नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
देवेन्द्र ने समझा-बुझाकर बसन्त मामा को पुत्र के साथ विदेश जाने के लिए मना
ही लिया था।
"वहाँ एक से एक. मृत्युंजयी दवाएँ हैं बसन्त, फिर सबसे बड़ी बात, तुम्हारे
बेटे ने बहुत गहरी चोट खाई है। उसका वहाँ अकेले रहना ठीक नहीं है। कभी ऐसी ही
चोट का दुख भूलने में उसका पैर फिसल सकता है। क्या तुम चाहोगे कि वह अपना
अकेलापन भुलाने, शराब में डूब अपना जीवन ही नष्ट कर ले? थोड़ा घूम-फिर आओ, मन
न लगे तो लौट आना, हम तो हैं ही।"
"जानता हूँ रे देबी, मेरी मिट्टी वहीं बदी है, मैं अब कभी लौट नहीं
पाऊँगा।"
जाने के दिन वे मामा को पकड़ रोने लगे थे। कालिंदी ने उनके पैर छुए तो बड़ी
देर तक उसके सिर पर हाथ धर, न जाने कितने अनुच्चरित आशीर्वादों से उसे स्नात
कर गए।
पिंटू ने एक बार उसके पास आकर कुछ कहने की चेष्टा की फिर केवल हाथ मिलाकर
बिना कहे ही बहुत कुछ कह गया।
देवेन्द्र ने मुँह से तो कुछ नहीं कहा पर कालिंदी समझ गई कि पहले एक और फिर
इस दूसरे बाल्यसखा का विछोह उन्हें दुर्वह लगने लगा है।
नहीं, वह अभी दिल्ली नहीं जाएगी-मामा को अकेला नहीं छोड़ेगी। जाएगी तो उन्हें
भी साथ ले जाएगी।
दिन नीरस गति से बहे जा रहे थे। देवेन्द्र को एक प्रकार से घसीटकर ही घूमने
ले जाती थी। बसन्त मामा के जाने के बाद शतरंज खेलने वाला ही कोई नहीं रहा।
कभी-कभी खाना लेकर बैठी मामी भी झुंझला उठती, “एक तुम हो निठल्ले, दूसरे
तुम्हारे बसन्त। न काम न धंधा, पूरे पहाड़िए हो गए हो। कभी-कभी जी में आता है
री चड़ी, इनके वजीर-प्यादे-फर्जी सब उठाकर कोसी में बहा आऊँ-न खाने की सुध, न
पीने की।"
आज वही वजीर-प्यादे स्वयं ही विलुप्त हो गए थे।
“एक बात कहूँ मामा?" एक दिन वह मामा के सिर में तेल ठोकती पूछ बैठी थी।
“बोल, क्या कहना है?” उसके सुकोमल हाथों की थपकियों से देवेन्द्र की आँखें
मुँदी जा रही थीं।
“अगले हफ्ते तो मुझे जाना ही पड़ेगा, आप सब भी मेरे साथ क्यों नहीं चलते?
मुझे भी अच्छा लगेगा और आप सब को भी कुछ बदलाव तो होगा। जब से यहाँ आए हैं,
अपने को थका लिया है आपने! मामी भी बेचारी यहाँ ऊबने लगी हैं।"
"पगली कहीं की, हमने दिल्ली जाने के लिए यहाँ मकान बनवाया है क्या? फिर तू ही
तो कह रही थी-एकदम बियाबान जंगल में तेरा फ्लैट है, तेरा तो दिन-भर काम में
निकल जाएगा, हम क्या करेंगे वहाँ?"
"बियावान आबाद भी हो सकता है मामा! मैं तो पाँच बजे आ ही जाती हूँ,
शनीचर-इतवार की छुट्टी रहती है और सोम-मंगल को मेरी नाइट ड्यूटी रहती है। फिर
रोज एक नया पाकिस्तानी सीरियल ले आया करूँगी। अम्मामामी को पाकिस्तानी सीरियल
मिल जाए तो वे रेगिस्तान में भी रह सकती हैं। क्यों, है न मामी!"
अन्त तक उसने देवेन्द्र-शीला को साथ चलने के लिए मना ही लिया था, एक अम्मा ही
टस से मस नहीं हुई।
"तुम दोनों चले जाओ देबी, मैं घर कैसे छोड़ सकती हूँ? देख तो रहे हो,
अल्मोड़ा अब क्या वह अल्मोड़ा रह गया है? दिन-दहाड़े यहाँ ताले टूटने लगे
हैं।"
जाने की पूरी तैयारी कर वह मामी के साथ संध्या को मन्दिर में दीया जलाकर लौटी
तो रास्ते में वर्षा की बूंदें गिरने लगीं।
जब घर से चली थीं दो नीलाकाश एकदम स्वच्छ-निर्मल था, दूर-दूर तक बादल का एक
टुकड़ा भी नहीं था, फिर देखते ही देखते सूर्यास्त से पहले ही घटाटोप अन्धकार
छा गया।
“पहाड़ की वर्षा का क्या कोई ठिकाना रहता है, मैंने ही भूल की जो छतरी नहीं
रखी। अब जल्दी-जल्दी चल, पानी तेज गिरने लगा है।" शीला तेज कदमों से चलने
लगी।
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