नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
पर वह उसी अड़ियल भंगिमा में खड़ी रही।
"यकीन मानिए, मुझे कुछ भी पता नहीं था कि डैडी ने आपसे कोई ऐसी बेहूदा मांग
भी की है।" फिर उसने अपनी निर्भीक निर्दोष दृष्टि, कालिंदी की ओर उठाकर कहा,
“आप चिन्ता न करें डॉ. पन्त, मैं न आपको अपमानित करने यहाँ आया हूँ, न यह
कहने कि आप मुझे स्वीकार करें। मैं हरिद्वार से सीधा दिल्ली जाकर, उसी रात की
फ्लाइट से चला जाऊँगा और विश्वास करिए, आप फिर मुझे कभी नहीं देखेंगी।"
इस बार वह हँसा। क्षण-भर पूर्व की उत्तेजना, क्रोध की मनहूस छाया चेहरे से
हटते ही वह अपनी कन्दर्प कान्ति से अन्नपूर्णा को मुग्ध कर गया।
उसकी आँखें छलक उठीं। कालिंदी उसी की कोख से जन्मी थी, पर उसके जी में आ रहा
था, वह मुँह फुलाए अशिष्टता से खड़ी अपनी इस नकचढ़ी बेटी की गर्दन पकड़, उस
विष्णुस्वरूप जामाता के चरणों में डाल दे।
“मुझे अब आज्ञा दें, मैं चलूँ।” वह उठ गया।
हड़बड़ाकर देवेन्द्र भी उसके साथ उठ गए, “ऐसे कैसे जा सकते हो बेटा और फिर
ऐसे बादल-पानी में कहाँ जाओगे ? दीदी, चाय बन गई?"
वहाँ चाय चढ़ाई ही किसने थी?
“नहीं, आप मेरी चिन्ता न करें, चाय तो किसी होटल में भी मिल जाएगी।"
उसके स्वर की कड़वाहट, तीखी छुरी के फाल-सी अन्नपूर्णा के कलेजे में धंस गई।
बिजली शायद रूठे अतिथि की विदा के लिए ही स्की थी-पूरा कमरा जगमगा उठा।
इस बार उसने कालिंदी को निर्भीक होकर देखा। मन की बात तो वह कह ही चुका था,
अब कैसा डर और कैसी झिझक!
वही दम्भ, वही अकड़ और खड़ी होने की वही अहंदीप्त भंगिमा। उसने अब तक अनेक
विदेशी सुन्दरियों को देखा था किन्तु उस सौन्दर्य में और इस सौन्दर्य में
कितना अन्तर था!
एक धधकते सूर्य का ज्योतिपुंज!
दूसरा अमृतवृष्टि करता शरद पूर्णिमा का स्निग्ध पूर्ण चंद्र, पर विधाता ने इस
सौन्दर्य में क्या तेज का अंश कुछ अधिक ही मिला दिया था? इस चेहरे में बुद्धि
की दीप्ति थी, क्षमा का औदार्य नहीं, स्थैर्य था, पर धैर्य नहीं।
“मैं चलूँ,” कह उसने बड़ी विनम्रता से झुककर हाथ जोड़े और पलक झपकते ही स्वयं
द्वार खोलकर निकल गया।
अन्नपूर्णा एक बार बाहर जाने को उद्यत हुई, फिर पुत्री के गम्भीर चेहरे को
देखते ही ठिठक गई। देवेन्द्र हाथ पर हाथ धरे जैसे थे वैसे ही बैठे रह गा। एक
शीला के कठोर स्वर ने सबको एक साथ चौंका दिया, “सबको लकआ मार गया है क्या?
रोकते क्यों नहीं उसे? यह तूने ठीक नहीं किया चडी! उस बेचारे को जब कुछ पता
ही नहीं था, तो उसका क्या दोष? अभी हा नहीं गया होगा-छाता उठाकर जाओ जल्दी,
उठते क्यों नहीं?"
"नहीं, कोई नहीं जाएगा।” चड़ी बिफरी शेरनी-सी ही गरजी थी।
पर शीला ने पति को जबरदस्ती छाता लेकर रूठे अतिथि को मनाने भेज ही दिया।
'कितनी देर तक यहाँ-वहाँ भटककर भी देवेन्द्र उसे नहीं ढूँढ़ पाए। रात-भर की
मूसलाधार वर्षा ने फिर दूसरे दिन पूरा जनजीवन ही भिन्न कर दिया। मोटर मार्ग
को गिरी चट्टानों के नैसर्गिक अवरोध ने अचल बना दिया था। लगातार तीन दिन तक
धुआँधार वर्षा होती रही। चौथे दिन कालिंदी अकेली ही दिल्ली चली गई। सहसा आ
टपके उस अनचाहे पाहुने ने पूरे घर का ही मूड बिगाड़कर रख दिया था-न अम्मा ही
ढंग से बातें कर रही थीं, न मामी। मामा से भी उसकी बोलचाल हाँ-हूँ तक ही
सीमित रह गई थी।
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