीजिए-मौसी ने भी तो पढ़ा है वहाँ, पर माने कहाँ! और भी कई बनाई हैं मैंने, देखोगी मौसी?" वह अलमारी से पूरा बंडल निकाल लाई। उसकी रुचि एवं प्रतिभा देखकर मैं दंग रह गई।

अभी, एक ऐसे ही कला-प्रवंचक के विषय में पढ़ा था, जो अपनी जादूगरी अँगुलियों से तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की, कलात्मक कृतियों की हूबहू नकलों से, देश-विदेश के प्रख्यात कलामर्मज्ञों को झाँसा दे, सैकड़ों चित्रों को, तेरहवीं शताब्दी के मौलिक चित्र बता, बेचकर लाखों रुपया कमा चुका है। मैंने एक बार फिर उसके निर्दोष निरीह चेहरे को देखा-सच कहती हूँ, उद्धत यौवन की एक ऐसी निर्मम हत्या मैंने इतिपूर्व कभी नहीं देखी। अनाकर्षक ढंग से लपेटी गई साड़ी, जिसके आँचल में वह प्रत्येक कार्य को निबटा, हाथ पोंछ झाड़न का काम ले रही थी, पूरी बाँह का ठेठ पहाड़ी सलूका, जिसकी अनाड़ी सिलाई में किसी देहाती ढोली दरजी के बेतुके हस्ताक्षर स्पष्ट दिख रहे थे, मनहूस भूरे रंग की मर्दानी जैकेट, जिसे शायद उसने अपने पिता के पुराने कपड़ों से निकालकर पहन लिया था। लम्बे घने केशों को कंघी का चाबुक मार-मारकर उन्हें बरबस सीधा कर, एक अनाकर्षक टेढ़े जूड़े में बन्दी बनाया गया था, फिर भी कुछ अबाध्य लटें, ललाट पर आई थीं। हाथ के बिने मोजों में, विभिन्न स्वेटरों की बची-खुची बेमेल बहुरंगी ऊनों का कार्डराय, किसी संतुलित सज्जा का संकेत भी नहीं दे रहा था। अब तक, लगभग वैसा ही एक सतरंगी मफलर, वह बड़ी उदासीनता से लपेटे थी, फिर भी शिव के कंठ में लिपटे भयानक सर्प-सा ही वह उसकी पतली सुडौल ग्रीवा को मंडित ही कर रहा था-जूते उतारकर उसने कोने में धर दिए थे।

“क्या, इन बूटों को किसी फौजी से आधे दामों में खरीद लाई है री, ललिता?" मैंने पूछा तो वह हँसने लगी, "देख तो रही हो मौसी, हमारे घर तक कैसी भयानक चढ़ाई है! कैसी ही मजबूत चप्पलें क्यों न हों, दो दिन भी नहीं चलती, इसी से पिछली बार प्रैक्टिकल इम्तिहान लेने टनकपुर गई तो वहाँ से खरीद लाई, पैर भी बच जाते हैं और मोजे भी।"

“यह तो देखकर ही लग रहा है कि टनकपुर से खरीदे हैं,” मैंने हँसकर कहा, “पर तेरे ये मोजे तो न बचते तो अच्छा था।"

"क्या कहूँ, समझा-समझाकर हार गया हूँ इसे।” जीजाजी का करुण स्वर सुन मैं चौंकी। न जाने कब वे दबे पाँवों आकर, हमारे पीछे खड़े हो गए थे।

"न जाने कैसे-कैसे कपड़े पहन लेती है। इसकी माँ को पहनने-ओढ़ने का कैसा शौक था, तुम्हें पता ही है। मजाल है जो दिन-भर एक ही साड़ी पहनने पर भी, आँचल में एक शिकन तो पड़ जाए। और एक यह है, न पहनने-ओढ़ने का कोई शौक, न खाने-पीने का। मैं न होता तो शायद यह डबलरोटी खाकर ही दिन काट लेती। कई बार कह चुका हूँ-बेटी उम्र से पहले ही क्यों बुढ़ा रही है? कुछ ढंग के कपड़े ही बना ले। पर न यह सुनती है, न भगवान। हर साल इसकी बहनें आती हैं तो कह जाती हैं-बाबूजी, पाँच-सात कटू सूखने जरूर डाल देना छत पर; क्या पता इसी साल ललिता की शादी कहीं पक्की हो जाए!..."

“अच्छा, तो तब ही पीले कदू सूख रहे हैं छत पर!” मैंने हँसकर म्लानमुखी ललिता को हँसाने की चेष्टा की, पर शायद पिता की बेसुरी शहनाई अच्छी नहीं लग रही थी, वह 'बूंदे पड़ने लगी हैं, कपड़े उठा लाऊँ' कह बाहर चली गई।

"तुम तो बहुत लोगों को जानती हो, कभी कोई अच्छा घर-वर देखो तो इसका ख्याल रखना", जीजाजी ने धीरे से कहा।

किन्तु, मुझे उसके लिए फिर घर-वर नहीं देखना पड़ा जीजाजी के गढ़वाली तान्त्रिक का पुरश्चरण व्यर्थ नहीं गया, अच्छे घर-वर ने उसे स्वयं ही ढूँढ़ लिया। दूसरे ही महीने जीजाजी की चिट्ठी आई-'ईश्वर ने मेरी सुन ली, जैसा राजपुत्र-सा वर ललिता चाहती थी, वैसा ही उसे मिल गया-वर पक्ष का आग्रह था कि विवाह चार ही दिन में निबटा लिया जाए, क्योंकि लड़का पिछले चौदह वर्षों से विदेश में है। महीने भर की छुट्टी में स्वदेश आया, छुट्टियाँ लगभग खत्म हो चुकी थीं, तब ही उसने ललिता को मेरी बहन के यहाँ देखा और पसन्द कर लिया। तम्हें क्या. किसी को भी सचित नहीं कर सका। विवाह के दूसरे ही दिन लड़का विदेश चला गा। ललिता यहीं है। तुम तो जानती ही होगी, अब सुना है, विदेश जाने में बीसियों अड़गे लगने लगे हैं। जब इसे वीसा मिलेगा, तब ही जाएगी। सोचा, तुमसे क्षमा माँग लूँ, तुम्हें निमंत्रण भी नहीं भेज सका। पर ललिता बहुत प्रसन्न है, यही सुनकर शायद तुम मेरा यह अपराध क्षमा कर दो।'

मैं बार-बार यही सोच रही थी कि जिस विवर्ण-जीर्ण पोटली में वह अपना यौवन बन्द रखती थी, उसके प्रवासी नौशे ने उस पोटली के भीतर छिपे, उस अद्वितीय रत्न को देख कैसे लिया? बीस कदम के फासले से भी जिसे मेरी अनुभवी दृष्टि ने प्रौढ़ा ही समझा था, उसे उसने पहली बार देखा कैसे होगा? हो सकता है, किसी आरक्षित क्षण में, उसने अपने शॉल, गुलूबनन्द, जूते-मोजों का जिरह-बख्तर उतारा होगा और वही क्षण, उसके सौभाग्य के अवरुद्ध कपाट को खोल गया होगा। इसके बाद महीनों तक मुझे उसका कोई समाचार नहीं मिला। फिर एक दिन अचानक दिल्ली के कॉटेज एम्पोरियम में अनेक भारी बादामी लिफाफों से लदी-फदी वह मुझे दिख गई।

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