नारी विमर्श >> कालिंदी (सजिल्द) कालिंदी (सजिल्द)शिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास
पर क्या वह बैरी था? नहीं, उस व्यक्ति में तो वह किसी बैरी घमंडी धनलोलुप को
नहीं देख पा रही थी। उसके अशान्त चित्त में एक प्रबल आवेग उद्वेलित हो उठा।
परम मुग्ध दृष्टि से उसे एकटक देखता वह सहसा चेहरा उठाए जैसे उसके सामने खड़ा
हो गया था। सारी पृथ्वी की पूंजीभूत वेदना उन शरबती आँखों में एक बार फिर
तिरने लगी थी। तब ही किसी ने घंटी बजाई।
इतनी रात को-कौन हो सकता था? कहीं उसे अकेली देख, कोई चोरउचक्का तो नहीं घुस
आया ? एक पल को वह झिझकी, घंटी फिर बजी।
"कौन?" उसने कड़े स्वर में पूछा।
"मैं हूँ चड़ी, दरवाजा खोल।"
माँ का स्वर सुनते ही उसने लपककर द्वार खोल दिया।
ऐसे अकेली? तब क्या बिना किसी को बताए ही अम्मा भाग आई थी? क्या किसी दैवी
शक्ति ने ही पुत्री की दुर्वह वेदना उस तक पहुँचा दी थी?
"अम्मा, तुम!" वह माँ से लिपट गई।
"हाँ, चड़ी, तेरे मामा-मामी के नाम एक चिट्ठी छोड़, नाइट बस से ही चली आई। मन
बहुत घबड़ा रहा था, देवी को बताती तो क्या वह मुझे अकेली आने देता? और फिर
मैं अकेली ही आना चाह रही थी।"
“पर तुम ऐसे अकेली क्यों आ गईं अम्मा? आना ही था तो मेरे साथ ही क्यों नहीं
चली आईं?"
बिना कुछ कहे अन्नपूर्णा ने बड़े दुलार से अपने दोनों हाथों में पुत्री का
पीला चेहरा भर लिया था, "मैं अकेली ही आना चाह रही थी चड़ी! तेरे मामी-मामा
के साथ आती तो शायद मन की बात निःसंकोच नहीं कह पाती। मैं तुझे कोई उपदेश
देने या डाँटने-फटकारने इतनी दूर नहीं आई हूँ चेली, वह अधिकार तो मैं बहुत
पहले ही तेरे मामा-मामी को सौंप चुकी हूँ पर कुछ बातें ऐसी भी होती हैं चड़ी,
जो एक माँ ही अपनी बेटी से कह सकती है, अपने अन्तर्मन की सच्ची निर्भीक
चेतावनी। और माँ का मन कभी झूठी राय नहीं देता।"
कालिंदी आश्चर्य से माँ को देख रही थी। माँ का यह रूप तो उसने पहले कभी नहीं
देखा-दर्पण-सी स्वच्छ चमकती आँखें, स्फटिक-सी गौरवर्णी त्वचा के भीतर से झलक
रहा अद्भुत तेज, ममता से खिली हुई दिव्य मुस्कान।
"मैं कभी कह नहीं पाई पर मुझे हमेशा लगता था कि डॉक्टरी की पढ़ाई ने तेरे मन
को सूक्ष्प बना दिया है, तेरा प्रवल स्वतंत्रता-बोध, तेरी एकाग्र ज्ञान-
निष्ठा तुझे धीरे-धीरे स्वाभाविक जीवनधारा से काटती जा रही है। तू कभी झुकना
नहीं सीख पाएगी। जहाँ बैर की प्रबल भावना होती है वहाँ फिर प्रेम नहीं रहता
और जहाँ प्रेम नहीं रहता वहाँ फिर सहज सृष्टि भी नहीं हो सकती। मैं आज तुझसे
एकान्त में यही कहने आई हूँ चड़ी, कभी किसी जिद में कोई प्रण नहीं कर बैठना।
मैंने यही भूल की थी और मेरे मायके के मिथ्या दम्भ ने ही शायद मुझे ससुराल के
प्रति उदासीन कर दिया। मनुष्य तो पशु को भी साध सकता है, सर्कस के शेर भालुओं
को नहीं देखा? मैं चाहती तो क्या तेरे पिता को...खैर, छोड़ उन बातों को, पर
इतना तुझसे कह दूँ बेटी, संसार की कोई भी स्त्री मायके के सहस्र सुख भोगने पर
भी एक दिन ऊबने लगती है, अपनी शक्ति, अपनी सामर्थ्य ही उसे डंक देने लगती है।
जो भी कदम उठाएगी, सोच-समझकर उठाना। अपने अहंकार को अपना शत्रु मत बनने देना
चड़ी।"
माँ और बेटी फिर बड़ी देर तक बिना कुछ कहे चुपचाप बैठी रहीं।
न पुत्री ने कुछ कैफियत दी, न माँ ने माँगी।
रात को जिद कर ही अन्नपूर्णा ने उसे अपने साथ लाए नाश्तेदान से जबरदस्ती खाना
खिलाया।
कालिंदी के पास ही तख्त लगाकर वह लेट गई। उसने जो कहना था, वह कह चुकी थी, मन
एकाएक फूल-सा हलका हो गया था, पर फिर भी न बगल में लेटी कालिंदी की आँखों में
नींद थी, न उसकी।
फिर न जाने कब उसकी आँखें लग गईं। चौंककर वह जगी तो देखा, कालिंदी गहरी नींद
में सो रही है। चतुर्दशी की धौत चन्द्रिका, खिड़की के जंगलों से रेंगती
कालिंदी के चेहरे पर पड़ रही थी। कैसी असहाय निरीह लग रही थी वह, जैसे
कभी-कभी थककर स्कूल से लौट, वह अपनी यूनीफार्म में ही जूते-मोजे सहित बिस्तर
पर सो जाती थी। अन्नपूर्णा ही फिर धीरे-धीरे उसके जूते-मोजे उतार रजाई से उसे
ढककर यत्न से सुला जाती थी। आज भी उसने नीचे गिरी चादर से उसे उसी यत्न से
ढाक दिया-ठीक जैसे घोंसले में सो रही नन्ही चिरैया, ऐसी चड़ी जिसके नए-नए उगे
डैनों में अभी उड़ने की शक्ति का संचार भी नहीं हुआ हो। वह दबे पैरों से
उठकर, खुली खिड़की के पास खड़ी हो गई। भोर होने में अभी बहुत देर थी। फिर न
जाने किस प्रेरणा से उसके दोनों हाथ जुड़ स्वयं उसके ललाट से लग गए।
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