नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
“पर तुम तो अपने परिवार के साथ बहुत सुखी थे पिंटू, अचानक यह सब कैसे हो
गया?" अनपूर्णा ने पूछा।
“वहाँ सब कुछ अचानक ही होता है बुआ! मैं जब माँ की बीमारी में नहीं आ पाया और
मुझे जेनेवा जाना पड़ा तो लिज ने मुझे वहीं फोन पर बताया था, शायद रूबरू कहने
की उसे हिम्मत नहीं हुई थी। मुझसे विवाह करने से बहुत पहले वह अपने एक मौसेरे
भाई से विवाह करना चाहती थी, उसकी किसी प्लेन क्रैश में मृत्यु का समाचार पा
वह विक्षिप्त-सी हो गई थी, तब ही मेरा परिचय उससे हुआ, और फिर हमारा विवाह हो
गया। इतने वर्षों बाद रोबर्ट अचानक लौट आया। दोनों फिर कब मिले, कहाँ मिले,
उन्होंने कहाँ यह निर्णय लिया, मुझे कुछ भी पता नहीं चला। इतना उसने अवश्य
कहा कि मैं चाहूँ तो अपनी सन्तान अपने पास रख सकता हूँ, पर मेरे दोनों बेटे
मेरे साथ नहीं रहना चाहते।"
देवेन्द्र ने बसन्त को सब बातें सूझ-बूझ से समझाईं पर वह टस से मस नहीं हुआ।
"नहीं, मैं अल्मोड़ा छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। मैं वहीं रहूँगा, जहाँ से उसकी
माँ को घाट पहुँचाया था।"
दूसरे दिन मुँह लटकाए पिंटू कालिंदी के कमरे में अचानक आकर खड़ा हो गया।
“चड़ी, मेरे साथ चलेगी? तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।"
कालिंदी का चेहरा फक हो गया। वह कुछ-कुछ समझ गई थी कि वह क्या कहना चाहता है।
क्यों, बैठो ना पिंटू दा, इतने घबड़ाए क्यों लग रहे हो? कहाँ चलने को कह रहे
हो? यहीं कहो न, घर में कोई नहीं है, सब मन्दिर गए हैं।"
वह कुर्सी खींचकर बैठ गया। उसके प्रशस्त ललाट पर उतनी ठंड में भी पसीना झलक
रहा था।
बार-बार दोनों हाथों को वह कभी जेब में डाल रहा था, कभी कुर्सी के हत्थे पर
थपकियाँ-सी दे रहा था। स्पष्ट था कि वह जो बात कहने आया है, उसे कहने में
उसका साहस उसका साथ नहीं दे रहा है।
“चुप क्यों हो पिंटू दा, कहो न?"
सहसा चीते की भाँति उछलकर उसने कालिंदी के दोनों हाथ पकड़ लिये, "चड़ी, जीवन
में मैंने एक तुम्हीं को चाहा है। मैं नहीं जानता किस क्षण, किस कौशल से
तुमने मुझे बाँध लिया था-मैं कभी एक पल के लिए भी तुम्हें नहीं भूला। कितनी
बार मैं तुमसे अपने मन की बात कहने आ-आकर लौट गया था चड़ी, कभी साहस नहीं
हुआ। और फिर न जाने कब मेरे इस दुर्बल हृदय को नियति विपथ की ओर खींच ले गई।
मैंने शायद उस जन्म में कोई घोर पाप किया था जो विधाता ने एक क्षण में मेरे
जीवन की समस्त उज्ज्वलता को निःसीम अन्धकार से काला कर दिया। पर यकीन मानो,
तुम्हीं मेरे जीवन का सर्वस्व थीं और हमेशा रहोगी। आज वही भीख माँगने आया
हूँ। तुम मुझे स्वीकार कर लो। तुम मेरे साथ चलोगी तो बाबू भी मेरे सारे अपराध
क्षमा कर देंगे।"
कालिंदी सिहर उठी। ऐसे अप्रत्याशित प्रस्ताव के लिए वह प्रस्तुत नहीं
थी-पिंटू ने अचानक अपने काँपते अधर, उसके हाथों पर धर दिए।
कालिंदी का गोरा चेहरा आरक्त हो उठा, आँखें फैल गईं, कान की लोड़ियों में
जैसे किसी ने लौह-शलाका छुआ दी। सिर से लेकर पैरों तक बिजली-सी कौंध गई। आज
तक किसी पुरुष के अधरों ने उसका अंगस्पर्श नहीं किया था। फिर वह चैतन्य हुई।
उसके बुद्धि से दीप्त, स्नेह से कोमल हास्योज्ज्वल प्रशान्त चेहरे पर विकार
की एक रेखा भी नहीं उभरी। अपने हाथ छुड़ा, वह छिटककर दूर खड़ी हो गई।
“पागल हो गए हो क्या पिंटू दा? तुम मेरे मित्र थे और हमेशा रहोगे। तुम क्यों
भूल रहे हो कि तुम एक पिता भी हो, भले ही तुम्हारे बेटे तुम्हारे साथ न रहें,
तुम्हारा भी तो कोई कर्तव्य है न।"
"मेरा कर्तव्य?" वह हँसा। उसकी आँखों में उसके मन की चतुर्दिक व्यापक शून्यता
तिर आई, "तुम मेरे बेटों को नहीं जानतीं। इंटरनेशनल माफिया स्टैंडर्ड की
परीक्षा में अब तक दोनों अव्वल उतरते आए हैं। दोनों विशुद्ध एगमार्का ड्रग
एडिक्ट हैं। बस चले तो अपनी माँ का ही गला रेत दें, इससे तो वह उनसे मुक्ति
पाना चाह रही है। वे न मरने से डरते हैं, न मारने से-एकदम शास्त्रसम्मत
महापुरुष हैं दोनों। अभी-अभी मसें फूटी हैं, पर अब तक तीन अबोध बालिकाओं के
सर्वनाशकर्ता के रूप में नाम दर्ज करा चुके हैं। वह तो पुलिस को प्रमाण नहीं
मिला, इसी से छुट्टे साँड से घूम रहे हैं। सड़ जाने पर कभी-कभी अपने प्राण
बचाने को अपनी ही भुजा काटनी पड़ती है कालिंदी और मैं अपनी दोनों भुजाओं को
काटकर दूर फेंक चुका हूँ। अब मैं रोगमुक्त हूँ, इसी से तुम्हारे पास बड़ी आशा
लेकर आया हूँ।"
कालिंदी के उस जटिल प्रश्न का उत्तर देने की समस्या का समाधान सहसा
अन्नपूर्णा ने ही कर दिया। हाथ में पूजा की थाली लिये वह पर्दा खोलकर खड़ी हो
गई।
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