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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


“जल बिनु मीन नदी बिनु वारी।
ऐसेहु नाथ पुरुष बिन नारी॥"

इसमें कोई सन्देह नहीं कि पुरुष के विना नारी अधूरी ही रहती है। उसके व्यक्तित्व का, उसके सौन्दर्य का, उसके नारी सुलभ सौष्ठव का पूर्ण विकास पुरुष के स्पर्श से वैसी ही सहजता से प्रस्फुटित हो उठता है जैसे वर्षा की फुहार से, अधखिला पुष्प! ललिता के क्षण-क्षण आरक्त हो रहे कपोल, गदराई देहयष्टि, सचकित विस्फारित मृगी-सी दृष्टि, बार-बार आँचल से ढका जा रहा उभार देख जी में आया, उससे एक प्रश्न पूछ, अपने सुखद सन्देह की पुष्टि कर लूँ-"क्यों री ललिता, कुछ गड़बड़ है क्या? बार-बार झोले में धरा नींबू क्यों चाट रही है?"

पर फिर कुछ पूछा नहीं। वह चली गई तो मैं उसे तब तक देखती रही, जब तक वह दृष्टि से ओझल नहीं हो गई। मैंने देखा, मत्तगयंद छन्द-सा उसके मनोहारी पदविन्यास को। एक मैं ही नहीं, मेरे सामने बैठी युवा छात्रों की टोली भी उसी मुग्ध दृष्टि से देख रही थी।

इसके बाद, कई महीनों तक न मुझे उसका कोई पत्र मिला, न मैं ही उसकी खोज-खबर ले पाई। अचानक एक दिन उसकी बुआ से, एक विवाह में भेंट हो गई। उन्हीं से सुना, जीजाजी नहीं रहे। विवाह की उस परिचित गरज-तरज में, मुझे बार-बार उस प्रिय स्नेही चेहरे की स्मृति विह्वल कर उठी।

"अरे, क्या हुआ उन्हें?" मैंने पूछा।

“बीमार तो थे ही, रात को सोए तो सोए ही रहे।"

वह निश्चित रूप से विदेश चली जाएगी।

“और कहाँ जाएगी अभागी! उसी का धक्का तो उन्हें ले गया।" उन्होंने रुष्ट स्वर में कहा।

"क्यों, क्या हुआ उसे?” मैंने घबराकर पूछा।

“होगा क्या, कितना समझाया था दद्दा को, ऐसे अनजान पात्र को बिना देखे-परखे शादी मत करो। करना ही है तो मेरा भतीजा दिनुआ क्या बुरा है? असल में मैंने छोकरी को उसी को दिखाने बुलाया था। एल.आई.सी. में क्लर्क है, भले ही इंटर पास हो, वहाँ का तो चपरासी भी पाँच सौ पाता है; पर बीच ही में न जाने कहाँ से यह करमजला आ टपका? कितना समझाया दोनों को, पर वहाँ तो बाप-बेटी को 'फौरीन' दामाद के सपने दिखने लगे थे। तूने तो देखा है दिनुआ को, कैसा कार्तिकेय-सा दिखता है!"

हाँ, मैंने दिनुआ को देखा था। बालों का सस्ता जमादारी फुग्गा बनाए, टिटहरी की-सी टाँगोंवाले उस जनखे-से छोकरे को भला सुचि-सम्पन्ना ललिता कभी पसन्द कर सकती थी?

"फिर क्या हुआ?” मैंने पूछा।

"होता क्या? वही हुआ जो हमने कहा था।"

इतने में ही 'बारात आ गई, बारात आ गई' का शोर हुआ और ललिता की बुआ, मुझे अधूरी जिज्ञासा ही में डूबती-उतराती छोड़, बारात की भीड़ में विलीन हो गईं। उन्होंने क्या कहा था और क्या हुआ, इसके जानने का कोई उपाय नहीं रहा। बारात की रेलमपेल में वे कहाँ खो गईं, मैं जान ही नहीं पाई। जिज्ञासा का अन्त हुआ, दो महीने बाद। इस बार फिर मैं एक विवाह में सम्मिलित होने अलमोड़ा गई तो थोड़ी-बहुत अभिज्ञता बटोर पाई-जब, एक वर्ष तक प्रवासी जामाता ने, उनकी पुत्री को विदेश बुलाने का सामान्य-सा प्रयास भी नहीं किया तो उन्होंने एक प्रकार से धकेलकर ही पुत्री को वहाँ भेज दिया। इस द्विरागमन की सामग्री जुटाने में बेचारे लुट गए थे। वहाँ से ही टिकट भेजने का आश्वासन जामाता ने दिया था। पर वहाँ टिकट तो दूर, जब चिट्ठी आनी भी बन्द हो गई तो उनका माथा ठनका। कुछ रुपए फंड से लिए, खेत गिरवी धरे, अलमोड़ा जाकर अपने कुछ दुर्लभ ग्रन्थ बेच आए, कुछ इष्ट-मित्रों से कर्जा लिया और स्वयं दिल्ली जाकर, पुत्री को पतिगृह के लिए विदा कर आए। इस द्विरागमन के लिए, उन्हें अपना सर्वस्व दाँव पर लगाना पड़ा।

वहाँ जाकर, प्रवासी पति की भरी-पूरी गृहस्थी देखकर बेचारी ललिता गिरती-पड़ती उलटे पाँव क्यों लौट आई? और क्यों एक बार फिर, अरण्यस्थित उसी ग्राम के स्कूल की हेडमास्टरनी बन गई? यह रहस्य सबके लिए गूढ़ रहस्य ही बना रह गया था। बाप-बेटी दोनों ने अमानवीय दुस्साहस से होंठ भींच लिए थे।

यह सब सुनकर जी न जाने कैसा हो आया। उस भोली पितृ-मातृहीना लड़की पर क्या बीत रही होगी, यह सोच-सोच मैं व्याकुल हो उठी। मेरे पास कुछ एक ही दिन का समय था। दूसरे ही दिन काठगोदाम से मेरा रिजर्वेशन हो चुका था। एक ही दिन में उससे मिलकर क्या लौट पाऊँगी? दिन-भर इसी उधेड़-बुन में पड़ी रही। उसी रात को यदि मैं हीरा को सपने में न देखती तो शायद ललिता से मिलने न जा पाती। आँखें लगी ही थीं कि उदास हीरा पायताने आकर बैठ गई। न कुछ बोली, न हँसी, न हिली, न डूली। वही जयपुरी साड़ी पहने थी, जो कभी मैंने उसे अलीगढ़ की नुमाइश से खरीद कर दी थी। दोनों कपोलों पर क्षयरोग की लालिमा उसके रोगजीर्ण पांडवर्णी चेहरे पर वैसी ही अस्वाभाविक लग रही थी जैसी हमेशा लगा करती थी। कंकाल-सी सूखी देह पर, लाल पहाड़ी आड़-से दमकते रक्तिम कपोल।

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