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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है

चार


इन्हीं मामा से हमारा सम्बन्ध एक प्रकार से विच्छिन्न ही हो चुका था। उस स्वार्थपरक देश में जाकर, जो मृत्युशय्या पर पड़ी, चिरदारिद्रय से जूझती, अपनी जननी को देखने भी नहीं आया था, उस मामा से हमारी सहानुभूति हो भी कैसे सकती थी! फिर उन्होंने धर्मभीरु बाबूजी की दृष्टि में एक अक्षम्य अपराध भी तो किया था। पूर्वविवाहिता, पति परित्यक्ता, तीन-तीन पुत्रियों की, एक विदेशिनी प्रौढ़ा जननी से विवाह कर, उन्होंने स्वयं भी हमसे मुँह मोड़ लिया था।

अचानक, मेरी दृष्टि मामा पर पड़ी। मुझे देखते ही वे तेजी से आगे बढ़े और मेरे हाथ से सूटकेस लेकर बोले, "मैंने तो तुझे दूर से ही पहचान लिया था। एक पल को तो लगा, हाथ में सूटकेस लिए हीरा दीदी चली आ रही है।"

मामा की साहबी वेश-भूषा, शरीर से आती मदिर सुगन्ध और स्वस्थ दगदगाते चेहरे को देख मैंने कहा, "मामा तुमने तो मुझे पहचान लिया पर, तुम आगे न बढ़ते तो शायद मैं तुम्हें नहीं पहचानती, तुम तो एकदम अंग्रेज लग रहे हो।"

"हाँ-हाँ,” मामा का अहंकारी स्वर मुझे अच्छा नहीं लगा। "और तो और, यहाँ भी सब मुझे इलैटियन या स्पैनिश ही समझते हैं।" बाहर निकलते ही मामा ने सूटकेस मुझे थमा कर कहा, “तू यहाँ खड़ी रह, मैं कार ले आऊँ।"

पहाड़ी चीते-सी छलाँग लगाती, मामा की कार आई और उसका चमकता कलेवर देख, मुझे उसमें बैठने में भी संकोच हुआ। रोडवेज की बसों को छोड़, क्या आज तक मैं किसी कार में बैठी भी थी!

“तेरी मामी तुझे देखकर बहुत खुश होंगी।" मामा ने कहा तो एक क्षण को मैं चकरा गई, मामी कहाँ से आ गई यहाँ जो मुझे देखकर खुश होगी। यह प्रिय सम्बोधन, जिसके साथ ही मेरी ननिहाल की अनेक, मधुर-स्मृतियाँ जुड़ी थीं। विदेश की उस वीरानी में, सहसा मामी का नाम सुन मैं एक पल को चौंकी, फिर समझ गई और किसी अनजान विदेशिनी के नाम के साथ उस रिश्ते को स्वीकार करने में, मेरा अबाध चित्त विद्रोह कर उठा। मन-ही-मन मैंने निर्णय कर लिया-उसे मामी कभी नहीं कहूँगी, कभी नहीं, मामी तो मेरी एक ही थी। मामा फिर वहीं की कुशल पूछने लगे। अलाँ कैसे हैं, फलाँ कैसे हैं? मैं जिसकी कुशल पूछना चाह कर भी नहीं पूछ पा रही थी, उसका उल्लेख, क्या मामा जान-बूझकर ही नहीं कर रहे थे? मामा का घर, एयरपोर्ट से बहुत दूर था, चिकनी स्वच्छ सड़क पर राजसी गाड़ी, जल में मछली-सी फिसल रही थी। हम पहुँचे तो मामा के लाल रंग की छतवाले कॉटेज को देख, मुझे लगा जैसे नैनीताल के किसी बंगले के बाहर खड़ी हूँ। छोटे-से बाग में हवा में झूमते हरे-नीले पुष्प, फल भार से गदराई सेब-आड़ के वृक्षों की नतमुखी टहनियाँ, हृदयाकर जलाशय में खिले कमलों के बीच तैरती रंगीन मछलियाँ और मखमली दूब!

"तेरी मामी को बागवानी का बेहद शौक है।" मामा ने कहा और द्वार की घंटी बजाई। मधुर टंग-टंग के साथ, दूसरे ही क्षण द्वार खोलकर, अपनी मांसल भुजाएँ फैला मुझे आलिंगनबद्ध करने, मेरी विदेशिनी मामी खड़ी थी। मेदवहुल शरीर की स्वामिनी, गुरु नितम्बिनी, उस मामी को देख मैं उस प्रसारित बाहुपाश के बन्धन में, अपने को समर्पित भी नहीं कर पाई। देहातिन-गँवार-सी खड़ी ही रही। उसी ने बढ़कर मुझे बाँहों में भींचा, मेरे दोनों कपोलों पर स्नेहपूर्ण चुम्बन के दो अंगारे दागे और बाँहों ही में भर मुझे भीतर खींच ले गई। उस वात्सल्य पगे आलिंगन का प्रत्युत्तर मैं उसी प्रगाढ़ ऊष्णता से नहीं दे पाई। देती भी कैसे? आठ ही दिन पूर्व तो मैं मामी से विदा लेने ननिहाल गई थी-दिन-भर चूल्हे के पास बैठी बेचारी माभी, मेरे लिए पकवान बनाती रही थी, सोच रही थी क्या-क्या खिला इसे। चलने लगी तो काठ के सँकरे द्वार पर, उसने मुझे बाँहों में कसकर भींच लिया था-"अरी, दुश्मनों के देश में जा रही है ललती, पता नहीं कब लौटेगी वहाँ से!" मुझे कड़कड़ अंग्वाल में बाँधे, अश्रुपूरित आँखों से विदा दे रही छोटी मामी, जैसे आँखों के सामने खड़ी हो गई। बड़ी और मझली मामी का चेहरा जहाँ मुझे देखते ही लटक जाता वहीं पर, छोटी मामी मुझे देखकर गुलगुल हो जाती। अपनी दोनों कठोर कलहप्रिया जिठानियों की गृहस्थी में, वह बेचारी नौकरानी-सी खटती रहती, फिर भी एक शब्द नहीं कहती। कहती भी किससे?

"मायका भी ढंग का होता तो वहीं चली जाती," बड़ी मामी कहतीं, "यहाँ अपना ही खर्चा पूरा नहीं पड़ता, सब कुछ ही तो करना पड़ता है, जाड़ा आता है तो सबके लिए गरम कपड़े, रजाई-कम्बल, उस पर छोटे लल्ला ने तो आँखें ही बन्द कर ली। अरे. कभी कद खर्चा ही भेज देते इसके नाम।"

मझली मामी धुन्नी थीं, मुँह से कुछ नहीं कहतीं किन्तु, छोटी मामी का कैसे उपदर्भ करती हैं, मैं देख चुकी थी। झाड़ लगाना, गाय-भैंस के गोठ को बुहार, गोबर निकालना, दूध दुहना, घर-भर के लिए चाय बनाना, सब कुछ छोटी मामी के जिम्मे था। उस पर अशक्त, पंगु सास को बिस्तर पर ही ट्टी-पेशाब कराना, वहीं गीले कपड़े से उनका बदन पोंछ, उनके जप की सामग्री जुटाना, यह भी छोटी मामी ही करती थीं। कपड़े धोने बैठती, जो जान-बूझकर ही मझली मामी धुले कपड़े भी, मैले कपड़ों में मिला जाती, ननिहाल की तीनों बहुओं में वही सबसे सुन्दर थी, कभी उसे ढंग का कपड़ा पहनने को नहीं मिला, फिर भी वह दोनों मामियों के चेहरों पर झाड़ फेर देती, इसी से ईर्ष्याकातर दोनों जिठानियाँ उस पर दिन-रात कहर बरसातीं। मेरा आना उसे बहुत अच्छा लगता। मेरी साड़ियों में से एक-दो मैं उसे चुरा-छिपा कर दे आती, पर मामी जैसे समय से पहले ही बुढ़ा गई थी, न उसे पहनने-ओढ़ने का शौक रह गया, न खाने-पीने का। मायके में एक ही भाई बचा था, वह भी बद्ध पागल। एक बार उसे भाई दूज का टीका करने गई तो उसने रात ही को मामी को कूट-काट सड़क पर डाल दिया था। एक अपनी छात्रा से सुना कि वह बेहोश सड़क पर पड़ी है। मैं ही भागकर उसे अपने यहाँ लिवा लाई थी। हल्दी-चुना लगाकर मैंने कहा, "मामी, अब तुम कहीं नहीं जाओगी-मेरे ही पास रहोगी।"

"कैसे रह सकती हूँ ललती, तू आज नहीं तो कल, एक-न-एक दिन तो ससुराल जाएगी ही, फिर मैं क्या अकेली ननदोई के साथ यहाँ रह सकती हूँ?"

भले ही उसके शरीर से, इस विदेशिनी माफी के-से शरीर की, महमह सुगन्ध न आती हो, उसकी वही गोबरपिरुल मिश्रित सुगन्ध मुझे बहुत अच्छी लगती थी।

मामा की दोनों पुत्रियाँ, कहीं निकल गई थीं। छोटी एक 'हाई' मार कर फिर टी.वी. से चिपक गई। उस बर्फीली औपचारिकता से मेरा कुछ ही घंटों में दम घुटने लगा। शाम हुई तो मैंने डरते-डरते कहा, “मामा मुझे वहाँ कब तक पहुँचा दोगे?"

“कहाँ?" मामा ने, शायद मुझे जान-बूझकर ही छेड़ा और मैं लाल पड़ गई।

"देख ललिता,” मामा बोले, “यहाँ से वह जगह पचास किलोमीटर की दूरी पर है। आज आराम कर ले, कल सुबह तुझे पहुँचा दूंगा, एक बात बता, यह विवाह क्या तूने अपने मन से किया या जीजाजी ने रिश्ता ढूँढ़ा?"

"बाबूजी ने," मैंने सिर झुका लिया।

“आश्चर्य होता है, उन्होंने मुझसे एक बार कुछ पूछना भी उचित नहीं समझा। मैं तो समझ गया था कि मामला कुछ गड़बड़ है, नहीं तो जीजाजी, तेरे आने की सूचना दामाद को न देकर क्या मुझे देते? उसने तुझे बुलाया है क्या? टिकट भेजा था यहाँ से?"

"नहीं,” मैंने सिर हिलाया।

"और तू बिना बुलाए ही इतनी दूर आ गई?"

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