नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
मेरी गीली आँखें शायद उन्होंने देख ली थीं, एकाएक उनका खीजा-झुंझलाया स्वर,
नरम हो उठा, "एक बात तुझे समझा दूं ललिता, यह देश स्वार्थपरकों का देश है,
यहाँ जैसे भारत की रेजगारी नहीं भुनती, वैसे ही वहाँ के संस्कारों की रेजगारी
भी हम नहीं भुना सकते। तेरी शादी को अब एक वर्ष होने को है, चाहने पर वह
दूसरे ही महीने तुझे यहाँ बुला सकता था। तू यदि यह सोच रही है कि वह तुझे
वैसा ही मिलेगा जैसा भारत में था तो यू आर सैडली मिस्टेकेन। अब भी यदि कोई
ऐसी-वैसी बात हो गई तो यह मत सोचना, विदेश में तेरा कोई नहीं है। रक्त-मांस
की डोर सहज में नहीं टूटती ललिता।"
मामा के उस अन्तिम वाक्य ने मुझे चौंका दिया। तब क्या मामा को अपने किए का
पश्चात्ताप होने लगा था? क्या अपनी अपापबिद्ध पत्नी के प्रति किया गया
अन्याय, उन्हें विगलित करने लगा था? क्या, इस विलास के समस्त साधनों से
परिपूर्ण गृह की कृत्रिम सज्जा में, धधकती बिजली के बनावटी अग्निस्तूप में,
उन्हें उस नीची ढालू छत के अपने ग्राम के उस पहाड़ी मकान की याद आ रही थी,
जहाँ शीशम के द्वारों पर बनी, काठ के द्वारपालों की मूर्तियों की अवनत मूंछों
पर, बाज के धधकते कोयले और डीठों की आँच, सदा-सदा के लिए अपनी सुवासित
धूम्रकुंडली की मोहक सुगन्ध छोड़ गई थी?
क्या, अपने इस 'मस्क' आफ्टर शेव लोशन से मिलती-जुलती नानी के उस हिरन की खाल
मढ़े पिटारे की सुगन्ध से उनके नथुने नहीं फड़क रहे थे, जिसमें घर भर के गरम
कपड़े बन्द रहते थे और जिन्हें निकालते ही पूरे कमरे में कस्तरी के बीडों की
सवास महमह महकने लगती थी? अपने इन नकली विदेशी गलीचों को देख, क्या उन्हें
मेरे ननिहाल के उन तिब्बती दन चटकों की याद आ रही थी, जिनके हरे-पीले-गुलाबी
चटक रंगों को धूमिल पड़ गई बिनाई को हम उनके साथ, बर्फ की पहली फुहारों में
पीट-पीट कर पुनरुज्वल करते थे? इस विराटकाया नवीन जीवनसहचरी के बाहुपाश में
बँधे मेरे निर्वीर्य छोटे मामा, क्या मेरी सुन्दरी छोटी मामी को, सचमुच ऐसी
हृदयहीनता से भूल गए कि एक बार एकान्त में भी उसके बारे में मुझसे कुछ नहीं
पूछा। वह मामी, जो छूने से भी मैली होती थी, वह मामी जिसे देखकर लगता था, अभी
उसके दूध के दाँत भी नहीं टूटे, वह मामी, जिसके कभी पान न खाने पर भी दोनों
होंद, टुकटुक लाल रहते। जब उसे मामा के विवाह का समाचार मिला तो वह पागल-सी
हो गई थी। न किसी से बोलती, न हँसती, न कहीं जाती। नानी मृत्युशैय्या पर पड़ी
थीं, उनके लिए यह एक ऐसा आधात सिद्ध हुआ, कि वे फिर उठ नहीं पाईं। सब जानते
थे, कि छोटे मामा ही में उनके प्राण अटके है, छोटी मामी, अब उनके सिरहाने से
एक पल को भी नहीं हटती-मृत्यु के एक दिन पहले मैं भी पहुँच गई थी। मुझे देखते
ही नानी ने व्यग्र होकर मेरा हाथ पकड़ लिया, “तू आ गई ललती, देख आज ही अपने
छोटे मामा को चिट्ठी लिख दे, अभागे से - कहना-मैं मरूँ तो मुझे पिंड न दे।"
पर, वहाँ पिंड देने आ ही कौन रहा था। नानी की मृत्यु के बाद, छोटी मामी की
स्थिति और दयनीय हो उठी थी। एक बार जी में आया कहूँ, “मामा, तुमने माभी के
साथ बहुत अन्याय किया है, कुछ खर्चा तो उन्हें भेज ही सकते हो।" पर जितनी ही
बार कुछ कहने की चेष्टा करती, सिंहिका-सी विदेशिनी मामी, उनका माया ग्रास
मुँह में भर लेती। क्या वह जानती थी कि छोटे मामा ने ऐसे अक्षम्य अपराध किया
है? क्या सौत के अस्तित्व से उसका परिचय था?
पर न मैं उससे कुछ कह पाई, न मामा से। दूसरे दिन मामा ने चलने को कहा, और मैं
सूटकेस लेकर तैयार हो गई, तो मामा कहने लगे, "मेरा कहना मान तो एक बैग लेकर
ही चल, सब ठीक रहा तो मैं तेरा सूटकेस कल पहुँचा दूंगा।"
"क्यों?" मैंने शंकित दृष्टि से उन्हें देखा।
“अच्छा-अच्छा, चल ठीक है। पर देख, मैं बाहर से ही लौट जाऊँगा-तेरे पति से मैं
एक बार उलझ चुका हूँ। उसने अपमानित कर ही मुझे एक बार घर से निकाला है, दूसरी
बार मैं, उससे मिलना नहीं चाहता।" एक भयावह संभावना मुझे कँपा गई। तब, क्या
मामा उन्हें जानते थे? क्या मेरे पति के अतीत का कोई रहस्यमय प्रकरण मामा पढ़
चुके थे?
जी में आया, मामा को झकझोर डालूँ-मामा, क्या उनके प्रवासी जीवन के किसी
प्रच्छन्न रहस्य की अभिज्ञता ही तुम्हें इस संशय में डाल रही है कि मैं वहाँ
जाकर उल्टे पाँव लौट आऊँगी।
बाबूजी ने मामा ही को तो एक बार लिखा था कि तुम जाकर पता लगाना क्यों वह
ललिता को अपने पास बुलवाने में, जान-बूझकर ऐसा ढील-ढिलाव कर रहा है?
पर यह भी मामा का कैसा अन्याय था! कुछ देख भी लिया था तो हमें लिख तो सकते ही
थे, पर दूसरे ही क्षण मुझे अविवेकी-मूर्ख चित्त ने स्वयं अपने को दिलासा दिया
जिस व्यक्ति ने स्वयं मुझे पसन्द किया था, और चार ही दिन में विवाह सम्पन्न
कराने की जिद पकड़ ली थी, जिसके व्यवहार जिसके पत्र और जिसके बार-बार मुझे
अपने पास बुलाए जाने के आश्वासनों में, एक पल को भी मुझे कभी अभिनय का पुट
नहीं दिखा, वह मझे अब किस छलना के विवर्त में भटका सकता था?
"चलिए मामा," मैंने दृढ़ स्वर में कहा और वे एक बार फिर कुछ कहने को उद्यत
हुए, पर फिर न जाने क्या सोचकर कार में बैठे, मेरे लिए दरवाजा खोल दिया।
मार्ग-भर वे एक शब्द भी नहीं बोले। आज सोचती हूँ, उस सुदीर्घ अवकाश का सुअवसर
पाकर भी, मैं क्यों उनसे कुछ पूछ नहीं पाई? क्यों मैंने छोटी मामी के पक्ष
में दी गई सशक्त दलीलों से उन्हें विचलित नहीं कर दिया?
पतिगृह की अनजान परिधि में ही मुझे उतारकर वे बोले, “वह तीसरी बड़ी-सी इमारत
देख रही है ना? वह मेरा क्लब है। मैं आठ बजे तक तेरी प्रतीक्षा करूँगा, अभी
पाँच बजे हैं।"
मैंने अपने सारे प्रश्न, अपने ही कंठ में घुटक लिए।
मुझे छोड़कर मामा बाहर ही से जाने लगे तो मैंने डरते-डरते पूछा, “अंदर नहीं
आओगे मामा?"
"नहीं", उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा, “पर मैं तेरे लिए आठ बजे तक रुका
रहूँगा।”
"तुम चले जाओ मामा," मेरा स्वर खीज से तीखा हो उठा था, “मैं क्या अब तुम्हारे
साथ लौटूंगी?”
एक विषाक्त दुष्टि मेरी ओर निक्षेपण कर मामा ने फिर अपनी जिद दुहराई-“नहीं,
मैं तेरी प्रतीक्षा करूँगा।"
मैं जिस सांघातिक अपमान को झेलने पतिगृह की घंटी बजा स्वयं अपने दुर्भाग्य को
न्योत रही थी, वह मामा शायद जान गए थे। पहले किसी ने प्रत्युत्तर नहीं दिया,
मैंने दोबारा बटन दबाया और भीतर से तीखे नारी कंठ का चिड़चिड़ा स्वर आया,
“कौन?"
मैं अपना किस नाम से परिचय दूं, सोच ही रह थी कि द्वार खुल गया।
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