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नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द)

कालिंदी (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3755
आईएसबीएन :9788183612814

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास


कालिंदी, देवेन्द्र, अन्नपूर्णा, शीला-सबने पिरीमगा से एक स्वर में अपने साथ अल्मोड़ा चलने का आग्रह किया था, “आप एक बार तो चल देखिए-यहाँ अकेले पड़े हैं-न आपका इलाज ही हो पा रहा है, न कोई देखनेवाला ही है। वहाँ हम आपको अच्छे डॉक्टर को दिखा आपकी आँख का ऑपरेशन करा दें, फिर न हो, आप लौट आइएगा-मैं पहुँचा दूंगा आपको।"

"नहीं रे देवी," उन्होंने रुंधे गले से कहा, "तूने कह दिया, इतना ही बहुत है। कौन पूछता है आजकल ममेरे भाइयों को! पर देख, आज तक पुरखों की थाती नहीं छोड़ी, आज कैसे छोड़ दूं?"

बस चली तो खिड़की से सिर निकाले कालिंदी तब तक हाथ हिलाती रही जब तक वह सींक-सी देह एकदम ही विलुप्त नहीं हो गई।

घर लौटकर कालिंदी को सहसा अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा था। मामा के जिस सरल निःस्वार्थ चिकित्सक के रूप को वह देख आई थी, उसके बाद उसे अपनी डॉक्टरी डिग्री डंक देने लगी थी। क्या वह भी अपने रोगियों की ऐसी निःस्वार्थ सेवा कर पाएगी? छुट्टियाँ लगभग शेष होने को थीं। अल्मोड़ा भी कैसा विचित्र शहर है, वह सोच रही थी, जब उससे दूर रहो, तो वह चुम्बक-सा खींचने लगता है और वहाँ कुछ दिन रहने के बाद वह अपने उबाऊपन से स्वयं ही अपने पाहुनों को उबाने लगता है। उसे भी अब अल्मोड़ा से भागने की ऐसी ही छटपटाहट होने लगी थी।

"मामा, छुट्टी के तो अभी पन्द्रह दिन और बचे हैं," उसने एक दिन साहस कर देवेन्द्र से कह ही दिया, “इतना घूम भी चुकी हूँ, सोच रही हूँ, कुछ पहले ही लौट जाऊँ!"

"क्यों, इतने ही दिनों में ऊब गई? अभी वहाँ बेहद गरमी है चड़ी, अभी से जाकर क्या करेगी? मन ऊब रहा है तो चल, थोड़े दिन नैनीताल-भीमताल घूम आएँ।”

"पूरा उत्तराखंड तो घुमा चुके हो मामा, मैं अब बहुत थक गई हूँ-दिल्ली में एक दो काम भी पड़े हैं।"

“मैंने तो तुझे कभी किसी काम के लिए नहीं रोका चड़ी, आज भी नहीं रोकूँगा-तू जाना ही चाहती है तो चली जा, पर बसन्त की तबीयत, इधर तेरे इलाज से सुधर रही है, उसका सहारा टूट जाएगा।"

वेचारे बसन्त मामा! लाल मामी की मौत ने उन्हें एकदम ही तोड़ दिया था, उस पर स्वयं उन्होंने भी हाथ-पैर छोड़ दिए थे, जीने की कोई इच्छा ही नहीं रह गई थी उन्हें!

"क्यों लगा रही है ये सुइयाँ पगली! मैं अव जीकर क्या करूँगा? किसके लिए जियू, तू ही बता?" वे कहते।

“कैसी बातें कर रहे हैं मामा, आप ही तो कह रहे थे-पिंटूदा ने लिखा है, वह आपको देखने आ रहा है, और आपको यहाँ अकेले नहीं रहने देगा, साथ ले जाएगा।"

"तेरी भी बातें, चड़ी,” वे ऐसे हँसे, जैसे दवी सिसकी घुटक रहे हों! "माँ उसका नाम लेती-लेती चली गई, लिखा तो उसने तव भी था कि वह माँ को देखने आ रहा है, आया?"

पर इस बार उनका निर्मोही वेटा सचमुच ही एक दिन बिना कोई खवर दिए अचानक आ गया।

कालिंदी सुई लगाकर मुड़ी ही थी कि देखा, द्वार पर हँसता, दनदनाता पिंटू दा खड़ा है-वही लजीली खिसियायी-सी हँसी और वैसा ही किसी निर्दोप किशोर का-सा चेहरा।

उसने हाथ का सूटकेस नीचे रखा, पिता के पैर छूकर वह फिर कालिंदी की ओर मुड़ा, “वाह, तुम भी यहीं हो चड़ी! मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि तुम यहीं होगी।"

उसकी तृपातं आँखें कालिंदी के सलोन चहरे पर ऐसे गड़ गईं कि वह अपनी दृष्टि हटा ही नहीं पा रहा था।

“कसी तवीयत है बाबू?" फिर उसने पिता के सिरहाने बैठ, उनकी क्षीण कलाई थाम ली।

बसन्त ने मुँह फेर लिया, वर्षों के उपालम्भ कंठ में गह्वर बनकर अटक गए।

उनकी यह चुप्पी सहसा पिंटू को भी गूंगा बना गई।

“आप बहुत नाराज हैं ना बाबू?" फिर वह खिसियाए स्वर में स्वयं ही कैफियत देने लगा, "कैसे बताऊँ आपको, माँ की हालत की खबर पाकर भी तब आना मेरे लिए असम्भव था।"

बसन्त फिर भी कुछ नहीं बोले।

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