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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"अरे, मौसी आप?" उसने कहा तो मैं उसकी आपादमस्तक परिवर्तित भुवनमोहिनी छवि को देखती ही रह गई ! पारदर्शी अग्निवर्णी लाल कोट की साड़ी में, ज्वलंत शिखा-सी दमकती वह मेरे सम्मुख खड़ी थी।

“ऐसे क्या देख रही हो मौसी, बहुत बदल गई हूँ क्या?"

मैं कैसे कहती कि, जिस यौवन की असमय ही अस्तगामी सूर्य की-सी म्लान आभा, उस दिन पहली बार अलमोड़ा के बाजार में देखी थी, उसकी द्विप्रहरी प्रखर किरणें आज मेरी आँखें चौंधिया रही थीं।

"आइए मौसी, चलिए वहाँ बैठकर एक प्याला चाय पिएँ," मुझे एक प्रकार से हाथ पकड़कर वह संलग्न रेस्तराँ में खींच ले गई। उसके शरीर से आती मदिर मादक सुगन्ध, कलाई की स्वर्ण मंडित घड़ी, आँखों की सज्जा, मोहक अधरों की प्रगाढ़ लालिमा, चौकोर बटुआ, मेज पर धरे डार्क ग्लासेज, और पेंसिल-सा कृशकाय छाता, सब ही में तो विदेशयात्रा की स्पष्ट छाप थी। लग रहा था, लड़की अभी-अभी विदेशी ससुराल से लौटी है। हठात् मुझे एक वर्ष पूर्व की उसकी एकदम विपरीत अनाकर्षक सज्जा का स्मरण हो आया, जब चक्की के पाट-से मदाने जूतों से ठकाठक, झपताल का-सा ठेका बजाती, हाथ में पैबन्द लगा मर्दाना छाता था, वह ऐसे ही पैकेटों से लदी-फदी मेरे सम्मुख तनकर पूछने लगी थी- “ऐसे क्यों देख रही हैं? मुझे तो स्मरण नहीं पड़ता आपको पहले कहीं देखा है!"

आज, जी में आ रहा था, मैं उससे कहूँ-“ऐसे क्यों देख रही हो? मुझे तो स्मरण नहीं पड़ता, तुम्हें पहले कहीं देखा है!"

"क्यों, हनीमून के लिए विदेश गई थी क्या?” मैंने हँसकर पूछा।

एकाएक उसका उत्फुल्ल चेहरा म्लान हो गया, "नहीं मौसी, अब जाऊँगी, उनकी चिट्ठी आई है, वहाँ अपने किसी मित्र से मेरे वहाँ आने का स्पांसर कराएँगे, अभी कुछ समय लगेगा। आप जो जानती ही होंगी-विदेश जाना अब उतना सहज नहीं रहा।"

"एक बात बता ललिता, तू तो कहती थी, विवाह करेगी ही नहीं, फिर?" मैंने पूछा।

उसके आरक्त चेहरे ने, सहसा उसकी विदेशी लिपा-पूती को, अपनी स्वाभाविक लालिमा से व्यर्थ कर दिया, "उन्होंने मुझे बुआजी के यहाँ देखा, और वहीं पसन्द कर लिया। यही नहीं, मुझसे एकान्त में वहीं प्रस्ताव रख, वहीं उत्तर माँगा। पहले मैं घबड़ा गई, मेरे लिए आज तक जितने रिश्ते आए थे, सब बाबूजी ही के पास आए थे। मैंने तब तक एकान्त में, किसी पुरुष से बात तक नहीं की थी। कहने लगे-यदि जीवन-सहचर पसन्द हो तो हाँ या ना कहने में समय नहीं लगना चाहिए। जैसे, मैंने तुम्हें देखते ही दृढ़ निश्चय कर लिया था कि ईश्वर ने इसे मेरे ही लिए गढ़ा है, ऐसे ही मुझे एक ही दृष्टि में देखा, मेरे गुण-दोष परख, तुम भी अपना निर्णय इसी क्षण ले लो...और मैंने ले लिया।"

"जीवन का ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय, वह भी तुम जैसी आपखुद लड़की ने कैसे ले लिया? क्या तुमने यह निर्णय, पात्र को देखकर लिया या उसकी 'समृद्धि को देखकर?" अपनी बड़ी-बड़ी भूरी निष्कपट आँखों से, उसने बड़ी निर्भीकता से मेरी ओर देखा-और, किसी भोली बालिका के-से निर्दोष स्मित से उसका पूरा चेहरा उद्भासित हो उठा-"मैं सच कहती हूँ मौसी, मेरी जगह यदि आप होतीं तो आप भी शायद यही निश्चय लेतीं। न जाने उसके किस पक्ष के सम्मोहन ने मुझे उस दिन अवश कर दिया, जैसा विद्वान्, वैसा ही विनम्र, जितना ही गम्भीर, उतना ही विनोदी। जितनी ही बार उन्हें देखती, स्वयं अपनी हीनता मुझे कुंठित कर देती। मुझमें था ही क्या जो उन्होंने मुझे पसन्द कर लिया।"

"पगली", मैंने उसके हाथ को थपथपाया, "तू स्वयं अपने इस दिव्य व्यक्तित्व के प्रति अचेतन है, और यही तेरा सबसे बड़ा आकर्षण है। चल, जीजाजी तो खुश हैं ना?"

"बेहद। बाबूजी से मैंने जब कहा कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है, आप वाक्यदान कर दें तो बौरा-से गए। हमारी हालत तो तुमसे छिपी नहीं है। बाबूजी ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वे केवल कुश और कन्या ही देने की स्थिति में हैं। उनकी एक ही शर्त थी कि उनके बारातियों की खातिर में कोई कसर न हो, उसका प्रबन्ध बाबूजी ने कर दिया था। हलद्वानी में, बुआजी के यहाँ से ही सब कुछ हुआ, इने-गिने दस बाराती और एक पुरोहित लेकर वे लोग आए। बाबूजी कह रहे थे-दो दिन पहले अपने दाँत तुड़ाने में जितना समय लगा था, उससे भी कम समय में, तेरे कन्यादान से मुक्त हो गया मैं..."

“लगता है, विदेश से तेरा दूल्हा खूब उपहार भेजता है। क्यों?” मैंने पूछा।

उसने लजाकर सिर झुका लिया, “उनकी एक ममेरी बहन वहीं रहती हैं। पाँच वर्षों बाद अभी-अभी लौटी हैं, उन्हीं के हाथ बहुत कुछ भेजा था।"

"वह तो देख ही रही हूँ,” मैंने हँसकर कहा।

“अब तो भगवान ने तुझे मेम साहब बना ही दिया है, कब तक हेडमास्टरनी बनी रहेगी-छोड़ इस बेहूदी नौकरी को।"

"मैंने भी यही सोचा था, पर बाबूजी कहते हैं जब तक जाने का कुछ निश्चित नहीं होता, नौकरी मत छोड़। परसी थाली और लगी-लगाई नौकरी में कभी ठोकर नहीं मारनी चाहिए-जब चाहो, लम्बी छुट्टी तो ले ही सकती हो। सब छुट्टियाँ तो पड़ी हैं। मैंने छुट्टी ली ही कब है!-"

ठीक ही तो कह रही थी बेचारी, उसके नीरस जीवन में, अवकाश के मधुर क्षण आए ही कब थे? मैं चुपचाप उसे देखती रही। एक नवीन अभिज्ञता मुझे बार-बार झकझोरने लगी, मानस की पंक्तियों का ब्रह्मसत्य एक बार फिर उस अभिज्ञता को पुष्ट कर गया।

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