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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


जीवन में आज तक, अनेक आत्मीय स्वजनों के साथ रही हूँ मौसी, पर विदेश में, उस अनजान परिवार ने, मेरी बाँह तक उस स्नेह से न गही होती, तो मैं शायद, उसी दिन ऊब कर आत्महत्या कर लेती, जिस दिन पतिगृह से अपमानित होकर इच्छाकृत निर्वासन का वरण किया था। जिसे मैंने दानव समझा था, वह देवदूत निकला। उस माँ-बेटे की सुशिष्टता का प्रमाण, मुझे दो ही दिन में मिल गया, दो दिन तक उन्होंने मुझसे एक भी कैफियत नहीं माँगी, न यह पूछा, मैं कौन हूँ, कहाँ से आई हूँ और न यह पूछा कि मैं क्यों ऐसी हताश होकर सड़क पर भाग रही थी। तीसरे दिन मैंने ही उन्हें सब कुछ बता दिया। उस अँधेरी कोठरी में, जहाँ का बल्ब, सदा किस मोतियाबिन्द से धुंधली आँख-सा ही धुंधआता था, उस नेत्रहीन वृद्धा और किसी निर्दोष दन्तहीन शिशु-से भोले गृहस्वामी से मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी लज्जास्पद घटना को, ज्यों-का-त्यों सुना गई।

सब कुछ सुन कर, आर्थर बिना एक शब्द कहे, गम्भीर मुँह बनाए खिड़की के पास खड़ा हो कर न जाने किस सोच में डूब गया, क्या उसके जीवन में भी उसके काले रंग को लेकर, कभी ऐसी ही अपमानजनक स्थिति आई थी? क्या उसके सरल प्रेम को भी, किसी ने ऐसे ही ठुकराया था? बुढ़िया ने मुझे टटोल कर अपनी छाती पर खींच लिया- 'यू माइ पूअर डार्लिंग', कहती वह रोने लगी। मेरी आँखें में आँसू नहीं थे, परिस्थितियों के आकस्मिक आघात ने मुझे शायद पत्थर बना दिया था। आर्थर किसी कोयले की खान में काम करता था, दुर्गन्ध और कालिख से सना जब वह लौटता, तो उसकी अन्धी माँ को प्रतिदिन यही लगता कि बेटा मौत के मुँह से लौटा है।

“रोज सिर पर कफन बाँधकर खान में उतरता है आर्थर, जब तक आ नहीं जाता मैं काँपती रहती हूँ-इसे कुछ हो गया तो मैं कहाँ जाऊँगी, यह तो मेरा सब कुछ है।" अन्धी तो थी ही बेचारी, पार्किसन्स डिसीज से, उसका वामांग, रह-रहकर पीपल के पत्ते-सा थरथर काँपता रहता था, जरा-भी उत्तेजित होती तो कंपन भयावह रूप से बढ़ जाती। आर्थर ने, माँ के बार-बार कहने पर भी विवाह नहीं किया था। उसने विवाह कर लिया तो माँ का क्या होगा? कभी-कभी असहाय माँ की विचित्र बीमारी से ऊब कर, वह उसे झिड़क देता, "क्यों यह सब अपने हाथ से करती हो तुम?" एक बार, प्लेटें धोने में बुढ़िया के काँपते हाथों से सारी प्लेंटे एक साथ गिर कर चकनाचूर हो गई थीं। "तुमसे कितनी बार कहा है, आँखें देखती नहीं हैं, हाथ काँपता है तो यह सब मत किया करो।"

झिड़की दी गई अपराधी बालिका-सी ही उसकी माँ, चुपचाप सिर झुकाए कोने में खड़ी हो गई थी। प्लेट गिरने की आवाज़ सुन, मैं कमरे में आई तो आर्थर का तमतमाया चेहरा देख, मैंने ही टूटे काँच के टुकड़े झाड़-बहार दिए थे। जब मातृभक्त आर्थर ही, कभी-कभी वृद्धा माँ की छोटी-मोटी त्रुटियों पर ऐसे झल्ला उठता था, तो क्या पत्नी आने पर, धीरे-धीरे एक बोझ बनी जा रही सास की अकर्मण्यता को वह सह पाएगी? मुझे अपनी नानी के साथ किया गया, बड़ी और मझली मामियों को दुर्व्यवहार याद हो आता। कितनी बातें सुनाई जाती थीं नानी को? तीर से भी तीखे व्यंग्यवाणों को झेलती नानी, बार-बार आकाश की ओर; काँपते हाथ जोड़कर कहती-"नारायण, उठा लो अब प्रभु, सबकी ज़िन्दगी में जहर घोल रही हूँ। सर्पिणी-सी अपनी ही संतान को निगल रही हूँ मैं।" “वह तो निगल ही रही हैं," बड़ी मामी की तीखी आवाज़ कढ़ाही में छनछनाते बड़ों की छनछन को, म्लान करती भीतर चली आई थी- “बरसात के दिन, और सब गू-मूत बिस्तर में, ऐसी सडाँध आ रही है आज उस कमरे से, कि लग रहा है, मुर्दा सड़ रहा है। अरे, कम-से-कम यही बता दो कि चिलमची लगानी है। पाँच महीने का हमारी लक्ष्मी का बेटा तक 'उंह उंह' कर बता देता है कि कुछ करेगा।" वे अपनी पुत्री के संतान की कार्यकुशलता का उदाहरण देतीं, “मेरे एक भी बच्चे ने कभी बिस्तर नहीं भिगोया, एक ये हैं कि अस्सी बरस की हो गई-खाने-पीने का सब होश हैं पर नरक करेंगी तो उंह-आह भी नहीं करेंगी-छिः, थू!"...

आर्थर की माँ ने ही बताया, कि एक बढ़ई की श्वेतांगिनी पुत्री आर्थर के प्रेम में पागल-सी हो गई थी। माता-पिता से विद्रोह कर, वह स्वयं ही उससे विवाह करने लंदन से वहाँ भाग आई थी, पर आर्थर ही उसे फिर उसके घर पहुंचा आया था। कहने लगा- “मैंने उसे समझा दिया हैं, विवाह होगा तो बच्चे भी होंगे, फिर उन्हें स्कूलों में वर्ण विद्वेष की आग में झुलसना होगा, जीवन-भर, वे उसी कुण्ठा से दग्ध होते रहेंगे, झुलसते रहेंगे, जिससे मैं झुलसा हूँ...”

“क्या तुम्हारे यहाँ भी यह सब कुछ है?" अंधी आँखों ने मुझसे पूछा।

मैं कैसे कहती-हाँ, हमारे यहाँ और भी घृणित ढंग से होता है। काली और गोरी चमड़ी का भेद, अब और विकृत हो गया है। अखबारों के विवाह-विज्ञापनों में, अभी भी कन्या के गौर वर्ण की विशेष माँग की जाती है, हरिजनों को अब भी मशालों-सा जलाया जाता है, वर्षों का दासत्व भोगकर भा हम अपनी आत्मा को मक्त नहीं कर पाए हैं। सफेद चमड़ी को देखते हा हमारी विवश दुम अब भी उसी विवशता से हिलने लगती हैं, गोरी चमड़ी का भाषा, उनकी विकत-संस्कृति, उनकी सभ्यता को पकड़ने हम अब भी ललक कर लपकते हैं, यह वर्ण-विद्वेष नहीं तो और क्या है?

सात दिन उसी अँधेरी कोठरी में बिताकर मैं लंदन का वैभव बिना देखे ' हा भारत लौट आई। लंदन से दूर उस झोपड़पट्टी-सी बस्ती में न मुझे किसी ने देखा, न में ही बाहर निकली। एक बार ऑर्थर ने ही प्रस्ताव रखा कि वह हर शनिवार को लंदन जाता है, मैं जब आई ही हूँ तो क्यों न वह मुझे घुमाकर कुछ दर्शनीय प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान दिखा लाए? किन्तु, मैंने उसका प्रस्ताव उसी क्षण फेर दिया, क्या यह संभावना, सदैव नहीं बनी रहेगी कि, किसी भी क्षण मैं उस प्रवंचक से टकरा जाऊँ, जिसके अतीत के क्षणिक स्पर्श की स्मृति, मुझे दिन-रात सहस्त्र बिच्छुओं का-सा डंक दे रही थी? ब्रिटिश म्यूजियम, हाइड पार्क, बर्किंघम पैलेस के रंगीन चोबदार, सब कुछ देखने के अधूरे सपने, आँखों ही में लिए मैं भारत लौट आई। ऐसी व्यर्थ विदेशयात्रा कर, कोरी हंडिया-सी भारत लौटनेवाली मैं शायद पहली भारतीय थी। ऑर्थर ने ही मेरे लौटने की सम्पूर्ण व्यवस्था कर दी थी। मैं चलने लगी, तो उसकी माँ ने मुझे छाती से चिपटा लिया, कहने लगी, “बच्ची, तुम अभी जवान हो, एक बार ठोकर खा ली तो क्या हुआ? उठकर खड़ी हो, और फिर सीना तानकर चलती रहो। इस बार, अच्छा लड़का देखकर, घर बसा लो।"

मैं उससे कैसे कहती कि हमारे देश में अब भी ब्राह्मण-दुहिता का अँगूठा, एक ही बार थामा जाता है, उसके संस्कार स्वयं ही उसे दूसरा अँगूठा थामने की अनुमति नहीं देते।

"कैसे नहीं देते," मैंन एक बार फिर उसे बड़े अधैर्य से टोक दिया था, “अलां को देख, उसने क्या तलाक लेकर एक मद्रासी से शादी नहीं कर ली?

और अपनी वह? भरी अदालत में अपने नपुंसक पति के पौरुष की धज्जियाँ उड़ा, अब ठाठ से दूसरा विवाह कर रानी बन बैठी है।"

"अपनी-अपनी बात हैं मौसी, एक बार जुआ हारकर सर्वस्व गँवा चुकी हूँ, अब दूसरी बार मैं दाँव नहीं लगा सकती।"

ठीक ही कह रही थी वह। मैं क्या उसे नहीं जानती थी? उसकी गहरी जड़ें, उस जिद्दी पौधे की-सी जड़ें थीं, जिसको कलम कर, दूसरी धरा पर, लाख प्रयत्न करने पर, चतुर-से-चतुर बागवान भी कभी नहीं उगा सकता।

“ऑर्थर," मैंने चलने से पहले ऑर्थर से कहा, "मेरा एक काम कर दोगे?"

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