नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द) चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)शिवानी
|
9 पाठकों को प्रिय 278 पाठक हैं |
अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
पाँच
"कैसी मूर्ख हो तुम," यहीं पर मैंने उस शान्त सहिष्णु ललिता को झकझोर कर रख दिया--"इतने बड़े अन्याय को तुमने चुपचाप सह लिया?"
“करती क्या मौसी?" उसका उत्तर मुझे निरुत्तर कर गया। “उस अनजान बस्ती में एक भद्दा नाटक ही तो प्रस्तुत कर सकती थी मैं! किस गवाह को मैं वहाँ खड़ा कर सकती थी? क्या प्रमाण दे सकती थी कि मैं उसकी पत्नी हूँ-कौन विश्वास करता मेरी बातों का? और फिर, मान लीजिए, मैं चीख-चिल्ला कर प्रमाण जुटा, कानूनी बैसाखियाँ टेक अपने पति को पा भी लेती तो वह क्षण, मेरी विजय का, मेरे सुख का क्षण होता?"
"ऐसे बेहया अन्यायी को तुमने बिना दंड दिए ही छोड़ दिया, यह अपराध क्या उसके अपराध से कुछ कम है?"
“मेरा यह दृढ़ विश्वास है मौसी, दंड हम नहीं, स्वयं विधाता देता है, एक-न एक दिन इच्छाकृत अपराध का दंड अवश्य मिल सकता है।"
"तुम्हारे मामा ने तुम्हारी मदद नहीं की?"
"मदद मैंने माँगी ही कब थी, बेचारे न जाने कब तक क्लब में बैठे, मेरी प्रतीक्षा करते रहे होंगे। पागलों की भाँति मैं तेजी से चलती न जाने कितने मोड़ पार गई और अचानक भाग्य ने ही शायद मुझे उस उदार व्यक्ति से टकरा दिया।"
"हाइ बेबी,” कह वह मेरा मार्ग अवरुद्ध कर खड़ा हो गया। मैं काँप गई, दैत्याकार नीग्रो का स्याह रंग, मोटे अधरों की विचित्र गढ़न, धुंघराले घने केशों का टोप की आकृति में बना छुटाव देख, मैंने सहमकर, कन्नी काटने की व्यर्थ चेष्टा की।
"नो-नो," कहता वह फिर हँसा-“समथिंग रांग बेबी?"
दो ही दिन पहले मामा से इस बदनाम बस्ती की कितनी ही कहानियाँ सुनी थीं। “लन्दन में अकेली मत निकलना विशेषकर इन बस्तियों में!" उन्होंने मुझे जो कुछ नाम गिनवाए थे, उसी में मैं उस दिन काँपता कलेजा लिए भटक रही थी। उस पर मामा ने मुझे इन्हीं कृष्ण-भुजंगवर्णी चेहरों के प्रति सचेत रहने की सीख दी थी।
वह फिर पूछने लगा, “क्या बात है बेबी, इतनी डरी क्यों लग रही हो?"
मेरे हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। जीभ तालू से सट गई। कहाँ जाना था, क्या मैं जानती थी?
"चलो मेरे साथ, डरो नहीं।" फिर, उसने बड़ी दुष्टता से एक आँख मींच कर मुझे आश्वस्त करने की चेष्टा की, “आई एम नाट ए बैड मैन बेबी।"
अब, जब अकेली पड़ी रहती हूँ तो उस दिन की याद कर कँपकपी होने लगती है। आश्चर्य होता है, कि दिन-रात अपनी छात्राओं को, कभी किसी अनजान व्यक्ति के साथ न जाने की सीख देनेवाली मैं, कैसे उस अपरिचित हब्शी के साथ चुपचाप चली गई! वह मेरे साथ कुछ भी कर सकता था, पर मैं किसी मन्त्रपूत डोर में बँधी उसके पीछे-पीछे चलने लगी। उसकी लम्बी-लम्बी टाँगों के साथ चलने में, मुझे एक प्रकार से दौड़ ही लगानी पड़ी थी। स्टेशन पहुँचकर उसी ने टिकट खरीदा, सर्द हवा में काँपती मैं उस अज्ञात व्यक्ति के साथ ट्यूब में बैठी। तीर की तेजी से ट्रेन चली तो मुझे लगा, मैं हवा में तैर रही हूँ। एक बार बरेली गई थी, गृहविज्ञान की परीक्षा लेने, जिद कर साथ की अध्यापिकाएँ मुझे एक अंग्रेजी फिल्म देखने खींच ले गई थीं, मेरे जीवन की वह पहली अंग्रेजी फिल्म थी, उसमें एक ऐसा ही दृश्य था, जब एक नीग्रो एक युवती को ऐसे ही बहला-फुसला कर, पाताल रेलयात्रा के बीच, उसकी हत्या कर भाग जाता है। पकड़े जाने पर वह अदालत में कहता है, वह एक नहीं, अनेक युवतियों की हत्या कर चुका है, उनका सर्वनाश कर उनकी हत्या करने में ही उसे परमानन्द आता है। "जो नारी एक बार मेरी हो चुकी हो वह किसी अन्य की न हो" ऐसी निर्लज्ज स्वीकारोक्ति के बाद, वह अदालत में ठठा कर हँसता है। वह वीभत्स हँसी ने, मुझे कई रातों तक सोने नहीं दिया था। मुझे लगा, अंग्रेजी फिल्म का वही हत्यारा, आज मुझसे सट कर बैठा वैसी ही योजना बना रहा था। मैं बैठी थरथर काँप उठी। केवल एक कॉर्डिगन और शॉल में मुझे ऐसे ठकठक काँपती देख उसने बड़ी सहानुभूति से मुझे देखा-“फीलिंग कोल्ड बेबी?" और फिर बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए उठ कर, उसने अपना लम्बा कोट खोल मेरे कन्धों पर लपेट दिया, फिर मुझे अपनी दीर्घ बाँहों में घेर, अपनी सिल-सी चौड़ी छाती के पास सटा लिया, अपने कोट के साथ-साथ उसने शरीर की गरमाहट मुझ तक पहुँचा कर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ, किसी पुराने वटवृक्ष की जटिल जटाओं जैसी लम्बी पश्मी डारियोंवाले गुलूबन्द को मेरी गर्दन पर लपेट कर बोला-“घर चल कर गर्म कॉफी पिलाएँगे तुम्हें, तुम हिन्दुस्तानी तो बहुत चाय पीते हो ना?"
गंतव्य स्टेशन आने पर, बिजली की गति से खुलते-बन्द होते ट्यूबद्वारों से, उसने मुझे तेजी से निकाल लिया, तब ही उसकी दृष्टि मेरी चप्पलों पर पड़ी-"बिना जूते-मोजे के तुम इतनी दूर चली कैसे? आई एक सो सॉरी... मैं जानता तो तुम्हें इनती तेजी से न दौड़ाता। तुम्हें गोद में उठा लेता बेबी। तुम तो इतनी हल्की हो।" हँसकर उसने फिर काकवत् अपनी ग्रीवा बंकिम की 'पुअर-पुअर चाइल्ड' बड़बड़ाता वह मुझे एक बार फिर, अपनी बाँहों के घेरे में बाँध कन्धे से सटा कर चलने लगा। उसके साथ कई अन्धी गलियों को पार कर, मैं वृद्ध की हिलती दन्तपंक्ति-सी जिन खिड़कियों के नीचे खड़ी हुई, उसे देख लगा, मैं एक बार फिर भारत पहुँच गई हूँ। बहुत वर्ष पहले, एक बार नानी के साथ, उनके भाई के यहाँ कानपुर गई थी। उसी ईदगाह की, संकरी सुरंग-सी गलियों से घिरे क्या, उसी स्लम में पहुँच गई थी। यहाँ न कोई घंटी थी, न नेमप्लेट। 'मौम'-उसने द्वार खटखटाया और खट से बिजली जली। मोमबत्ती के-से, उसे मरियल आलोक से शायद दिए की लौ भी अधिक प्रकाश देती। 'कौन आर्थर?' बुढ़िया ने द्वार खोल और खड़ी ही रह गई।
"मौम, यह बेचारी मुझे सड़क पर रोती-भागती मिली, मैं साथ ले आया।"
"बहुत अच्छा किया आर्थर, आओ, अन्दर आओ, मैं तुम्हें गर्म चाय पिलाती हूँ, सारी थकान दूर हो जाएगी।" वह मुड़ी और तब ही मैंने देखा, वह अन्धी है। आर्थर ने बढ़कर, उससे मोमबत्ती अपने एक हाथ में ले ली और दूसरे हाथ से नेत्रहीन माँ का कन्धा पकड़कर, कमरे में ले गया। पीछे-पीछे मैं चल रही थी।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book