नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
अम्मा ने ही द्वार खोला, न जाने कैसा उतरा चेहरा लग रहा था अम्मा का! “भीतर
मेहमान बैठे हैं।" उसने धीमे स्वर में फुसफुसाकर कहा, "तुम्हारे कपड़े भीगे
हैं, मैं पिछवाड़े का दरवाजा खोल देती हूँ, वहीं से आ जाओ।" पर उसकी
फुसफुसाहट को कालिंदी शायद नहीं सुन पाई थी, वह भीगे कपड़ों में भीतर चली गई।
लाल रेशमी साड़ी की एक-एक भाँज उसके शरीर से चिपक गई थी। एक हाथ से साड़ी को
ऊँचा उठाने से उसकी बताशे-सी गोरी पिंडली, भीगकर, और भी सफेद लग रही थी। ललाट
का लाल लम्बा टीका पानी से बह सुभग नासिका पर फैल गया था। एकदम रक्तवर्णी वह
रूप देखकर, वह अनचीन्हा सुदर्शन अतिथि अचकचाकर उठ गया और हाथ जोड़े, विमुग्ध
दृष्टि से उसे देखता ही रह गया।
मामा के साथ यह कौन बैठा था, कहीं इसे देखा है अवश्य। फिर सहसा सिर से पैर तक
बिजली-सी कौंध गई। वह थाली लिये ही तीर-सी अपने कमरे में चली गई। उसने ठीक ही
पहचाना था।
"चड़ी बेटी, कपड़े बदलकर जरा बाहर आना।” मामा ने पुकारा तो उसका कलेजा काँप
उठा।
यह कैसे आ गया यहाँ? फिर धीरे-धीरे उसका भय भयंकर क्रोध में परिणत हो गया।
मामा ने कैसे उसे अपने घर में घुसने दिया?
क्या उस दारुण अपमान को भूल गए थे मामा?
वह फिर तमककर, भीगे कपड़ों ही में बाहर चली गई और बिना मामा की ओर देखे
मूर्तिवत् खड़ी रह गई। अन्नपूर्णा और शीला ने एक साथ कहा, "कपड़े बदलकर आ
चड़ी, ठंड लगेगी।"
कहीं जोर से बिजली गिरी और साथ ही पूरे शहर की बिजली चली गई।
"मँझली, मोमबत्ती जला ला। चड़ी, तू जाकर कपड़े क्यों नहीं बदलती?" इस बार
अन्नपूर्णा का स्वर झुंझलाहट से तीखा हो गया।
"डॉ. जोशी आए हैं बेटी!" मामा का स्वर एकदम शान्त था, फिर वे उस अतिथि की ओर
मुड़े, “पर बेटा, तुमने आने से पहले हमें खबर कर दी होती।"
"की थी," कैसी कठोर भारी आवाज थी, जैसे किसी ने कोरे इटैलीन का थान फाड़ा हो,
"मैंने एक नहीं, तीन-तीन चिट्ठियाँ लिखी थीं इन्हें, पूछिए इनसे।"
"क्यों चड़ी? क्या तुझे नहीं मिलीं?"
"मिली थीं पर मैंने बिना पढ़े ही फाड़कर फेंक दी थीं।" स्वर में ऐसी कड़क थी
कि पाहुना भी सहम गया।
"मुझे डैडी की बरसी करने हरिद्वार आना था। सोचा, उस दिन जो गलतफहमी आप लोगों
को हुई थी, उसे भी लगे हाथों सुलझा आऊँ।"
"अरे, क्या जोशी जी नहीं रहे? कब?" मामा ने उद्विग्न स्वर में पूछा।
वह कुछ उत्तर देता, इससे पूर्व ही कालिंदी के क्रोध की उत्तुंग तरंगें उसकी
जिह्वा पर फिसल गईं, “अब भी समझ में नहीं आया मामा?" कालिंदी का
व्यंग्य-मिश्रित स्वर क्रोध से काँप रहा था। मोमबत्ती के क्षीण आलोक में उसका
विवर्ण चेहरा और भी कमनीय लग रहा था, “आज तक इनके डैडी थे इसी से आने की
हिम्मत नहीं हुई, अब नहीं रहे तो शायद दहेज की रकम में, दयावश कुछ कटौती कर,
हम पर कृपा करने पधारे हैं ये।"
इस बार तिलमिलाकर वह खड़ा हो गया।
गोरा रंग क्रोध से तमतमाकर रक्तवर्णी हो उठा। विदेशी ट्वीड के आकर्षक कोट में
उभर, उसके सतर चौड़े कंधे तन गए।
“जी नहीं, मैं कोई प्रस्ताव लेकर नहीं आया हूँ।" क्रोध से काँपते हाथ जेब में
डाल उसने एक बन्द लिफाफा निकाल, बड़ी अभद्रता से, देवेन्द्र के पैरों पर पटक
दिया, “मैं डैडी की आपसे वसूली गई यह रकम लौटाने ही यहाँ आया था। व्यर्थ की
बकवास सुन, अपमानित होने नहीं। सोचा था, उनकी बरसी से पहले उनके एक कर्ज को
चुकाकर ही लौटूंगा, जिससे उनकी आत्मा को शान्ति मिले। सोचा था कि यही पितृऋण
चुकाकर आप सबसे, उस अपराध के लिए क्षमा माँग लूँगा, जो मैंने कभी किया ही
नहीं था। डैडी के वार्षिक श्राद्ध से पहले आपका यह कर्ज नहीं चुकाता तो मैं
शान्ति से उन्हें पिंड नहीं दे पाता।"
“बैठो बेटा, खड़े क्यों हो? आ चड़ी, तू भी बैठ, इनकी बात तो सुन ले।"
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