नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
“और फिर, मेरे वे सारे काल्पनिक सतरंगी सपने, आकाश में ही बादलों के फाये-से
उड़कर विलीन हो गए।"...वह एकाएक चुप हो गई। फिर स्वयं ही उसने भग्न सूत्र थाम
लिया-"जब एक साल बीत गया और उसके पत्रों का आना एकदम ही बन्द हो गया तो
बाबूजी का अधैर्य, उनके रक्तचाप को भयावह रूप से बढ़ा गया। डाकिए के आने में
देर होती तो लाठी टेकते, वे स्वयं डाकखाने पहुँचकर पोस्टमास्टर से
पूछते-"क्यों भई, विदेश से कोई चिट्ठी तो नहीं आई है ललिता के नाम?” उनकी यही
सनक, धीरे-धीरे पूरे गाँव का मजाक बन गई।"
..."क्यों हो पांडेजी-दामाद की चिट्ठी आई? कब जा रही है तुम्हारी ललती?" मेरा
खून खौल उठता। मेरे सरल बाबूजी उस तिलमिलानेवाले व्यंग्यपूर्ण प्रश्न भी
सामान्य स्नेहपूर्ण जिज्ञासा के ही रूप में ग्रहण कर लेते-“अरे, आजकल डाक में
बहुत गड़बड़ी हो रही है, कल अखबार में था, एक पोस्टकार्ड इलाहाबाद से पन्द्रह
वर्ष पहले चलकर अब लखनऊ पहुँचा है।" सामर्थ्यहीन पिता की पुत्री जब किसी बड़े
घर में ब्याही जाती है तो बिरादरी के अनेक हृदयों पर साँप लोटने लगता है।
मुझे बार-बार वाल्मीकि रामायण में विभीषण को कही गई रावण की तिलमिला देनेवाली
पंक्तियाँ याद हो आती-
“जानामि सर्वलोकेषु ज्ञातीनां अयि राक्षस,
दृष्यन्ति व्यस्नष्वेते ज्ञातीना ज्ञातयः सदा।"
"बिरादरी के लोग ही तो अपने किसी बिरादरी की दुर्गति देखकर आहलादित होते हैं।
मैं बार-बार बाबूजी को समझाती, “आप क्यों दुनिया भर में कहते-फिरते हैं कि
आपके दामाद को बीस हजार तनख्वाह मिलती है, उसने पाँच बेडरूम का मकान खरीद
लिया है, दो-दो मोटरें हैं और ललिता शीघ्र ही यहाँ राज करने जा रही है..."
"तो बेटी, मैं क्या कोई झूठ कहता हूँ," वे अपने, भोले शिशु के-से प्रश्न से
मुझे निर्वाक कर देते।
"जब पत्र न आए पूरे तीन महीने बीत गए तो बाबूजी भी धैर्यच्युत हो गए।
बोले-“ललती, मैंने स्थिर किया है, दामाद न बुलाते तो न सही। मैं तुझे अपने
खर्चे से वहाँ भेजूंगा।"
"नहीं,” मैंने कहा, "आपके पास है ही क्या जो आप मुझे भेजेंगे-वह क्या
काठगोदाम से अल्मोड़ा तक का टिकट है जो आप चट से खरीद मझे कमाऊँ मोटर यूनियन
की बस में बिठा देंगे। जानते हैं, वहाँ का टिकट कितने का है?
"हाँ-हाँ, जानता हूँ, तेरा छोटा मामा क्या वहाँ नहीं है? मैं उसको लिख ,गा,
वह तुझे आकर ले जाएगा, फिर अच्छे ग्रह-नक्षत्र की गणनाकर उसे भेज देंगे, वही
तुझे ससुराल पहुँचा आएगा?"
"मैं उनके साहस को देख दंग रह गई। क्या था उनके पास? मात्र 120 रुपए की पेंशन
और मेरे विवाह के बाद बची उनकी फंड की क्षीण सीमित राशि-कुल चार हजार, उसमें
से भी एक हजार वे जर्जर छत और मकान के पिछली बरसात में गिर गए वामांग की
मरम्मत के लिए निकाल चुके थे। कुछ दो धोतियों, दो खद्दर के कुर्ते, एक जीर्ण
कोट और एक पहाड़ी ऊन के स्वेटर में ही दिन काटनेवाले मेरे दरिद्र, मितव्ययी
बाबूजी, मुझे विदेश भेजकर, अपने जीवन के बचे-खुचे दिन क्या खाकर काटेंगे?"
"मैं आपको एक पाई भी खर्चने नहीं दूंगी। आप कन्यादान से मुक्त हो चुके हैं।
ले जाना होगा तो वही ले जाएगा, जिसने अँगूठा थामा है।" मैंने दृढ़ता से कहा।
"नहीं ललती," बाबूजी की आँखों में आँसू छलक आए-"मैं क्या तेरा दुख नहीं
समझता! तीन ही महीने में तेरी हड्डियाँ निकल आई हैं, रंग स्याह पड़ गया है।
रात-भर खाँसती रहती है, तू क्या सोचती है, मैं सब नहीं देखता? हमारी फैमिली
हिस्ट्री तो तुझसे छिपी नहीं है। तेरी माँ को क्षय रोग ले गया। तेरी नानी को,
तेरी तीन मौसियों को...”
“आप चिन्ता न करें बाबूजी, वह रोग मुझे नहीं ले जाएगा, ऐसे पुण्य कर पृथ्वी
पर नहीं आई हूँ...”
शायद मेरी यही बात उन्हें चुभ गई। अर्थात् पुण्य कर आई होती, तो असमय की वह
मृत्यु मेरे लिए सुखकर होती। शायद मेरी यही बात अब तक, मेरी मन-ही-मन कौशल से
छिपाई गई गहन वेदना को उनके सम्मुख, उघाड़कर रख गई थी।"
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