नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
"ललिता,” वे कहने लगे, "तेरी माँ एक कहानी सुनाया करती थी। पहाड़ के एक
दरिद्र ग्राम की कन्या थी चिन्ता। पदेश कमाने गए उसका पति वर्षों तक नहीं
लौटा और वह मायके में ही पड़ी रही। चिन्ता, बालिका से किशोरी हुई और किशोरी
से युवती, एक दिन उसने अपने पति को पत्र में एक कविता लिख भेजी"?-
"मैं श्वानिका का च्याला खेलूंनी
मैं के खेलँ, तेर हाड़?"
"मेरी हमउम्र हमजोलियाँ, अपने बेटों को खेला रही हैं, मैं किसे खेलाऊँ, तेरे
हाड़ को?"...मैं तुझे हाड़ नहीं खेलना दूंगा, बेटी!" और फिर उसी दिन से
बाबूजी, कमर कस मेरी विदेश-यात्रा की तैयारी में जुट गए थे। फंड से क्या
होता? नानी, सालम में बासमती के तीन खेत मेरे नाम कर गई थीं, उन्हें भी बेचना
पड़ा, फिर भी भिक्षापात्र नहीं भरा, अपनी दुर्लभ पुस्तकें बेचने लगे तो मैंने
बहुत समझाया, पर उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। रात-रात जगकर, मेरे द्विरागमन
की सफल यात्रा के लिए ग्रह-नक्षत्रों की गणना की गई, विदेश स्थित ग्रहों का
स्वदेशीय तिथि-नक्षत्रों से अन्तर निकाला गया. दर्भाग्य से फ्लाइट
बृहस्पतिवार को थी, एक बार बाबूजी गहरे सोच में पड़ गए-गुरुवार को, कन्या
पितृगृह से विदा नहीं होती। उमा भी तो गुरुवार ही को दक्षगृह से चली थीं।
सुपारी-हल्दी की गाँठ मेरे सूटकेस में घर, मुझे तिलक लगा बाबूजी ने एक दिन
पहले ही मेरा एयरपोर्ट को प्रस्थान कर दिया, सारी रात मेरे साथ स्वयं भी वहीं
बैठे रहे। सच कहती हूँ मौसी, मेरे पैरों से धरती छोड़ी तो कलेजा धड़धड़
धड़कता मुँह को आ रहा था। एक ओर था, अदम्य उत्साह, दूसरी ओर उतनी ही उदग्र
व्यग्रता! कहीं कोई लेने नहीं आए तब?
और फिर जब उनसे मिलूँगी, मुझे अचानक सामने खड़ी देखकर, वे क्या सोचेंगे? क्या
मेरा, निर्लज्ज अभिसारिका का रूप उन्हें मोह पाएगा? मेरे दुस्साहस से अभिभूत
हो, वे मुझे बाँहों में भर लेंगे या अवमानना से दूर पटक देंगे? हो सकता है,
वेचारे स्वयं ही बीमार हों और हमें चिन्ता होगी जानकर हमें कुछ लिखा ही न हो!
“जब, राम-राम कर लंदन पहुँची तो अनेक दुश्चिन्ताओं से मेरा हृदय उद्वेलित हो
रहा था। हीथ्रो एयरपोर्ट के बारे में, स्वयं उन्हीं से अनेक बातें सुनी थीं।
वहाँ पहुँचने पर, एंट्री परमिट दिखाना पड़ता है, भारतीयों को वहाँ जान-बूझकर
ही अपदस्थ किया जाता है।"
"मैं तुम्हें अकेली थोड़े ना आने दूंगा। तुम तो बौरा जाओगी, मैं स्वयं आऊँगा
तुम्हें लिवाने।" उन्होंने जाने से पहले कहा था।
"मेरे पास तो कुछ नहीं था, न एंट्री परमिट, न किसी के नाम का परिचय-पत्र, आने
के उत्साह में. मैं मामा का पता लाना भी भल गई थी। सरल अनुभवहीन पिता की
अंगुली पकड़कर ही मैं पहली बार दिल्ली आई थी। उस विराट हवाई-विश्रामस्थली को
देख मुझे लगा, सहसा पिता की अंगुली मेरी पकड़ से छूट गई है और मैं किसी मेले
की अन्तहीन भीड़ के रेले में खो गई हूँ। मामा का चेहरा मुझे ठीक ही याद था,
किन्तु उस अनचीह्ने-अनजाने परिवेश में उन्हें नहीं पहचान पाई तब? वैसे बाबूजी
ने, उन्हें यह भी लिख दिया था कि मैं किस रंग की साड़ी पहनकर, एयरपोर्ट पर
उतरूँगी। यही नहीं, मेरा एक ताजा चित्र भी खिंचवाकर उन्हें भेज दिया था,
मैंने उद्भ्रान्त दृष्टि से इधर-उधर देखा, न जाने कितने काउंटर थे और कैसी
श्वेतांगी भीड़। एक पल को मैं ठगी-सी देखती रही।” “आप, क्या पहली बार यहाँ आई
हैं?" पीछे से एक मृदु कंठ-स्वर ने जैसे मेरा कंधा थपथपा दिया।
मैंने मुड़कर देखा, चेचक के दागों से बुरी तरह नुचा-खुचा चेहरा, त्रुटिहीन
साहबी वेश-भूषा, हाथ में एक बैग लिए, वह नाटे कद का व्यक्ति मुझे बड़ी
सहानुभूति से देख रहा था। ऐसा स्याह रंग कि मुझे पहले लगा, वह नीग्रो है।
मेरी हतप्रभ दृष्टि देख उसने इस बार और भी विनम्र स्वर में, विशुद्ध हिन्दी
में पूछा- “आप शायद किसी को ढूँढ़ रही हैं, पर लेने आए व्यक्ति, यहाँ नहीं आ
सकते। यहाँ की औपचारिका पूरी होने पर ही आप बाहर जा पाएँगी और वहीं वे आपको
मिलेंगे। आपको उस काउंटर पर जाना है।" उसने एक काउंटर की ओर अँगुली दिखाई।
जिस काउंटर पर मैं जाकर खड़ी हुई, वहाँ एक ऊँची युवती, अपनी कठोर मुखमुद्रा
से, अनुभवहीन आगंतुकों को सहमाती, सबके पासपोर्ट उलट-पुलटकर देख रही थी। मेरी
सहमी आकृति और डरी-डरी आँखें देखते ही वह शायद समझ गई थी कि मैं पहली बार
लंदन आई हूँ। “यहाँ क्या करने आई हैं? वह भी एक संक्षिप्त अवधि के लिए, किसी
आत्मीय के पास आई हैं क्या? लैंडिंग परमिट कहाँ है?" एक साथ अनेक कठोर
प्रश्नों की मशीनगनी बौछार ने मेरी वाणी हर ली।
मैं उनसे कहना चाह रही थी, कि जिस आत्मीय के पास आई हूँ, हमारे देश में नारी
का उससे घनिष्ठ आत्मीय और कोई नहीं होता। “मैं अपने पति के पास आई हूँ। केवल
विदेश भ्रमण के लिए, वहाँ नौकरी करती हूँ। लौटना है, इसी से अवधि संक्षिप्त
है।" मेरा दो टूक उत्तर, उसकी कठोर मुख-मुद्रा को देखते-ही-देखते, मनोहारी
स्मित से सवार गया। मैं, उसके देश में बसकर, अवांछित भारतीय भीड़ का रेला
बढ़ाने नहीं आई हूँ, जानकर वह आश्वस्त हो गई और मैं उस चक्रव्यूह से बेदाग
निकल आई। एक व्यर्थ आकांक्षा से मेरा हृदय फिर धड़क उठा। क्या पता, मामा ने
उन्हें भी सूचित कर दिया हो और वे मुझे लेने आए हों?
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