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पौराणिक कथाएँ >> वीर अभिमन्यु

वीर अभिमन्यु

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3953
आईएसबीएन :00000

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वीर बालक के महान पराक्रम की अमर गाथा....

Veer Abhimanyu

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अर्जुन-सुभद्रा विवाह

सुभद्रा थी बहन श्रीकृष्ण की। अर्जुन ने वनवास के समय श्रीकृष्ण की प्रेरणा से ही रैवतक पर्वत पर यादवों के उत्सव से सुभद्रा का हरण किया था। बाद में अर्जुन और सुभद्रा का द्वारका में विधिवत विवाह संस्कार हुआ। माता कुंती, भाइयों और द्रौपदी ने सुभद्रा का हार्दिक स्वागत किया। सबसे पहले सुभद्रा ने माता कुंती के चरण स्पर्श किए।
बाद में सुभद्रा ने द्रौपदी के पैर छूकर कहा, ‘‘बहन ! मैं तुम्हारी दासी हूं।’’

‘‘नहीं बहन ! तुम दासी नहीं, मेरी छोटी बहन हो।’’ द्रौपदी ने प्रेम से सुभद्रा के सिर पर हाथ फेरा।
माता कुन्ती ने अर्जुन से कहा, ‘‘अर्जुन ! आज ही संदेशवाहक को द्वारका भेजकर अपने सकुशल इन्द्रप्रस्थ पहुंचने का समाचार भेज दो।’’
‘‘अवश्य माताश्री !’’ अर्जुन ने हाथ जोड़कर माता को नमन किया।
उन दिनों पाण्डव हस्तिनापुर छोड़कर अपने हिस्से में आए खाण्डव-वन को साफ करके इन्द्रप्रस्थ राज्य बनाकर रह रहे थे।

चक्रव्यूह-भेदन कथा का श्रवण


एक रात सुभद्रा ने अर्जुन से चक्रव्यूह के बारे में पूछा। अर्जुन ने जब चक्रव्यूह की संरचना के बारे में बताना शुरू किया तो पहले सुभद्रा सबकुछ बड़े ध्यान से सुनती रहीं, लेकिन अंतिम क्षणों में जाकर, जहां सातवें चक्र के भेदन का रहस्य अर्जुन बता रहा था, वह सो गई। वह बेचारी क्या जानती थी कि भविष्य में यह सोना उसके लिए और उसके अपनों के लिए कितना कष्टप्रद होगा। उसके गर्भ में से उस समय अर्जुन का तेज पल रहा था।

समय आने पर सुभद्रा ने स्वस्थ-सुंदर पुत्र को जन्म दिया। पांडवों ने दिल खोलकर दान दिया। दास-दासियों में खूब धन बांटा। राजमहल में मानो एक बार फिर से जीवन दौड़ने लगा।
यह समाचार द्वारका में श्रीकृष्ण को भी दिया गया।

नामकरण-संस्कार


भगवान श्रीकृष्ण बालक के जन्म का समाचार पाकर बहुत प्रसन्न हुए। वे और बलराम जी अपने साथ चार घोड़ों से युक्त, चतुर सारथियों से सुसज्जित स्वर्णजड़ित एक सहस्र रथ लेकर इंद्रप्रस्थ पहुंचे। उनके साथ मथुरा की दस हजार गौएं, एक हजार सफेद रंग की स्वर्ण अलंकारों से सजी हुई घोड़ियां, एक सहस्र चतुर दासियां, दस भार सोना, बहुमूल्य वस्त्र, एक हजार मदमस्त हाथी भी थे।

राजभवन में बालक का नामकरण-संस्कार भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी की उपस्थिति में किया गया। राज पुरोहित ने बालक का नाम ‘अभिमन्यु’ रखा। श्रीकृष्ण ने ही बालक के अन्य जात- कर्म किए और अपनी बुआ कुंती से कहा, ‘‘बुआ ! अभिमन्यु की शिक्षा-दीक्षा का भार मैं अपने ऊपर लेना चाहता हूं।’’
‘‘जो तुम्हें उचित लगे, वह करो कृष्ण।’’ कुंती ने प्रसन्न होते हुए कहा।

द्रौपदी के पांच पुत्र


अभिमन्यु के जन्म के उपरान्त पांचों पांडवों के द्वारा द्रौपदी के गर्भ से एक-एक वर्ष के अंतराल से पांच पुत्र हुए। युधिष्ठिर से ‘प्रतिविंध्य’, भीमसेन से, ‘सुतसोम’, अर्जुन से ‘श्रुतकर्मा’, नकुल से ‘शतानीक’ और सहदेव से ‘श्रुतसेन’ का जन्म हुआ।
बालक अभिमन्यु अपने पांच भाइयों को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह उनके साथ तरह-तरह के खेल खेलता और उन्हें खूब अपने पीछे-पीछे दौड़ाता। द्रौपदी और सुभद्रा अपने बालकों को देखकर फूलीं नहीं समाती थीं।
सुभद्रा टोकती, ‘‘अभि ! अपने भाइयों को तंग मत करो। गिर पड़ेंगे।’’
द्रौपदी तत्काल सुभद्रा को रोक देती, ‘‘रहने दो सुभद्रा ! कुछ नहीं होगा। क्षत्रिय पुत्र हैं। गिरेंगे नहीं तो उठेंगे कैसे ?’’

अभिमन्यु की द्वारका यात्रा


उन्हीं दिनों भगवान श्रीकृष्ण का इंद्रप्रस्थ आगमन हुआ था। उन्होंने अर्जुन के सामने सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने साथ द्वारका ले जाने का प्रस्ताव रखा। जिसे अर्जुन ने माता कुंती और बड़े भाई युधिष्ठिर की अनुमति लेकर सहर्ष स्वीकार कर लिया।
सशस्त्र यादव वीरों की एक टुकड़ी के साथ श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और भांजे अभिमन्यु को साथ लेकर रथ में सवार हो गए।

‘‘अच्छा अर्जुन ! अब हम चलते हैं। अभिमन्यु की शिक्षा-दीक्षा का उत्तरदायित्व अब मुझ पर है। उसे बुलाने की तुम अब जल्दी न करना। श्रीकृष्ण ने रथ में बैठे-बैठे कहा।’’
‘‘नहीं करूंगा। लेकिन सुभद्रा को तो शीघ्र भेज देना।’’ अर्जुन मुस्कराया।


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