नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
चार दिन न जाने कब और कैसे चुटकियों में बीत गए थे। दूसरे दिन तड़के ही
उन्हें बस पकड़नी थी। पिरीममा ने अपने पेड़ों से सेब, नाशपाती, आलूबुखारे की
बड़ी-सी टोकरी तैयार कर दी थी और डॉक्टरनी भानजी के "लए कुछ अचूक
जड़ी-बूटियाँ।
आज अम्मा की ननिहाल में उसकी आखिरी साँझ थी। इस स्नेही सन्त को शायद वह फिर
कभी नहीं देख पाएगी। बिस्तरे के नाम पर मामा के पास एक मोटा पहाड़ी थुल्मा था
जिसे वे आधा बिछा, आधा ओढ़ लिया करते थे।
"मामा, यह आपके लिए छोड़े जा रही हूँ।" वह उन्हें अपना स्लीपिंग बैग थमाने
लगी, तो वे जोर से हँस पड़े, "लो, सुन रही हो अन्ना, मेरे लिए यह अपना
विलायती थैला छोड़े जा रही है! भागवन्ती, हमारे यहाँ तो मरने पर ही ऐसे बन्द
थैले में सोते हैं, प्राण रहते नहीं पर मुझे अब क्या चाहिए ओढ़ना-बिछौना?
सुना नहीं तूने :
“अल्मोड़ियैक पछांण
ढुंगौक दिशाण!
“अल्मोड़े की तो पहचान ही यही है, पत्थर के बिछौने पर सोना पसन्द करते हैं
हम। चल, तुझे अपना बनाया घट दिखा लाऊँ।"
मामा के साथ वह सुनहली पिरुल घास पर स्केट-सा करती चली जा रही थी। यह था
स्वयं प्रकृति का बनाया एस्कलेटर! एक कदम रखो और सर्र से नीचे पहुँच जाओ। न
जाने कौन-सी अनामा वेगवती नदी थी वह।
“पहाड़ की नदियों के नाम नहीं होते री,” पूछने पर मामा ने बताया, "बस, गाड़
कहते हैं। कोई कोसी की गाड़ है, कोई सुवाल की तो कोई अलकनन्दा की।"
उसी तीव्र धार को बड़े कौशल से बाँध, मामा ने सारे गाँव के लिए आटा पीसने की
चक्की बना दी थी।
आटा पिसाई आई चार-पाँच लाल-लाल गालों वाली गोरी बालिकाएँ, न जाने कौन-सा खेल
खेलने में मस्त थीं। एक-दूसरे की मुट्ठियों पर मुट्ठियाँ साधे नन्हा
कुतुबमीनार बनाए वे जोर-जोर से गा रही थीं :
"उड़कुची मुरकुच्ची
दैण दुहाउच्ची
लइया कैंची
पित्तल ऐंची
चौराक नानतिन कसकस छूंनी
वृन्दावन में व्यूर खेलनी
ओण मोड़ देंणौ हाती
टसकै फुसकै फासकै।"
और फिर उनकी उन्मुक्त निर्दोष हँसी से पूरा जंगल गूंज उठा था। कालिंदी को
सहसा अपना बचपन याद हो आया। उसे दोनों घुटनों पर बिठा, बड़ा मामा स्वयं लेट
कैसी-कैसी पैंगों में झुला-झुलाकर गाता था :
"घुघूती बासूती
माम कां छौ?
मालकोटी
के त्यालो?
दूधभाती
को खालो?
तू खाली
भाते की तौली घुर्र-घुर्र।"
और फिर वह पटाक से बिस्तर पर पटक देता-आज कहाँ खो गया वह स्नेही बड़ा मामा?
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