नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
“वाह, बड़े अच्छे वक्त आया रे, पिंटू! ले, प्रसाद खा, थोड़ा बसन्त के लिए भी
ले जाना।"
सकपकाकर पिंटू उठ गया। बताशा मुँह में डाल वह जाने को उद्यत हुआ तो शीला आ
गई।
“कहाँ जा रहा है पिंटू? बैठ, गरम-गरम जलेबी लाई हूँ, खाकर जाना।"
"नहीं चाची, बाबू अकेले हैं, फिर आऊँगा,” कह वह तेजी से निकल गया।
कालिंदी का उत्तर न पाकर भी वह समझ गया था कि उसका प्रस्ताव उसे कभी मान्य
नहीं हो सकता। यही नहीं, उसके दुःसाहस को वह अब कभी क्षमा नहीं करेगी। क्षणिक
आवेश में आकर वह भी तो कैसी मूर्खता कर बैठा था! दो सयाने बेटों का बाप होकर
कैसे सोच लिया उसने कि उससे बारह वर्ष छोटी, वैभवसम्पन्ना कालिंदी, उसका
प्रस्ताव सुनते ही टप्प से आकर उसकी गृहस्थी के भग्न खंडहर को सम्हाल लेगी!
पर नित्य की भाँति वह बसन्त मामा को देखने आई तो उसके आनन्दी चेहरे पर नित्य
की उत्फुल्लता थी।
"क्यों मामा, क्या अब भी पिंटू दा से तुम्हारी कुट्टी चल रही है? यह तो
तुम्हारा बड़ा अन्याय है मामा।" उसने हँसकर बसन्त का हाथ थामा तो पिंटू की
छाती पर धरा भारी पत्थर हट गया।
"मेरा अन्याय? और तू कह रही है यह?" वसन्त मामा उत्तेजना से हाँफने लगे,
“तूने तो इसकी माँ की वह हालत देखी है चड़ी, ऊर्ध्व श्वास चलने पर भी उसकी
आँखें, दरवाजे पर ही टिकी थीं-शायद उसका यह कपूत आ ही जाए, पर इसकी चुटिया
पकड़कर तो वह फिरंगिन बैठी थी, आता कैसे?"
"छिः, मामा, भूल भी जाइए अब। आप ही को देखने तो बेचारा इतनी दूर से आया है।"
“मुझे देखने?” बसन्त उचककर बैठ गए और उग्र दृष्टि से पुत्र को भस्म कर बोले,
“यह मुझे देखने नहीं आया है, तुझे देखने आया है चड़ी, तुझे। मूर्ख, अहमक,
गर्दभ-इसने सोचा, उस फिरंगिन ने लात मार दी तो क्या हुआ, तुझे मना लेगा। जरा
पूछ इससे, किसी गड़हे में भी सूरत देखी है अपनी? मुझसे इसने कहा तो मैंने कहा
था-खबरदार जो यह बात कभी चड़ी के सामने जबान पर लाया! वह देवी है-साक्षात्
जगदम्बा! उसके मन्दिर में अपने विलायती बूट पहनकर जाएगा रे मूर्ख? भस्म कर
देगी तुझे।"
एक पल को कालिंदी का चेहरा लाल पड़ गया। उत्तेजना से हाँफते-काँपते बसन्त
मामा को, उसने फिर बड़े यत्न से तकिये पर लिटा दिया।
"मैं क्या कुछ गलत कह रहा हूँ चड़ी? आखिरी बार उसकी माँ ने मुझसे कहा था-मेरे
नजदीक आओ, मुझे कुछ दिख नहीं रहा है, सारे शरीर में चींटियाँ चल रही हैं। मैं
समझ गया कि वह जा रही है। मैंने उसका सिर अपनी गोद में रखकर कहा था-राम का
नाम ले पिंटू की इजा। कह-‘ओं नमो वासुदेवाय नमो वासुदेवाय', पर वह कहने लगी,
'पिंटू-पिंटू'-वही नाम लेकर उसने आँखें पलटी थीं, कैसे भूल सकता हूँ उस घड़ी
को? कैसे क्षमा कर दूँ इसे," उनके चिपके गालों पर आँसू की बूंदें गिर-गिरकर,
कालिंदी के हाथों को भी भिगो गईं।
"अब आप चुपचाप सो जाइए बसन्त मामा।"
"नहीं, मुझे मत फुसला। मैं जानता हूँ, इस मूर्ख ने मेरे मना करने पर भी तेरे
सामने अपना बेहूदा प्रस्ताव रख ही दिया है, मैं तुझसे अपने इस अपदार्थ बेटे
की ओर से माफी माँगता हूँ चड़ी, इसे माफ कर दे। उस फिरंगिन ने इसका दिमाग
बौरा दिया है।"
“कैसी बात कर रहे हैं आप!" कालिंदी उनका सिर सहलाने लगी, “गलती किससे नहीं
होती। आप क्या सोचते हैं, अपने समाज की कुंडली मिलाकर की गई शादियाँ भी क्या
हमेशा सुखी ही होती हैं?" फिर अचानक द्वार पर खड़े पिंटू के चेहरे पर दृष्टि
पड़ते ही वह चुप हो गई।
क्या निकल गया था उसके मुँह से! कहीं वह उसकी उस उक्ति को स्वयं उसी के
दुर्भाग्य की भूमिका न समझ बैठे। उसका अधूरा विवाह भी तो अपने ही समाज में
स्थिर हुआ था।
“चलिए, अब हाथ मिलाइए अपने बेटे से, सारा गुस्सा थूक डालिए।" वह उठी और हाथ
पकड़कर उसने उसे बसन्त के पैरों के पास बिठा लिया।
"लो पिंटू दा, अब अपने हाथों से इन्हें सूप पिलाओ, मैं भी देखती हूँ, ये कैसे
नहीं पीते!"
फिर उसने धीरे से उन्हें उठा, तकिये का सहारा देकर बिठा दिया और बसन्त
आज्ञाकारी बालक की भाँति पिंटू के हाथ से सूप पीने लगे।
पिंटू और चड़ी के बीच फिर वह अप्रिय प्रसंग पिंटू के जाने के दिन तक नहीं
उठा।
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