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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


मैंने यही किया, रात को वह मेरे पलंग से सामान्य व्यवधान रख, पलंग खिसकाकर लेट गई। बत्ती बुझाने का प्रश्न ही नहीं उठा था, उस ग्राम में बिजली दुर्लभ पाहुने-सी पहले तो आती ही नहीं थी; आती भी, तो उसी त्वरा में चली जाती और फिर रात-भर नहीं आती। वह रात भी ऐसी ही थी।

"ललिता।" मैंने कहा।

"हूँ...।"

"तू क्या अब सचमुच ही लौटकर नहीं जाएगी?"

“कहाँ?" सब कुछ समझकर भी वह, अनजान बन गई।

“अपनी ससुराल।"

"नहीं!” उसका दृढ़ स्वर, रात्रि की निःस्तब्धता में हथौड़े-सा बज उठा।

"जानती है, जीजाजी क्या कहते थे? तेरी बुआ जब अपनी दन्या गाँव की ससुराल जाने को राजी नहीं हुई और बरसों तुम्हारे यहाँ पड़ी रही तो जीजाजी ने मेरे ही सामने उससे कहा था-कालिंदी, स्कूल न जानेवाले लड़के और ससुराल न जानेवाली लड़कियाँ मुझे बहुत बुरी लगती हैं।"

"हूँ..."

"तो फिर क्यों नहीं जाएगी ससुराल? ऐसे बड़े घर में तेरा विवाह हुआ, राजपुत्र-सा वर और राजसी वैभव मिला और एक तू है सिरफिरी कि इस सडियल स्कल में हेडमास्टरनी बनी मर-खप रही है।"

वह निरुत्तर रही।

“आखिर तू भाग क्यों आई? झगड़ा हो गया था क्या? देख ललिता, तेरे अम्मा मेरी आत्मीया ही नहीं, प्रिय सखी भी थी। यदि कहूँ कि आज मैं तेरी मौसी ही नहीं, माँ हूँ-तब भी नहीं बताएगी क्या? शायद, मैं तेरी कुछ मदद कर सकूँ।"

“संसार में अब कोई मेरी मदद नहीं कर सकता मौसी, यही समझ लो कि अब मैं विधवा हो गई हूँ।" उसकी यत्न से दबाई पहली सिसकी फिर सहस्त्र सिसकियों में फूट गई। खिड़की से आती सड़क के लैम्पपोस्ट के अस्पष्ट आलोक में भी पलंग पर बैठी, उस दुबली-पतली लड़की की, सिसकियों से काँपती देह को मैं स्पष्ट देख पा रही थी।

शायद, आज पहली बार वह किसी की उपस्थिति में जी खोलकर रो पा रही थी। मैं जानती थी कि न कोई उसकी ऐसी सहयोगिनी है, न कोई आत्मीया, जिसके सम्मुख वह अपनी अनकही वेदना का पात्र ऐसे उड़ेल पाई होगी!

मैंने उसे जी भरकर रोने दिया, फिर वह स्वयं ही तटस्थ होकर मेरी ओर मुड़ी, “तुम पूछ रही हो, मैं क्या ससुराल कभी नहीं जाऊँगी?" वह हँसी, बाहर क्षण-भर को चमकी बिजली की क्षणिक कौंध में व्यंग्य, क्षोभ और क्रोध से तिर्यक, उसके अधरों की अवज्ञापूर्ण स्मित देख मैं अचकचा गई। आवेश से वह ऐसे हॉफ रही थी, जैसे पुराने श्वास की रोगिणी हो, “मेरी ससुराल है ही कहाँ जो मैं वहाँ जाऊँ मौसी! जब आपसे मिली तब मैं स्वप्नावस्था में थी-सप्ताह में उनकी दो-दो चिटिठयाँ आ रही थीं। जीवन में कभी किसी ने मुझे प्रेमपत्र नहीं लिखा, इसी से किसी रोचक उपन्यास की, मोहक धारावाहिक किस्तों से उनके प्रेमपत्रों को मैं सहेजकर रख लेती, बीसियों बार पढ़-पढ़कर उनकी एक-एक पंक्ति, एक-एक नवीन प्रेमपगा सम्बोधन मुझे कंठस्थ हो गया था, फिर जब भी कोई विदेश से आता, उपहारों से वे मुझे लाद देते-घड़ी, परफ्यूम, साड़ियाँ, पर्स, कॉडिगन-यहाँ से कोई जाता तो मैं भी कुछ-न-कुछ भेजती रहती, हाथीदाँत का सिगरेट केस, चिकन के कुर्ते, पहाड़ी हरी चाय के डिब्बे। एक बार तो मैंने अपने पूरे महीने का वेतन ही उपहार जुटाने में फूक दिया था। बार-बार लिखते-जल्दी ही तुम्हें यहाँ बुलाने की व्यवस्था कर रहा हूँ। जानता हूँ, बाबूजी का विछोह तुम्हारी कठिन-अग्निपरीक्षा सिद्ध होगा, किन्तु यही तो है पति की विजय और पिता की पराजय। यहाँ आते ही तुम अपने बाबूजी को भूल जाओगी।"

"मैं निहाल हो जाती, कभी-कभी तो अपने सुख से निर्लज बनी मैं बाबूजी को उनके पत्रांश सुनाने लगती। मेरी सम्भावित विदेश-यात्रा के लिए, मुझसे भी अधिक अधीर बाबूजी हो उठे थे।"

"चिट्ठा आती तो लाठी पर चिबक साधे चुपचाप मुझे देखते रहते। चिट्ठी पढ़कर शायद मैं उन्हें कछ सखद प्रसंग सुना दूं। ठीक जैसे पालतू अनुशासनबद्ध कुत्ता भोजन ग्रहण कर रहे स्वामी के सम्मुख बैठा, आँखों-ही-आँखों में उदग्र याचना भर टकर-टकर देखता है कि दयालु स्वामी एक गस्सा तो उसकी ओर फेंकेगा ही! कभी-कभी मझे बाबजी पर गस्सा भी आता, इतनी ही स्वतन्त्रता मझे नहीं है कि मैं पति का प्रेमपत्र एकान्त में तो पढ़ लूँ।"

"चिट्ठा लम्बी होती और मझे पढने में विलम्ब होता तो बडे अधैर्य से बीच ही में वे पूछ बैठते-"क्यों, क्या लिख रहा है आज? टिकट भेजा है क्या?” मैं कभी-कभी उन्हें झिडक भी देती-“ओह, पढ़ने तो दीजिए, बाबूजी!" आज सी निरीह स्नेही पिता को दी गई वही झिड़की मेरे कलेजे में फाँस बनकर चुभ रही है। उन्हें क्या टिकट की चिन्ता अपने लिए थी?

"उधर मैं कल्पना के पंख लगाकर किसी शून्याकाश में उड़ने लगी थी।

आँखें बन्द कर देखती, मैं जा रही हूँ, एयरपोर्ट पर मुझे लेने, वर्षों से प्रवासी मेरे लोकप्रिय व्यक्तित्व सम्पन्न पति के मित्रों की भीड़ जुटी है, उन सब नदियों को, उन अनजान शहरों को जिनका अस्तित्व, मेरे लिए आज तक नक्शों तक ही सीमित था, जिनके भौगोलिक नीरस सूत्र, मैं अपनी न जाने कितनी छात्राओं को रटाते-रटाते ऊबने लगी थी, वे ही आज मेरी आँखों के सम्मुख सरस, सजीव बनकर बिखर रहे थे। मैनचेस्टर, न्यू कासल, लेक डिस्ट्रिक्ट-फिर देखती, मैं वहाँ से रंगीन पिक्चर पोस्टकार्ड भेज रही हूँ अपनी अध्यापिकाओं को, छात्राओं को। बाबूजी पूरे गाँव में घूम-घूमकर इष्ट-मित्रों को हमारी रंगीन तसवीरें दिखा रहे हैं। कोई भी भारत जा रहा है तो मैं पूरे गाँव के लिए, विदेशी उपहार भेज रही हूँ, बाबूजी के लिए घड़ी, पटवारी कक्का के लिए गरम पुलोवर, मौसियों के लिए साड़ियाँ, खिमुली के लिए गरम मोजे।"

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