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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः
ज्योतिर्गणानां पतये विनाधिपतये नमः
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः।

वैसे तो वैद्यक उनका कुलक्रमागत व्यवसाय था, किन्तु उन्होंने उसे कभी व्यवसाय नहीं बनाया।

“आपको डर नहीं लगता पिरीममा, मुझे तो आपके ये सब मरीज पोजिटिव केस लग रहे हैं!” कालिंदी ने पूछ दिया था।

"डर कैसा?" दन्तहीन हँसी से उनकी झुर्रियाँ उद्भासित हो उठी थीं"यह रोग होने वाला हो तो भगवान को भी नहीं छोड़ता। जानती है भानजी, परमप्रतापी भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब को भी यही रोग हो गया था और उन्होंने उसे छुटकारा दिलाने शाकद्वीप से मग ब्राह्मणों को बुलाया था क्योंकि वे ही सूर्य-पूजा के अधिकारी थे। सूर्य-पूजा ही इस चिकित्सा का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह शरीर को कुत्सित बनाता है, इसी से इसे कुष्ठ कहा गया है। पर शरीर से अधिक कुत्सित बना देता है बेचारे रोगी के मन को।"

"मामा, अब तो इसकी एक से एक बढ़िया औषधि निकल आई हैं। कहिए तो आपको भेज दूं?”

"नहीं चेली, मैंने आज तक अपनी ही औषधियों से कितने ही कुष्ठरोगियों को ठीक किया है। पुष्य नक्षत्र में इन जंगलों से ही ढूँढ-ढूँढ़कर बटोर लाता हूँ।"

"कैसी जड़ी-बूटियाँ देते हैं मामा?"

वे हँसे, “ऐसी मृत्युंजयी औषधियाँ जो तुम्हें ढूँढ़ने पर भी तुम्हारी अंग्रेजी डाक्टरी पोथों में नहीं मिलेंगी। सुनेगी? तब सुन-लौह, तुवरक, मल्लातक, बाकुची, गुग्गुल और चित्रक! और फिर माणीभद्र वटक योग का विधान यानी रोगियों को एक-एक पक्ष पर वमन, एक-एक महीने में विरेचन और तीन-तीन दिन पर शिरोविरेचन, फिर छः-छः महीने पर रक्तमोक्षण। इनमें से सबसे हृष्टपुष्ट रोगी जो तुझे दिखे, वही है गजैसिंह। कभी पहाड़ से कूदकर आत्महत्या करने जा रहा था, हाथ-पैरों की उँगलियाँ झड़ चुकी थीं, घावों से मवाद रिसता था, बहू-बेटों ने गाँव के नियमानुसार बारह पत्थर दूर फेंक दिया-मैं ही उसे अपने साथ ले आया। पूरे दो साल इलाज किया और अब तू देख ही रही है। मैं इसे अब कभी-कभी चिढ़ाता हूँ :

“अन्यारि कुठेणी
तितिर बांसौ
बुड़ गजैसिंह
जुग मलाशो!

(अँधेरी कोठरी में अब तीतर बोलने लगा है और बूढ़ा गजैसिंह फिर मूंछे ऐंठने लगा है।)

“पूरे आठ मील की तीखी चढ़ाई पार कर हर रविवार को चला आता है, तुम्हारे आने की खबर मिली तो गाँव चला गया, वैसे मेरे यहाँ ही पालतू कुत्ते-सा पड़ा रहता है। देख तो रही है, इतना अनाज होता है, कौन खाए? हम दो ही तो खाने वाले हैं। जो बचता है, वह इन्हीं मरीजों में बाँट देता हूँ।"

कालिंदी को लगा, शास्त्रकारों ने इस भूमि को, स्वर्गलोक की उपमा व्यर्थ ही नहीं दी है। यह पर्वतराज, समस्त देवताओं का निवासस्थान ही नहीं, पिरीममा जैसे सिद्धजनों की तपोभूमि भी है।

“आप क्या हमेशा खद्दर ही पहनते हैं ममा?"

“अरी पगली, हमारे पहाड़ में कभी एक कहावत थी कि पहाड़ का तो वल्द (बैल) भी कांग्रेसी होता है। मैं भी उसी युग का हूँ। ये कपड़े मैं खुद कातता हूँ। गजुआ फिर चनौंदा आश्रम में कता सूत पहुँचा आता है और सरला वहन बेचारी बिनवा देती है।"

ब्रह्ममुहूर्त में सबसे पहले उठ, मामा नौले से पानी ला, चाय बना सबके सिरहाने एक-एक गिलास गर्म चाय रख आते और फिर स्वयं कब खेतों में निकल जाते, कोई जान भी नहीं पाता। फिर खेतों से ही उनके सुरीले कंठ की आवाज, हवा के साथ-साथ तिरती ऊपर चली आती :

बंण गाँधी सिपाही
रहटा कातुंला
देश का लीजिया
हम मरी मेदुला।

(हम गाँधी के सिपाही बन सूत कातेंगे, देश के लिए हम मर मिटेंगे।)

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