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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


अन्नपूर्णा ने पूछा तो वे हँसे, “छुट्टियों में क्या आएँगे री बैणी! बाप को कन्धा देने आ जाएँ, वही बहुत है, पर अब उसकी भी उम्मीद नहीं रही। आज दस साल बीत गए, कभी एक कार्ड तो डाला नहीं। सुना है, दोनों भाई ऊँची नौकरी पर हैं, पर लंका में सोना है भी तो मेरे बाप का क्या?" फिर उन्होंने छत की वल्ली से लटकी पोटली उतारी, विभिन्न गाँठों में बँधी चाय, चीनी निकाल केतली में छोड़ी और कहने लगे, “सुना है, वहीं किसी पंजाबी ठेकेदार की जुड़वाँ बेटियों से शादी कर घर भी बसा लिया है। देख तो रही है-कैसी दशा हो गई है घर की, ओड़ मिस्त्री अब मिलते नहीं। बाप-दादों की थाती है, छोड़ी भी नहीं जाती। पिछले साल, एक बार तो एक नागा बाबाओं के दल के साथ जाने की ठान ही ली थी, फिर सोचा, चला गया तो मेरे मरीजों को कौन देखेगा, क्यों ऐसा बैरागी बनें, यहीं रहकर उनकी सेवा करूँ। यही तो असली बैराग है री बैणी..."

पिरीममा ने कभी काशी से वैद्यगी पढ़ी थी-दूर-दूर से मरीज उनसे दवा लेने आते थे, यह अन्ना जानती थी।

"हटो पिरीदद्दा, मैं चाय बना दूँ।” अन्ना और शीला दोनों चाय बनाने बैठ गईं।

ठीक है, ठीक है, तू ही बना, मैं ताजा दूध ले आऊँ,” कह वे लोटा लेकर निकल आए।

पूरे कमरे में धुएँ की कड़वी महक आ रही थी, फिर भी कमरा साफ-सुथरा था। पुआल के गुदगुदे गद्दे पर साफ चादर बिछी थी, देवेन्द्र उसी पर लेट गया।

“याद है दीदी, एक बार हम तीनों भाई तेरे और अम्मा के साथ आए थे? अम्मा अपने मायके में इष्ट की पूजा देने आई थी। इसी चूल्हे पर नानी ने कैसे-कैसे पकवान बनाकर हमें खिलाए थे! उन लाल चावलों की खीर का स्वाद मुझे अभी भी याद है। कितनी गोरी थी आमा! एक दिन तो नरिया ने पूछ दिया था-आमा, तू क्या मेम है?"

कालिंदी घूम-घूमकर पूरा घर देख आई थी। इतने बड़े घर में, पिरीममा कैसे अकेले रहते होंगे? उस पर साँझ होते ही साँय-साँय कर बहती वंशी-सी बजाती देवदारी बयार, नीचे पहाड़ी गल्डोलों को तोड़ती-फोड़ती बह रही वेगवती पहाड़ी नदी का तीव्र स्वर! अम्मा बताती थी, कभी वहाँ दिन डूबते ही आदमखोर शेर दहाड़, गाँव वालों को द्वार मूंद, घर ही में नजरबन्द बनाकर रख देता है, पर पिरीममा तो जैसे सब खूखार आदमखोरों को विजित कर चुके थे-एक हाथ में जलती मशाल, और दूसरी में घुघरू-लगी लाठी लेकर वे निर्भीक हो, उतार उतर जाते। खेतों की देखभाल, बाजार का सौदा-सुलुफ, खाना पकाना, नौले से बड़ी-बड़ी ताँबे की गगरियों में पानी लाना-सब कुछ वे इस फुर्ती से करते, लगता, कोई कड़ियल जवान ही चला आ रहा है।

“एक हम हैं," अन्नपूर्णा शीला से कहने लगी, “एक दिन भी बर्तन मलने वाली नहीं आई तो आसमान सर पर उठा लेते हैं और एक ये पिरीदद्दा हैं, मुझसे पूरे दस साल बड़े हैं पर कमर देख मँझली, अभी भी नहीं झुकी।"

भूतलीय वैभिन्न्य, बंजर भूखी जमीन, दुर्गम चट्टानों का प्राकृतिक अवरोध और प्रकृति के नित्य बदलते तेवर! कभी भरभराकर पूरा पहाड़ ही गिर गया और कभी बर्फ का खिसकता ऐवलांश खेत के खेत धरा में धंसा गया, फिर भी कुमाऊँनियों के अदम्य साहस, लगन और संयम के मूर्तिमान स्वरूप थे पिरीममा। चौवीसों घंटे ओठों पर लगी हँसी, आत्मविश्वास से दमकता चेहरा! उन्हें देख, कालिंदी के जी में आ रहा था, वह कुछ दिन उन्हीं के पास रहकर, जीवनपर्यन्त अनवरत परिश्रम करने का कठिन पाठ सीख कर कंठस्थ कर ले। सारा दिन वे अपने सीढ़ीनुमा खेतों में जुटे रहते। न उनके पास सिंचाई के साधन थे, न निरन्तर ढह रही दीवालों की मरम्मत का ही बाहुबल, फिर भी उनकी दन्तहीन हँसी में कितना स्नेह था! कितनी सरलता! जड़ी-बूटियों की उन्हें पहचान थी।

“अरी तू तो ठहरी विलैती डाक्टरनी और हम निपट देहाती अनाड़ी वैद्य।" वे उससे कहते पर दूर-दूर से उनके मरीज उनसे दवा लेने आते थे, दवा लेने उन्हें कभी बाजार नहीं जाना पड़ता। रीठा, हरड़, पिपरमेंट, मुरेठी, आँवला, मूसाकन्द, वासा, दारूहल्दी, गुलवनफ्शा, पाषाणभेद, जटामासी, रतनजोत, कर्णफूल जैसी बहुमूल्य जड़ी-बूटियों का उनके पास अशेष भंडार था। तीन ही दिनों में उन्होंने कालिंदी को कितने ही नुस्खे थमा दिए थे। एक दिन वह गोद में ही प्लेट रख नाश्ता करने लगी तो उन्होंने उसे डपट दिया, “कैसी डाक्टरनी है री तू, गोद में भक्ष्य पदार्थ रखकर खा रही हो?"

"क्यों?" वह हँसी, "इसे भी तुम्हारा शास्त्र मना करता है क्या मामा?"

पिरीममा का चेहरा गम्भीर हो गया, आनन्दी भानजी का हँसी-हँसी में पूछा गया वह प्रश्न उन्हें अच्छा नहीं लगा, “ये हँसने की बात नहीं है भानजी, यही सब तो हमें धरातल में फँसाए जा रहा है। तब सुन चेहड़ी (लड़की), गोद में रखकर, शैया पर लेटकर कभी खाना नहीं खाना चाहिए, यही नहीं, मूर्षु, दुर्जन, पतित, शत्रु, वेश्या, धूर्त और वैश्य का अत्र भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।"

हाय राम, सुन रही हो मामी! इसका मतलब, हमें बड़े और छोटे मामा के घर का भी खाना नहीं खाना चाहिए!"

"चुप कर!" शीला ने हँसकर उसे डाँट दिया।

पिरीममा 'जोशी वैदजू' के नाम से ही प्रख्यात थे। वैसे तो हर मर्ज की दवा उनके पास रहती पर वे कुष्ठरोग के ही स्पेशलिस्ट माने जाते थे : नेपाल, काली कुर्मू, गांग घाटी से प्रत्येक रविवार को उनके यहाँ असंख्य कुष्ठरोगी एकत्रित हो जाते-एक प्रकार से कुमाऊँ के बाबा आमटे थे वे! ऐसे सिद्ध चिकित्सक, जिनका व्यक्तित्व ही उस पर्वतीय नदी का-सा था, जो अपना सर्वस्व लुटाकर, घने वन-अरण्यों के बीच, गाँव-गाँव को सींचती, गुमनाम बहती, गुमनाम ही खो जाती है। समाज द्वारा वहिष्कृत अपने उन मरीजों को वे एक कतार में बिठा, सूर्य को अर्घ्य दिलवाते और फिर आदित्य आराधना में समवेत स्वर गूंजने लगते :

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