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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"सुबह उठती हूँ तो लगता है सारे शरीर का खून, पसीना बनकर बह गया है, जैसे कोई धुली साड़ी-सा निचोड़ देता है मुझे।" वह कहती और मैं हँसकर कहती, "चल हट, गाल तो मेरे लाल-लाल सेब-से धरे हैं।" किन्तु आज, मैं भी जब उस राजरोग की घातक क्षमता को झेल उसी पसीने से कभी-कभी निर्जीव हो उठती हूँ तो पीले विवश चेहरे की स्मृति पश्चात्ताप से चित्त विगलित कर देती है।

सपने में भी उसकी करुणा-विवश दृष्टि मुझे क्षुब्ध कर उठी। हठात् लपककर उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए-उन छलछलाई आँखों के मूक अनुरोध को मैं टाल नहीं सकी। दूसरे ही दिन में बाजार गई, मिठाई का डिब्बा लिया, बैग में उसके लिए एक साड़ी, पहले ही लाकर रख ली थी, कुछ दिन पूर्व किसी स्नेही पाठक ने मुझे एक पार्कर पेंसिल-पेन का सेट, कुवैत से भेजा था, वह भी उसके लिए रख लिया और मैं बस में बैठ गई।

मैं जानती थी कि वह मुझे घर पर ही मिलेगी। इतवार को वह पूरी छुट्टी मनाती थी। उस दिन वह अपनी नौकरानी को भी छुट्टी दे देती है और एकदम अकेली रहती है, यह मुझे पता था। उसी एकांत की मुझे कामना थी। बस अड्डे तक उसके घर तक की तीखी चढ़ाई पार करने में मैं हाँफ-हॉफ गई थी। पहाड़ की दुरूह चढ़ाई अकेले ही पार करना, जीवन की दुरूह यात्रा की एकाकी पार करने की ही भाँति कुछ कम दुरूह नहीं होती। आज उसकी ढालू पथरीली छत पर पीले भीमकदू नहीं, वह स्वयं सूख रही थी। अपनी सुचिक्कन काली घनघटा-सी खुली केशराशि को वह छत पर बैठकर सुखा रही थीं। एक ओर परीक्षा की बादामी कॉपियों का स्तूप था, जिनमें से एक खुली कॉपी वह जाँच रही थी।

तीन

"अरी, ओ हेडमास्टरनी!” मैंने हँसकर कहा, “अब बहुत कॉपियाँ जाँच ली। चल, नीचे उतर।"

उसने अचकचाकर मुझे देखा और फिर उसने जो किया, उसके लिए मैं प्रस्तुत नहीं थी। मैंने काँपकर आँखें बन्द कर ली। "हाय मौसी तुम!" कह वह अपनी साड़ी को घुटनों तक उठा, तीखी छत से नीचे कूद पड़ी। उसके खुले बाल एक क्षण को हवा में लहरा उठे। घुटनों तक उठी सफेद साड़ी से दिखती उसकी रोमहीन, पहाड़ी ‘फुलौ'-सी चिकनी टाँगें, एक सीध में सधीं और वह ऐसी दक्षता से धरा पर अवतरित हो गई, जैसे आकाश से अवतरित कोई अशरीरी अप्सरा हो!

"ऐसे कूद गई कमबख्त, अगर हाथ-पैर टूट जाते तब?” मैंने कहा।

"तब क्या! टाँग टूट भी जाती तो कौन मुझे शादी की चिन्ता है अब मौसी, शादी तो हो ही गई।" वह बड़ी दुष्टता से मुस्कराई, “पर आप यह बताइए, अचानक यहाँ आ कैसे गईं?"

"बस तुझसे मिलने। सुना तू देश-विदेश का चक्कर लगाकर फिर हेडमास्टरनी बन गई है।"

अचानक उसने मुँह लटका लिया, "चलिए, पहले चाय पी लीजिए, लाइए बैग मुझे दीजिए, पर आपने मुझे क्यों नहीं लिखा, आप आ रही हैं? मैं घोड़ा लेकर बसस्टैंड पहुँच जाती। इतना भारी बैग आपको लादना पड़ा।" उसने मेरे हाथ से बैग ले लिया।

"इसीलिए तो नहीं लिखा।" मैंने उसे गुदगुदाने की चेष्टा की, “तुझे घुड़सवारी करते तो देख चुकी हूँ। उस लद्, भोटिया घोड़े पर बैठना, तुझे ही मुबारक हो। एक कदम आगे चलता है और दो कदम पीछे। उस पर घनी अयाल से उसकी आँखें ऐसी अंधी बनी रहती हैं कि पता नहीं कब सवारी सहित काली गंगा में उत्तर जाए! ऊँचाई ऐसी है तेरे अरबी घोड़े की कि पीठ पर बैठो तो पैर जमीन पर टिक जाते हैं, यानी चार टाँगें घोड़े की, दो अपनी, साथ-साथ चलती हैं।"

वह ठठाकर हँसी और हाथ पकड़कर, मुझे भीतर खींच ले गई। पहली अनुभूति, जो मुझे कमरे में पैर रखते ही हुई, वह थी एक पीड़ादायक निस्संग निर्जनता की। लगता था, सुई भी टपकी लो नगाड़े का-सा निनाद करेगी।

"लो, तुम बैठो मौसी, मैं अभी चाय बनाकर लाती हूँ।"

मैंने देखा, जीजाजी का पलंग अभी भी उसी परिपाटी से लगा था। दीवार पर वे ही तसवीरें लगी थीं, जिन्हें मैं पिछली बार देख गई थी।

कमरे में कहीं भी, हेडमास्टरनी के क्षणिक विलासपूर्ण वैवाहिक जीवन का स्पर्श भी नहीं था, न उसकी विदेशयात्रा का कोई स्मृति-चिह्न, न कहीं उसके विवाह का कोई चित्र। एक ओर एक विकलांग तिपाई पर उसकी घर की धुली तीन-चार साड़ियाँ, पहाड़ी नदी के एक भारी-भरकम 'गल्डोण' शिला के नीचे दबी स्वयं अपनी शिकनें दूर कर रही थीं। शायद यही उसकी अचल इस्त्री थी। पास ही में धरा था उसका स्कूली रजिस्टर, पहाड़ी ऊन का भूरा कॉर्डिगन, दूर से देखकर मैंने पहले सोचा, कोई तिब्बती पशमी अप्सु कुत्ता ही हाथ-पैर समेटे सो रहा है। हाथ के बिने नीली-पीली धारीवाले उसके मोजे और वही सतरंगी मफलर कुर्सी पर धरा था, जिसका उसके यौवन के कफन के रूप में परिचय पाकर, मैं पिछली बार गई थी। एक हाथ में चाय का गिलास और गुड़पगे मीठे खजूर लेकर वह आई तो मैंने पूछा-“खिमुली को आज भी छुट्टी दे दी है क्या?"

“हाँ, आज इतवार है ना, इतवार को मैं उसे पूरे दिन की छुट्टी दे देती हूँ, अपने भतीजे से मिलने बिंसर गई है, कल लौट आएगी।"

अपनी चाय का गिलास लेकर, वह फिर मेरे पास बैठ तो गई, पर मुझे लगा, वह धीरे-धीरे मुझसे दूर खिसकती जा रही है। न अपने प्रत्यावर्तन की कोई कैफियत, न अपने संक्षिप्त विवाहित जीवन का कोई प्रसंग। मैं जितनी ही बार कुछ पूछने की चेष्टा करती, वह उतनी ही बार बड़े चातुर्य से, पैंतरा बदल, एक-न-एक बहाना बना, कभी कुछ लेने चली जाती, कभी क्रमशः वेगवती बन रही वर्षा की आड़ी-तिरछी फुहारों को, कमरे के भीतर आने से रोकने के लिए, अकारण ही पटापट खिड़कियाँ बन्द करने लगती। मैं समझ गई, अपने जीवन के उस अप्रीतिकर परिच्छेद का पहला पृष्ठ, मेरे सम्मुख उजाले में खोलने में वह सकुचा रही है। ठीक है, रात होने पर ही पुरूँगी। शायद रात्रि का अंधकारपूर्ण एकान्त, उसकी जिह्वा को मुखर बना दे।

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