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पौराणिक कथाएँ >> शकुन्तला

शकुन्तला

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3955
आईएसबीएन :00000

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ऋषि पुत्री के प्रेम,दृढ़ और त्याग की ह्रदयस्पर्शी गाथा....

Shakuntla

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इंद्र का भय

राजर्षि-विश्वामित्र की कठोर तपस्या से इंद्रासन डोल उठा। देवराज इंद्र भयभीत हो उठे। देवराज को भय था कि विश्वामित्र इंद्रासन की प्राप्ति के लिए तो तप नहीं कर रहे। देवराज की शांति उड़ गई। विश्वामित्र का तप भंग करना उनके लिए आवश्यक हो गया। इंद्रलोक की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी और सभी काम कलाओं से प्रवीण अप्सरा मेनका को बुलाकर देवराज ने आदेश दिया, ‘‘मेनका, जिस तरह भी हो सके, राजर्षि विश्वामित्र के तप को तुम्हें भंग करना ही है। यह तुम्हारे कौशल की परीक्षा है। इस कार्य के लिए तुम्हें इंद्रलोक के सभी बंधनों से मुक्त किया जाता है।’’
मेनका ने विश्वामित्र की तपस्थली पहुंचकर अपना कार्य प्रारंभ कर दिया।

तपस्या भंग


शुरु-शुरु में तो मेनका के सभी अस्त्र-शस्त्र निरर्थक सिद्ध हुए, लेकिन उसने भी हार न मानी। काफी प्रयास के बाद आखिर मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने में सफल हो ही गई। मेनका के रूप-सौंदर्य को देखकर ऋषि विश्वामित्र मोहित हो गए। उन्होंने मेनका के सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए निकट आने को कहा।
मेनका ने ऋषि पर अपनी बांकी चितवन से कटाक्ष किया, ‘‘आपके जैसा तेजस्वी पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा। मैं मेनका हूं और आप से रतिदान की इच्छा रखती हूं।’’
‘‘तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी मेनका !’’ विश्वामित्र ने उसकी आंखों में झाँकते हुए कहा, ‘‘राज भोगों को छोड़कर आने वाले विश्वामित्र का हृदय तुम्हें देखकर आज फिर से विचलित हो उठा है। मेरी कुटिया में तुम्हारा स्वागत है।’’

शकुन्तला का जन्म


विश्वामित्र और मेनका का मिलन भोग और योग का मिलन था। इन दोनों के प्रेम के परिणामस्वरूप एक कन्या का जन्म हुआ। वह अभी तीन माह की थी कि मेनका को देवराज इंद्र का संदेश प्राप्त हुआ, ‘‘तुम्हें विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा गया था। तुम्हारा कार्य समाप्त हो चुका है। अब तुम इंद्रलोक आ जाओ, यह हमारा आदेश है।’’
मेनका जानती थी कि यदि आज्ञा का पालन न किया तो उसकी बच्ची के साथ कोई अनर्थ हो सकता है, क्योंकि दंभी और भोगी व्यक्ति का कोई अपना नहीं होता।
ऋषि विश्वामित्र तप करने वन जा चुके थे।
मेनका ने अपनी बच्ची को शकुंत-पक्षियों के हवाले किया और न चाहते हुए भी इंद्रलोक को चली गई।

कण्व ऋषि के हाथों में शकुंतला


थोड़ी देर बाद ही उधर वन में से गुजरते हुए महर्षि कण्व और उनके शिष्यों की दृष्टि उस बच्ची पर पड़ी। शकुंत पक्षी उस बच्ची की रक्षा कर रहे थे। महर्षि को अपनी ओर आते देख उन्होंने राह दे दी। महर्षि कण्व ने करुणा से द्रवित होकर बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया। वे अपने एक शिष्य से बोले, ‘‘सनातन ! देखो तो कितनी प्यारी बच्ची है। पता नहीं कौन निष्ठुर मां है, जो इस फूल-सी बच्ची को यहां इस निर्जन वन में छोड़ गई है।’’
‘‘यहां आसपास कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है।’’ सनातन ने उत्तर दिया।
‘‘शकुंत पक्षियों ने इसकी रक्षा की है।’’ महर्षि कण्व बोले, ‘‘इसलिए मैं इसे शकुंतला कहकर पुकारूंगा और अपने आश्रम में इसे पालूंगा।’’
‘‘सुंदर विचार है गुरुदेव !’’ सनातन बोला, ‘‘आश्रम के बालक-बालिकाओं को एक खिलौना भी मिल जाएगा।’’

शकुंतला महर्षि कण्व के आश्रम में


महर्षि कण्व शकुंतला को मालिनी नदी के तट पर बने आश्रम में ले आए। उनके आश्रम में अनेक ऋषिगण यज्ञशाला में अग्निहोत्र किया करते थे। सुंदर-सुंदर पुष्पों से लदे पौधों और जलाशयों के कारण उनके आश्रम की शोभा अद्भुत जान पड़ती थी। पक्षियों का कलरव, हरिण शावकों की उछल-कूद, भौरों का गुजार और आश्रम के बालक-बालिकाओं की चहल-पहल से आश्रम अनुपम सौंदर्य से मंडित दिखाई पड़ता था।
बच्चों और आश्रम की स्त्रियों ने महर्षि कण्व की गोद में सुंदर बच्ची को देखा तो सभी ने महर्षि को घेर लिया।
‘‘यह किसकी बच्ची है गुरुदेव ? बड़ी सुंदर है।’’ एक बोली।
‘‘देखो तो, कैसी मुस्करा रही है।’’ दूसरी बोली।
‘‘इसे मुझे दीजिए गुरुदेव !’’ तीसरी बोली, ‘‘मैं इसे पालूंगी।’’
‘‘यह शकुंतला है मालिनी।’’ महर्षि कण्व ने उस स्त्री से कहा, ‘‘आज से तुम इसकी मां हो। यह मेरी बेटी है। इसका पूरा ध्यान रखना।’’
महर्षि ने बालिका को उसकी गोद में दे दिया।


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