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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ऐसा कभी कभी ही होता है कि कोई कृति पुस्तक का आकार लेने भी न पाये किन्तु अपनी प्रसिद्धि से साहित्य-जगत् को चौंका दे। ‘कृष्णकली’ के साथ ऐसा ही हुआ है। कौन है यह कृष्णकली? सौन्दर्य और कौमार्य की अग्निशिखा से मण्डित एक ऐसा नारी-व्यक्तित्व जो शिवानी की लौह-संकल्पिनी मानस-संतान है, एक अद्भुत चरित्र जो अपनी जन्मजात ग्लानि और अपावनकता की कर्दम में से प्रस्फुटित होकर कमल सा फूलता है, सौरभ-सा महकता है और मादक पराग सा अपने सारे परिवेश को मोहाच्छन्न कर देता है। नये-नये अनुभवों के कण्टकाकीर्ण पथों से गुजरती और काजल की कोठरियों में रहती-सहती यह विद्रोहिणी समाज की वर्जनाओं का वरण करती है किन्तु फिर भी अपनी सहज संस्कारशीलता को छटक नहीं पाती। कृष्णकली ने न कभी हारना, न झुकना, उससे टूटना भले ही स्वीकारा। कृष्णकली का क्या हुआ, जो हुआ वह क्यों हुआ - इन प्रश्नों के समाधान में अनेकानेक पाठकों की विकलता लेखिका ने अत्यन्त निकट से देखी-जानी है...
प्रख्यात कथाकार शिवानी के उपन्यास ‘कृष्णकली’ को हिन्दी के पाठकों से जो आदर-मान मिला है, वह निःसन्देह दुर्लभ है! प्रस्तुत है, उपन्यास का यह नवीनतम संस्करण

श्रेय मेरी लेखनी को नहीं!

‘कृष्णकली’ के इस सप्तम संस्करण को अपने उन स्नेही पाठकों को सौंपते मुझे प्रसन्नता तो हो ही रही है, एक लेखकीय गहन सन्तोष की अनुभूति भी मुझे बार-बार विचलित कर रही है। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि पाठकों को किसी भी कहानी या उपन्यास के पात्रों से संवेदना या सहानुभूति ही होती है, तो लेखनी की उपलब्धि को हम पूर्ण उपलब्धि नहीं मान सकते। जब पाठक किसी पात्र से एकत्व स्थापित कर लेता है, जब उसका दुख, उसका अपमान उसकी वेदना बन जाती है, तब ही लेखनी की सार्थकता को हम मान्यता दे पाते हैं। जैसा कि महान् साहित्यकार प्लौबेयर ने एक बार अपने उपन्यास की नायिका मदाम बौवेरी के लिए अपने एक मित्र को लिखा था-‘‘वह मेरी इतनी अपनी जीवन्त बोलती-चलती प्रिय पात्रा बन गयी थी कि मैंने जब उसे सायनाइड खिलाया तो स्वयं मेरे मुँह का स्वाद कड़ुआ हो गया और मैं फूट-फूटकर रोने लगा।’’
लेखक जब तक स्वयं नहीं रोता, वह अपने पाठकों को भी नहीं रुला सकता। जब ‘कृष्णकली’ लिख रही थी तब लेखनी को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, सब कुछ स्वयं ही सहज बनता चला गया था।
जहाँ कलम हाथ में लेती उस विस्मृत मोहक व्यक्तित्व, को स्मृति बड़े अधिकार पूर्ण लाड़-दुलार से खींच, सम्मुख लाकर खड़ा कर देती, जिसके विचित्र जीवन के रॉ-मैटीरियल से मैंने वह भव्य प्रतिमा गढ़ी थी। ओरछा की मुनीरजान के ही ठसकेदार व्यक्तित्व को सामान्य उलट-पुलटकर मैंने पन्ना की काया गढ़ी थी। जब लिख रही थी तो बार-बार उसके मांसल मधुर कण्ठ की गूँज, कानों में गूँज उठती-

                 ‘जोबना के सब रस लै गयो भँवरा
                 गूँजी रे गूँजी...’
              कभी कितने दादरा, लेद उनसे सीखे थे-
                  ‘चले जइयो बेदरदा मैं रोई मरी जाऊँ
             या
                    ‘बेला की बहार
                  आयो चैत को महीना
                     श्याम घर नइयाँ
                  पलट जियरा जाय हो...’
वही विस्तृत मधुर गूँज, उनके नवीन व्यक्तित्व के साथ, ‘कृष्णकली’ में उतर आयी। आज से वर्षों पूर्व, जब ‘कृष्णकली’ धारावाहिक किश्तों में ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हो रही थी, तो ठीक अन्तिम किश्त छपने से पूर्व, टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रेस में हड़ताल हो गयी थी। पाठकों को उसी अन्तिम किश्त की प्रतीक्षा थी जिसमें कली के प्राण कच्ची डोर से बँधे लटके थे।
क्या वह बचेगी या मर जायेगी ?
उन्हीं दिनों मेरे पास एक पाठक का पत्र आया था, साथ में 500/- रुपये का एक चेक संलग्न था-
‘‘शिवानी जी, अन्तिम किश्त न जाने कब छपे-मैं बेचैन हूँ, सारी रात सो नहीं पाता। कृपया लौटती डाक से बताएँ कृष्णकली-बची या नहीं। चैक संलग्न है।’’ चेक लौटाकर मैंने अपने उस बेचैन पाठक से अपनी विवशता ‘मानस’ की इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त की थी-
                      ‘होई है सोई जो राम रचि राखा
                       को करि तर्क बढ़ावइ साखा’
ऐसे ही, लखनऊ मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. चरन ने मुझे एक रोचक घटना सुनाई थी। एम.बी.बी.एस. की फाइनल परीक्षा चल रही थी। कुछ लड़के परीक्षा देकर बाहर निकल आये थे। थोड़ी ही देर में परीक्षा देकर लड़कियों का एक झुण्ड निकला। लड़को ने आगे बढ़कर सूचना दीः ‘कृष्णकली मर गयी।’
‘हाय’ का समवेत दीर्घ वेदना-तप्त निःश्वास सुन डॉ. चरन चकित हो गये। आखिर कौन है ऐसी मरीज, जिसके लिए छात्र-छात्राओं की ऐसी संवेदना है ? निश्चय ही मेडिकल कॉलेज में एडमिटेड होगी। बाद में पता चला वह कौन है।
आज इतने वर्षों में भी कली अपने मोहक व्यक्तित्व से यदि पाठकों को उसी मोहपाश में बाँध सकी है तो श्रेय मेरी लेखनी के नहीं, स्वयं उसके व्यक्तित्व के मसिपात्र को है जिसमें मैंने लेखनी डुबोई मात्र थी। अन्त में, मुनीरजान को मैं अपनी कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ। जहाँ वह हैं वहाँ तक शायद मेरी कृतज्ञता न पहुँचे, किन्तु इतना बार-बार दुहराना चाहूँगी कि यदि मुनीरजान न होती तो शायद पन्ना भी न होती और यदि पन्ना न होती तो कृष्णकली भी न होती।
शिवानी

एक


मूसलाधार वृष्टि टीन की ढालू छतों पर नगाड़े-सी बजा रही थी। देवदारु, बाज और बुरुश के लम्बे वृक्षों की घनी क़तार में छुपे बँगले में बरामदे में टँगी बरसाती हड़बड़ाकर सर पर डाल डॉ. पैद्रिक तीर-सी निकल गयीं।
ओफ़ ! कैसी विकट वृष्टि थी उस दिन ! लगता था क्रुद्ध आषाढ़ा के भृकुटि-विलास में अल्मोड़ा की सृष्टि ही लय हो जाएगी। कड़कती बिजली सामने गर्वोन्नत खड़े गागर और मुक्तेश्वर की चोटियों पर चमकी, तो डॉ. पैद्रिक दोनों कानों पर हाथ धर, थमककर खड़ी रह गयीं ! बिजली के धड़ाके के साथ नवजात शिशु का क्रन्दन... कहीं इसी बीच पार्वती कुछ कर बैठी हो ? काँपती, गले में पड़ी लम्बी रोजेरी को थामें, होंठों ही होंठों में बुदबुदाती डॉ. पैद्रिक, एक प्रकार से दौड़-सी लगाने लगीं।
दो दिन पहले ही तो उसने कहा था, ‘‘फ़िकर मत करो मेम सा’ब, तुम्हारे आने से पहले ही मैं उसके खत्म कर दूँगी !’’
फिर ही-ही कर विकृत स्वर में हँसने लगी थी-निर्लज्ज बेहया औरत ! डॉ. पैद्रिक बड़ी देर तक उसके पास बैठी रही थीं, ‘‘बच्चे में ईश्वर का अंश होता है, जानती है पार्वती ? ईश्वर का गला घोंटेगी तू ? इस जन्म में न जाने किन पूर्वकृत पापों का फल भोग रही है, परलोक की चिन्ता नहीं है तुझे ?’’
उस अँधेरे कमरे में पार्वती की नासिका-विहीन विकराल हँसी को प्रथम बार सुनने पर पत्थर का कलेजा भी शायद भय से धड़कने लगता, ‘‘इसी लोक में जब इतना सुख भोग लिया है मेम सा’ब, तब परलोक की कैसी चिन्ता ? ‘‘अन्य आसन्न-प्रसवा स्त्रियों की तरह गर्भभार में दुहरी नहीं हुई थी पार्वती, सीना तानकर, अपने नुकीले पेट की परिधि को दोनों हाथों में थामे वह डॉ. पैद्रिक के सम्मुख, विद्रोह की जीवित मूर्ति-सी खड़ी हो गयी थी, फिर वह शायद स्वयं ही अपनी अल्प-बुद्धि पर खिसिया गयी थी, ‘‘बुरा मत मानना मेम सा’ब,’’ उत्तेजित कण्ठ-स्वर अचानक अवरोह के स्तर पर उतर आया, ‘‘तुम मेरी माँ हो, क्या ठीक नहीं कर रही हूँ मैं, अपने पाप का फल भोगने, इसे क्यों जीने दूँ !’’
क्षण-भर पूर्व निर्लज्जता से हँसने वाला ढीठ महाकुत्सित रोग-विकृत चेहरा, असह्य दुःख की असंख्य झुर्रियों से भर गया, पलक-विहीन बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू छलक आये। किसी क्रूर हदयहीन आक्रमणकारी शत्रु की भाँति, महारोग ने सौन्दर्य-दुर्ग की धज्जियाँ उड़ा दी थीं, पर ऐतिहासिक दुर्ग के भग्नावशेष में भी जैसे दो सुन्दर झरोखे वैसे-के वैसे ही धरे थे, शत्रु की निर्मम गोलाबारी केवल रेशमी पक्ष्मों को ही झुलसा पायी थी।    
हलद्वानी में अपनी बस के पीछे भागती पार्वती को डॉ. पैद्रिक दस वर्ष पूर्व पकड़कर अपने आश्रम में लायी थीं। तब की पार्वती में और आज की पार्वती में धरती-आकाश का अन्तर था-नुकीली नाक, भरा-भरा शरीर और मछली-सी तिरछी बड़ी-बड़ी आँखों की स्वामिनी पार्वती अब क्या वैसी ही रह गयी थी ? पैरों में केनवास के फटे जूते देखकर ही डॉ. पैद्रिक की अनुभवी आँखों ने रोग का प्रमुख खेमा पकड़ लिया था। अभी हाथ-पैर के अँगूठों पर ही रोग ने कुठाराघात किया था, समझा-बुझा अन्त में पुलिस का भय दिखाकर ही डॉ. उसे अपने साथ ला पायी थीं।
‘‘तेरा यह रोग अभी भी एकदम ठीक हो सकता है, जानती है लड़की ?’’

और उस आकर्षक लड़की ने दोनों हाथों के डुण्ठ, दुष्टता से हँसकर ठीक डॉ. पैद्रिक की नाक के नीचे फैला दिये थे, ‘‘ये अँगुली कहाँ से लाएगा मेम साहब ?’’ दस अँगुलियों में से अवशेष, उन तीन अँगुलियों की गठन निस्सन्देह अनुपम थी-लम्बी, ऊपर से मुड़ी अँगुलियाँ। बहुत पहले जावा में रहती थीं डॉक्टर पैद्रिक, आज इन तीन अँगुलियों को देखकर उन्हें जावा की नर्तकियों की कलात्मक अँगुलियों का स्मरण हो आया, सचमुच ही इस नमूने की अँगुलियाँ गढ़ने में डिकी को कठिन परिश्रम करना होगा, पर डिकी की अद्भुत शक्ति को वह जानती थीं। बैलोर का वह विलक्षण चरक, आज तक कितने ही ग़लत अंशो को पुनः निर्माण कर असंख्य अभिशप्त रोगियों को जीवनदान दे चुका था। उनका अनुमान ठीक था। पार्वती बैलोर से अपनी नक़ली अँगुलियाँ लेकर लौटी तो डॉक्टर पैद्रिक दंग रह गयीं। कौन कहेगा, उन सुघड़ अँगुलियों की बनावट में कलाकार कहीं भी विधाता से पिछड़ा है !
पर पार्वती को ये नयी अँगुलियाँ देकर बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं किया, यह डॉ. पैद्रिक-जैसी बुद्धिमती महिला पहले ही दिन समझ गयीं। भागकर पार्वती न जाने किस-किस से धेला-टका उधार लेकर बाजार से अपनी नयी-नयी अँगुलियों के लिए कई रंग-बिरंगी अँगूठियाँ, मनकों का माला और एक छोटा-सा दर्पण खरीद लायी थी। जब डॉ. पैद्रिक राउण्ड पर गयीं तो वह अपनी खटिया पर दुल्हन-सी सजी-धजी नन्हें दर्पण में अपना मुँह निहारती, मुग्धा नायिका बनी बैठी थी। डॉक्टर का हृदय उस अभागिन के लिए करुणा से भर गया।
‘‘पार्वती,’’ उन्होंने उसकी नकली अँगूठियों से जगमगाती अँगुलियों को सहलाकर कहा था, ‘‘मैं तेरी जगह होती, तो पहले इन अँगुलियों को उस खुदा की बन्दगी में जोड़कर घुटने टेकती, जिसने इन्हें जोड़ने के लायक बना दिया और तुझे पहले इन्हें सजाने की ही पड़ी ?’’
‘‘ही-ही, मेम सा’ब’’-नास्तिक पार्वती को लाख चेष्टा करने पर भी डॉक्टर आस्तिक नहीं बना पायी थी। कठिन असाध्य रोग ने उसे चिड़चिड़ी, निर्लज्ज और ढीठ बना दिया था।
‘‘भगवान, खुदा, ईसामसी, किसी को नहीं मानती हूँ मैं, सब झूठ है। मेरी अँगुलियाँ क्या तुम्हारे खुदा ने ठीक कीं ? जिसने ठीक कीं वह तो हमारी-आपकी तरह ही एक आदमी है मेम सा’ब !’’
डॉक्टर ने फिर कुछ नहीं कहा, पर पार्वती को उन्होंने अपने कमरे की झाडू-बुहारी देने, फूलदानों पर पीतल पॉलिश करने आदि का छोटा-मोटा काम सौंपकर ऐसे बाँधकर रख दिया कि तोबड़ा बँधी जंगली घोड़ी की भाँति वह इधर-उधर मुँह नहीं मार सकती थी। पर धीरे-धीरे उसने अपने तेज़ दाँतों सो तोबड़ा काटकर धर दिया।
डॉक्टर के कठोर अनुशासन से मछली-सी पार्वती न जाने कब फिर अपने परिचित गँदले पोखर में सर्र से सरककर इधर-उधर तैरती फिरने लगी।
पार्वती की ही भाँति असदुल्ला खान कुष्ठाश्रम के पुरुष डॉक्टरों का सबसे बड़ा सरदर्द था। ऊँचा-लम्बा सुर्ख गालों वाला पठान, पहले दिन खून जँचवाने आया, तो कोई निकट से देखने पर भी उसके रोग के अस्तित्व का सूत्र नहीं पकड़ सकता था।
तीखी नाक, तेजस्वी आँखें, चौड़ा माथा और घने काले बाल, जिनका गहरा काला रेशमी रंग, उसके गौर वर्ण को और भी उजला बनाकर प्रस्तुत करता था। फटी सलवार और जर्जर नीली क्रेप की कमीज़ को पहने वह डॉ. पैद्रिक के सम्मुख एक सलाम दागकर खड़ा हो गया था। ‘‘अभी रोग का आरम्भ है खान,’’ डॉक्टर ने कहा था, ‘‘तुम संयम से रहे और यहाँ से भागे नहीं तो जल्दी ही ठीक हो जाओगे। अभी बीमारी ने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है।’’
‘‘और यह ?’’ अपनी भूरी मूँछों के बीच मोती-से दाँत चमकाकर उसने फटा जूता खोल, दोनों पैर डॉ. पैद्रिक के सामने धर दिये थे।
कीमा बनी दोनों अँगुलियों को देखकर डॉक्टर सिहर उठीं और अपनी झुँझलाहट नहीं रोक पायी थीं, ‘आज तक क्या करते रहे तुम ?’’
‘‘पत्थर की खान से खच्चरों पर पत्थर लादता रहा मेम सा’ब’’ बड़ी बेहयाई से वह एक बार फिर अपनी भूरी आकर्षक मूँछों के बीच मुस्कराता, पास खड़ी पार्वती को देखने लगा। चुलबुली पार्वती उसकी इस हाज़िरजवाबी से लोटपोट हो गयी। वह खिलखालाकर हँसी पर दूसरे ही क्षण डॉक्टर की कठोर दृष्टि ने उसे भूँजकर धर दिया, ‘‘पार्वती, तुम अपना काम करो, यहाँ क्या कर रही हो ?’’
उन्होंने उस दिन तो उसे डपटकर भीतर भेज दिया, पर असदुल्ला के सामान्य रूप के क्षत-विक्षत पौरूष का नाग उसे जाने से पहले ही डँस चुका था। लुक-छिपकर उससे मिलती रहती। पर अभागिनी पर्वती यह नहीं जानती थी कि वह सुदर्शन पठान, केवल उसी के सम्मुख प्रणय की झोली नहीं फैलाता। कुष्ठाश्रम की असंख्य गोपियों का एकमात्र कन्हैया असदुल्ला ही था। पठान होकर भी वह विशुद्ध मीठे लहजे में पहाड़ी बोल लेता था। दाड़िम के पेड़ के नीचे बैठकर जब वह एक से एक कठिन पहाड़ी लोकगीतों की धुन अपनी वंशी पर बजाने लगता, तो कोढ़ी-खाने की भीड़ उसे घेर लेती। जैसे वर्षा की वेगवती धारा गन्दे नालों के कचरे को अपने साथ-साथ दूर बहा ले जाती है, ऐसे ही कुछ क्षणों के लिए, कितनी ही बैठी नाक, झड़ी अँगुलियों, पतझड़ के विवश के पत्तों-सी गिरती पलकों की व्यथा असदुल्ला की मादक करुण वंशी-लहरी के साथ बहकर दूर चली जाती, और फ़रमाइशों का बाज़ार ग़रम हो उठता।
‘अरे यार असदुल्ला, हो जाये ज़रा चहगाना-’
           चना वे चकोरा वे चना
                बाँटि ले चना लटि
        तेरो सिपाही घर ऐ रोछौ, वेलिया पोरु वटी।
और असदुल्ला वंशी सहित, स्मृतियों में डूबी चकोरी पार्वती की ओर मुड़कर बार-बार वही पंक्ति दुहराने लगता तो एक साथ कई जूतों के सोल लयबद्ध ताल देने लगते-
      अरी चकोरी चना
        चोटी तो गूँथ ले
   कल तेरा सिपाही घर लौट आया है।
पार्वती का सुदर्शन सिपाही भी शायद घर लौट आया होगा। चकोरी के आँखों से टपटप आँसू गिरने लगते। मुँह फेरकर वह आँसू पोंछ दूसरे ही क्षण अपने आनन्दी चोले में लौट आती, ‘‘इन नक़ली अँगुलियों से क्या चोटी गूँथूँ यारो, और गूँथ भी लूँगी तो मेरा सिपाही क्या अब मेरे लिए बैठा होगा। ?’’
‘‘कोई बात नहीं पार्वती, हम तो बैठे हैं तेरे लिए, ’’ उसका नवीन प्रेमी पूरी बिरादरी के सम्मुख भूरी मूँछों पर ताव देता, दुहरा होता, किसी नाटक के कलाकार की ही भाँति नम्र ‘कर्टसी’ में झुक जाता।
‘‘वाह, वाह !’’
‘‘शाब्बास, क्या बात कही है सवा लाख की।’’ पार्वती लजाकर भाग जाती। उन दोनों की प्रणय रसकेलि पूरी बिरादरी को ज्ञात थी, फिर भी असाध्य रोग की एक-सी व्यथा की एकता से सब ऐसे कसकर बँधे थे कि एक भी खिंचता तो सबके सब साथ ही खिंच जाते। किसी ने डॉ. पैद्रिक से एक शब्द नहीं कहा। कुछ दिनों तक असदुल्ला को कुष्ठाश्रम की चारदीवारी में बन्द रहने में कोई आपत्ती नहीं रही, पर धीरे-धीरे वह लुक-छिपकर रात-आधी रात को खिसक जाता।
‘‘आज मैंने एक बढ़िया पिक्चर देखी पर्वती ! उसमें काम करने वाली छोकरी एकदम तेरी सूरत की है,’’ वह कहता। पार्वती को वह पर्वती कहकर बुलाता था।
‘‘चल हट,’’ पार्वती उसे झिड़क देती, ‘‘इतने पैसे कहाँ से पाता है तू ?’’
‘‘क्यों, असदुल्ला खान के पास पैसों की क्या कमी ? राजा घर मोत्यूँ अकाल ?’’
वह भूरी मूँछों पर ताव देता, पहाड़ी की कहावत से अपनी पार्वती को एक बार फिर निहाल कर देता।
‘‘अभी तो तीन ही खच्चर बेचे हैं, पचास खच्चर चचा जान को सौंप आया हूँ, अगले हफ्ते तुझे तीन तोले की मछलियाँ नहीं बनवा दीं तो मेरा नाम बदल देना। समझी ?’’ झूठ नहीं बोलता था खान, पर पार्वती को उन तीन तोले की रामपुरी मछलियों का गहरा मोल चुकाना पड़ा था। पार्वती की दुरवस्था को भान होते ही असदुल्ला कब चुपचाप खिसक गया; कोई जान ही नहीं पाया। इधर पार्वती के असंयमित जीवन ने, रोग को तीवृता से उभाड़ दिया था। खाई-खन्दक में छिपे कुटिल शत्रु की भाँति उसने एक दिन पार्वती की पीठ में छुरी भोंक दी। रीढ़ की हड्डी की मर्मान्तक व्यथा से वह छटपटा रही थी कि उस पर झुकी डॉ. पैद्रिक ने उसका रोग भी पकड़ लिया। बड़ी देर तक वे हतबुद्धि-सी बैठी ही रह गयीं।
‘‘यह क्या कर बैठी पार्वती ? कौन था वह हृदयहीन ? बताती क्यों नहीं है बच्ची ?’’
पर पार्वती एक शब्द भी नहीं बोली। जिस उठी नासिका के एकमात्र स्तम्भ पर उसके सौन्दर्य का प्रासाद अब तक खड़ा था वह अचानक बैठने लगी थी। आँखों की पीड़ा से कभी-कभी ऐसे व्याकुल हो जाती कि लगता कोई लोहे की सहस्त्र गरम सलाखें उसकी आँखों में घुसेड़ रहा है। उस पर चक्राकार झूमते गर्भस्थ शिशु के अन्धकारमय भविष्य की चिन्ता उसे पागल बना देती। एक दिन उसने स्वयं ही दृढ़ निश्चय कर लिया, पुत्र हो या पुत्री, एक क्षण भी उस अभागे जीव को वह इस पृथ्वी पर साँस नहीं लेने देगी।
अपना वही अमानवीय दृढ़ संकल्प उसने डॉ. पैद्रिक के सम्मुख दुहराया तो वे सिहर उठी थीं। आज वही क्षण आया तो हृदय एक बार फिर उसी आशंका से काँप उठा। निश्चय ही वह पार्वती के शिशु का क्रन्दन था। भरी नींद में, वर्षामुखरित रात्रि को चीरता वही शिशु-स्वर का क्रन्दन उन्हें झकझोर गया था। जैसे नन्हें फेफड़े फाड़-फाड़कर उन्हें चीख-चीखकर पुकार रहा था, ‘बचा लो मुझे, बचा लो।
पहाड़ी आषाढ़ की वेगवती वर्षा की तीव्रतर अंग में सिहरती शर्वरी को चीरती, डॉ. पैद्रिक सहसा एक रुद्ध कण्ठ की चिहुँक सुनकर ठिठककर खड़ी रह गयीं। फिर वे ऐसे दौड़ने लगीं, जैसे बारह बरस की किशोरी हों। पैरों का गठिया, हाथ का आर्थराइटिस, सब कुछ भूल-भालकर गिरती-पड़ती,वे पार्वती की खटिया पर झुक गयीं। उनका अनुमान ठीक था। प्रसव से अकेले जूझती पार्वती क्लान्त होकर एक ओर पड़ी थी और दूसरी ओर थी माँस के लोथड़े-सी नवजात शिशु की निर्जीव देह।
‘‘खतम कर दिया साली को मेम सा‘ब,’’ वह बुझे स्वर में कहती खिसियाकर हँसने लगी। ‘‘एक तो छोकरी जन्मी, उस पर माँ-बाप दोनों साच्छात देवी-देवता।’’
अपने पैशाचिक कृत्य की सफलता पर स्वयं ही प्रसन्न हो, महातृप्ति की एक लम्बी साँस खींच, वह दीवार की ओर मुँह फेरकर लेट गयी। ‘‘हे भगवान् ! अभागी, यह क्या कर दिया तूने ?’’ डॉ. पैद्रिक उसी गन्दगी के बीच बैठ गयीं और अवश निर्जीव पड़ी, सुकुमार शिशु की कागज के फूल-सी हलकी देह को उन्होंने गोद में उठा लिया। नन्हीं-सी छाती पर कान धरे तो धड़कन का आभास पाते ही चौंक उठीं। उनके हाथ की घ़ड़ी की टिकटिक थी या नन्हे कलेजे की धड़कन ?
टिमटिमाते दीये की लौ के पास, उन्होंने दोनों हाथेलियों में उसे टिकाकर ग़ौर से देखा, मुर्ग़ी के चूज़े की-सी गर्दन पर दो अँगुलियों की स्पष्ट छाप फूलकर उभर आयी थी। न जाने क्या सोचकर पार्वती को उसी अवस्था में छोड़ डॉ. पैद्रिक नन्हीं काया को अपनी विशाल छातियों में चिपका, एक बार फिर उसी तेजी से अपने बँगले की ओर भागने लगीं।
रात-भर की वृष्टि के पश्चात तीव्र हवा के तूफ़ान ने, धृष्ट बादलों को रुई की भाँति धुनकर पूरे आकाश में छितरा दिया था। गागर के शैल-शिखर के पीछे अभी भी धुँधले तारे टिमटिमा रहे थे। भोर होने को थी। कब रात बीत गयी, डॉ. जान भी नहीं पायीं। रात-भर अचल बैठी डॉक्टर के लाल आयरिश चेहरे की झुर्रियाँ अचानक खिल उठी थीं। नन्हें शरीर पर रात-भर की गयी ब्राण्डी की मालिश से ही दैवी स्पन्दन इसे हिला-डुला गया था या उस दयालु से घुटने टेककर माँगी गयी भीख ही सार्थक हो गयी थी। पर दया की भीख तो एक इन्हीं प्राणों के लिए नहीं माँगी थी। बार-बार घुटने टेककर बैठी उस सन्त विदेशिनी के झुर्रीदार गालों पर झर-झर कर आसूँ बहने लगते। ‘‘उसे क्षमा करना प्रभु, शायद उसे मैं यहाँ न लाती तो ऐसा न होता, शायद वह सड़कों पर भटकती रहती तो ऐसा भयानक पाप नहीं करती।
‘फो़रगिव दैम लॉर्ड फ़ॉर दे नो व्हाट दे डू’ ?’’ बुदबुदाती, वे कभी अवश पड़ी देह को निहारतीं, कभी छाती पर कान लगातीं। निष्प्रभ काली भवें और पुतलियाँ हिलने लगीं तो डॉक्टर एक बार फिर प्रार्थना में डूब गयीं। बहुत पहले बचपन में उनके मामा ने उन्हें एक ऐसी गुड़िया ला दी थी। ऐसी ही पलकें झपका-झपकाकर आँखें खोलती और बन्द करती थी वह ! ‘‘मेरी बच्ची,’’ डॉ. ने उसे गोदी में उठाकर चूम लिया।
‘‘नहीं, अब देरी करना ठीक नहीं है,’’ वे स्वयं ही बड़बड़ाने लगीं, ‘‘थोड़ी ही देर में पूरा आश्रम जग जाएगा। जगा आश्रम यही जानेगा कि पार्वती ने कल रात एक मृत शिशु को जन्म दिया था, डॉ. अकेली ही जाकर अभागी को कहीं गाड़ आयी हैं।’’
अपने क्रोशिया के रंग-बिरंगे शाल में बच्ची को लपेट, उन्होंने अपने लम्बे कोट के भीतर छिपा लिया और एक बार फिर बाहर निकल पड़ीं।
बार-बार उनका कलेजा धड़कता मुँह को आ रहा था। यदि उसने नहीं स्वीकारा तब ? कहाँ रखेंगी इसे ?
इस घृणात्मक वातावरण में, इस दूषित हवा के झोंके में, जहाँ एक-एक हवा का झोंका सहस्त्र घातक कीटाणुओं को बिखेरता जाता है, वहाँ इस सुकुमार जीवन को क्या वे सुरक्षित रख पाएँगी ? पर वे इतना क्यों सोच रही थीं, आज क्या कुष्ठाश्रम में यह प्रथम शिशु का जन्म था ? क्या इससे पूर्व कई नवजात शिशु वे मिशन में नहीं भेज चुकी हैं ? तब इसके मोह का बन्धन तोड़ने में वे आज क्यों कल्प-विकल्प के जाल में फँसी जा रही हैं ?
एक बार उनकी छाती से लगी नन्हीं देह काँपी और साथ वे भी काँप उठीं।
कहीं फिर कुछ हो तो नहीं गया। कोट का कॉलर उठाकर उन्होंने झाँका। काले झबरे बालों के बीच चमकते माथे पर, कन्धे झाड़ रहे देवदार वृक्ष से एक बूँद वर्षा की पड़ी। चिहुँककर, छोटे-से होंठ काँपे। डॉ. ने उसे और जोर से छाती से चिपक लिया।
कैसी नीरव निस्तब्ध रात्रि थी। एक तो उस निर्जन सड़क पर सन्ध्या होते ही सन्नाटा छा जाता था, उस पर आज ऐसी वर्षा में भला कौन घूमने बाहर निकलता ? लाल छत के बँगले को पहचानकर डॉक्टर ने द्वार खटखटाया। कोई उत्तर नहीं आया।
हवा चली और साथ ही देर से टहनियों पर संचित, वर्षा की कई बूँदें एक साथ झरकर डॉक्टर पैद्रिक पर बरस पड़ीं। डॉक्टर ने जोर की दस्तक दी।
‘‘कौन ?’’ बड़ी दूर से तैरता किसी का कण्ठ- स्वर आया।
‘‘पन्ना, मैं हूँ रोज़ी, द्वार खोलो।
‘‘रोज़ी ? तुम इतनी रात को ? आओ-आओ, राम-राम, तुम  तो एकदम ही भीग गयी हो। रुको, मैं लैम्प जला लूँ। ’’ एक कुरसी टटोलकर डॉक्टर के सामने खिसकाकर पन्ना लैम्प जलाने लगी।
लैम्प के धीमे प्रकाश में, पहले वह केवल उस गम्भीर चेहरे को ही देख पायी, पर धीरे-धीरे दो असीम वेदनापूर्ण क्लान्त बड़ी आँखों की करुण दृष्टि उस विशाल वक्ष से चिपकी नन्ही देह पर उतर आयी।
यह क्या ?
एक प्रकार से लड़खड़ाती पन्ना पलँग का पाया पकड़कर बैठ गयी।
सात दिन पहले, उसकी शून्य बाँहों से यही डॉक्टर पैद्रिक, जिसे सफ़ेद कपड़े में लपेटकर निर्ममता से कहीं दूर गाड़ने ले गयी थी, उसे ही क्या फिर गढ़े से निकाल लायी ?
क्या पता फिर उस निर्जीव देह में प्राण लौट आये हों ?
‘‘रोज़ी कहाँ से लायी इसे ? क्यों मुझसे छीन ले गयी थी ? क्यों तड़पाया मुझे सात दिनों तक ?’’ एक बार फिर पन्ना वैसी ही हिस्टिरिकल होने लगी। डॉक्टर ने बिना कुछ कहे कुनकुनाती बच्ची को पन्ना की गोद में डाल दिया।
‘‘बहुत भूखी है पन्ना, दूध अभी उतर रहा है क्या ?’’
अनाड़ी हाथों से मृतवत्सा पन्ना ने उसे छाती से चिपका लिया। ब्रेस्ट पम्प से सुखायी गयी मातृत्व की सूखी लता फिर पल्लवित हो उठी। चप-चप कर अमृत की घूँटें घुटकती काया को छाती से चिपकाकर पन्ना ने आँखें मूँद ली थीं और पागलों की भाँति स्वयं ही बड़बड़ा रही थी। ‘‘यह तो तुम्हारा सरासर अन्याय है रोज़ी, यह भी कैसा मजाक था भला ! तुमने इतने दिनों तक एक शब्द भी नहीं कहा, हाय मेरी बच्ची को सात दिनों तक बिना दूध के भूखा मार दिया है तुमने...’’
कुष्ठाश्रम का ग्वाला जिस गाय को दुहने लाता था, एक बार उसकी बछिया मर गयी थी, दूसरे ही दिन वह भूसा-भरी बछिया को गैया से टिकाकर फिर दूध दुहने आ गया था। डॉक्टर पैद्रिक को लगा, भूसा भरी बछिया ही उन्होंने भी आज पन्ना से सटा दी है, उनकी आँखें डबडबा आयीं। ‘‘पन्ना, माई डार्लिंग,’’ बड़े मीठे स्वर में उन्होंने पन्ना को पुकारा, ‘‘सवेरा होने को है, मुझे अभी लौट जाना होगा।’’
पन्ना ने आँखें खोल दीं और सहमी दृष्टि से डॉक्टर को देखा, न जाने किस आशंका से वह काँप उठी। कहीं फिर तो नहीं छीन लेगी इसे ?
‘‘मैं तुमसे झूठ नहीं बोली थी पन्ना,’’ वे रुक-रुककर कहने लगीं, ’’यह तुम्हारी बच्ची नहीं है।
भूखी बच्ची तृप्त होकर अभी भी उसकी छाती से लगी थी। होंठों से स्तन स्वयं छूट गये थे।
पन्ना शायद चौंककर पूछेगी-क्या ? मेरी नहीं है ? किसकी है तब ?
पर पन्ना ने कुछ भी नहीं पूछा। इतनी देर तक आँखें बन्द कर वह अपनी सूक्ष्म दृष्टि से सब कुछ देख चुकी थी।
‘‘पन्ना,’’ डॉक्टर पैद्रिक ने फिर पुकारा।
‘‘क्या है रोज़ी ?’’ शान्त स्वर में पूछे गये प्रश्न और आँखों की स्थिर दृष्टि में न जिज्ञासा थी न कौतूहल।
‘‘यह क्या पार्वती की बच्ची है रोज़ी ?’’ उसने पूछा तो डॉक्टर पैद्रिक जैसे आकाश से गिर पड़ीं। कैसे जान लिया इसने। क्या मन की भाषा भी पढ़ लेती है यह विलक्षण नारी।
उत्तर में डॉक्टर ने सिर झुका लिया। रोगी की ऐसी बीभत्स अवस्था में जन्मी उस बच्ची को उन्होंने पन्ना की गोदी में डाला ही किस दुस्साहस से। पन्ना पार्वती को ही नहीं असदुल्ला को भी जानती है। कई दिनों तक वह उसके बगीचे में माली का काम करता था। डॉक्टर पैद्रिक ने अपनी ही सखी के यहाँ उसकी ड्यूटी लगा दी थी। ‘‘इसकी रिपोर्ट निगेटिव है पन्ना, इससे चाहो तो हाट बाजार का भी काम ले सकती हो। ’’ पर लाख हो, था तो कुष्ठ रोगी ही। समाज इन अभागों की निगेटिव रिपोर्ट को क्या आज तक मान्यता दे पाया है ?   
       ऐसे माता-पिता की अभिशप्त सन्तान क्या इस कदर गोदी में स्थान पा सकेगी ? निश्चय ही दूर पटक देगी पन्ना।
‘‘मैं इसे मौत के मुँह से खींचकर लायी हूँ,’’ डॉक्टर का गला भर आया था।

‘‘तुम्हें तो बता ही चुकी थी, वह मूर्ख लड़की पहले ही ऐलान कर चुकी थी। पता नहीं कब उसे दर्द उठा और कब यह हो गयी। इसकी चीख सुनकर मैं भागी। जब तक पहुँची, शैतान उस पर सवार हो चुका था। अभी भी गरदन पर उसकी अँगुलियों के निशान बने धरे हैं। अगर इसे कुछ हो जाता तो मैं खुदा को क्या मुँह दिखाती, मैंने ही तो उसे ये नयी अँगुलियाँ दी थीं। तब मैं क्या जानती थी वह इनसे एक दिन एक नन्हीं जान का खात्मा करने पर उतारू हो जाएगी।
पन्ना एक भी शब्द नहीं बोली। बच्ची उसकी छाती से लगी, चुपचाप पड़ी थी।
‘‘मैं जानती हूँ कि इसके माँ-बाप को एक बार देख लेने पर, कोई कितना ही उदार हृदय क्यों न हो, शायद ही इसे स्वेच्छा से ग्रहण कर पाएगा। पर मैं तुम्हें जानती हूँ पन्ना, इसी से तुम्हारे पास बड़ी आशा से आयी हूँ। एक तो यह समय से पूर्व हुई है। माँ का दूध न मिलने पर यह कभी नहीं जी पाएगी। एक वर्ष तक भी तुम इसे पाल दो तो मैं फिर इसे मिशन को दे दूँगी। एक बात और कहना चाहती थी पन्ना...’’

डॉक्टर का खिसियाया कण्ठ-स्वर क्षमा-याचना-सी करने लगा, ‘‘यह रोग पैतृक ही होता है, ऐसी धारणा गलत है। मेरे पास कई कुष्ठ रोगियों की स्वस्थ सन्तान का पूरा रिकार्ड धरा है।’’
पन्ना गहरे सोच में डूबने-उतराने लगी थी। कैसा अनुभूत स्पर्श था ! वही गुदगुदी देह, मखमली होंठों की गुदगुदी लगने वाली सिहरन, एक असह्य टीस और फिर स्वर्गिक शान्ति। अचानक छाती में बँधी सब गिल्टियाँ जैसे किसी ने सोख ली थीं।

रात-भर की थकान, मानसिक अशान्ति और पन्ना की चुप्पी से डॉक्टर सहसा झुँझला उठीं। कुछ कहती क्यों नहीं यह ? कुछ तो कहे, हाँ या ना।
‘‘पन्ना,’’ वे फिर कहने लगीं, ‘‘मुझे लगता है ईश्वर ने शायद इसी महान् पुण्य का भागी बनने यहाँ भेजा है। क्यों, है न ?’’
पन्ना हँसी। कैसी अपूर्व रहस्यमयी मुस्कान थी उसकी ! व्यथा से नीले उन होंठों के बंकिम खिंचाव में व्यंग्य था या उल्लास ? क्या वह मन-ही-मन डॉक्टर पैद्रिक की हँसी तो नहीं उड़ा रही थी ? शायद सोच रही हो, कैसे चतुर होते हैं ये मिशनरी ?
पन्ना कहीं उसे ग़लत न समझ बैठे। डॉक्टर पैद्रिक का कण्ठ स्वर फिर गम्भीर हो उठा, ‘‘पन्ना, मैं तुमसे झूठ भी बोल सकती थी,’’ लैम्प के धुँधले प्रकाश में वह तेजस्वी चेहरा एकदम निर्विकार लग रहा था, ‘‘कह देती कि तुम्हारी जिस बच्ची को मरी समझकर गाड़ने ले गयी थी, वही फिर जी उठी। एक ही दिन तो तुम उसे देख पायी थीं, फिर नवजात शिशु प्रायः सब क्या एक-ही-से नहीं होते ? ऐसे ही घने बाल उसके भी थे, और ऐसी ही आँखें ! पर मैं तुमसे झूठ बोलकर इसके प्राणों की भीख माँगने नहीं आयी हूँ। मैं चाहती हूँ तुम इसके जीवन के अभिशाप के साथ ही इसे स्वीकार कर सको। करोगी ना ?’’
डॉक्टर ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये। पन्ना फिर भी कुछ नहीं बोली।
तीन महीने की छोटी-सी अवधि में ही यह सर्वस्वत्यागिनी विदेशी डॉक्टरनी उसके कितने निकट आ गयी थी। इस अनजान निर्जन जंगल में, जब वह सर्वथा अपरिचित लोगों के बीच एकदम अकेले रहने आयी, तो कितने ही शंकालु नयनबाण उसे निर्ममता से बींधने लगे थे।
कौन हो सकती थी वह ? कैसी विचित्र स्वभाव की स्वामिनी थी यह आसन्नप्रसवा सुन्दरी प्रौढ़ा ? माँग में सिन्दूर, पैरों में बिछुवे, पर न साथ में पति, न सास, न कोई नौकर, ऐसी अवस्था में, शहर में न रहकर इस एकान्त बँगले में, क्या दिखा होगा उसे ? न कहीं जाती, न कहीं उठती-बैठती। कभी-कभी लोग देखते वह रामकृष्ण मिशन की ओर चली जा रही है और कभी कुष्ठाश्रम की ओर। पहले मकान मालिक शाहजी कुछ-कुछ भड़क उठे थे। क्या पता कुष्ठरोगिणी ही हो। आश्रम में रहने पर कहीं रोग का भेद न खुल जाए, शायद इसी से बँगला ले लिया हो। लुक-छुपकर डॉ. पैद्रिक से मन की शंका का समाधान करने शाहजी पहुँचे, तो हँसने लगी थीं, ‘‘नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, मेरी परिचित है, इसी से मुझसे मिलने आती है।’’
जब डाक्टर ने पन्ना को शाहजी की शंका बतायी तो वह बड़ी देर तक हँसती रही थी। ‘‘कहीं तुमने यह तो नहीं कह दिया उससे कि शरीर का तो नहीं, मन का यही रोग है मुझे !’’ ऐसी गलित आत्मा की बीभत्स रोगिणी को जानने पर शायद शाहनी दूसरे ही दिन झाड़ मारकर भगा देगी। रोज़ी न होती तो वह कैसे रह पाती ? प्राय

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