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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

10


भवेश के यहाँ से निकलकर सौम्य और ब्रतती बगल-बगल चलते-चलते रुक गये। सौम्य ने पूछा, “तुम्हें घर लौटने की बहुत जल्दी तो नहीं है?" .

ब्रतती ने उसकी तरफ़ देखकर कहा, “मेरी बात तो जानते ही हो। घर में कोई भी देर से लौटने पर मुझे डाँटता नहीं है। केवल खामोश निगाहों से भर्त्सना करते हैं।”

सौम्य मुस्कराया। "इसके मतलब डाँट से कहीं ज्यादा भयंकर होती है यह भर्त्सना। है न?” "शायद ! खैर "बात क्या है? रुके क्यों?

"बात कुछ खास नहीं। सोच रहा था कहीं बैठकर एक कप चाय पीते तो सचमुच अच्छा लगता।"

“यहाँ कहाँ पीओगे?? “यहाँ नहीं। थोड़ा चलते हैं।" ब्रतती बोली, “चलो।"

चलते-चलते सहसा सौम्य बोल उठा, "भवेशदा का केस तुम जानती हो ब्रतती?" सौम्य की आवाज़ में उदासी थी।

वही उदासी के चिह्न व्रतती के चेहरे पर, आवाज़ में भी स्पष्ट थे। बोली, “अनुमान लगाकर समझ सकी हूँ।"।

“और वह हैं कि इस बीमारी को फूंक मारकर उड़ा देना चाहते हैं।"

ब्रतती बोली, “मुझे लगता है भवेशदा ठीक से समझे नहीं हैं, इसीलिए उसे इतना महत्त्व नहीं देना चाहते हैं।”

सौम्य हँसा। बोला, “हन्ड्रेड पर्सेण्ट समझे हैं। और यह भी जानते हैं कि कैंसर को दबाने की कोशिश की तो और भड़क उठेगा। इसीलिए उसके साथ छेड़छाड़ न करके अपना काम करते रहना चाहते हैं।"

"लेकिन सौम्य, फर्स्ट स्टेज में पकड़ में आ जाये तो.."

“वह सब फुसलानेवाली बातें हैं, ब्रतती। फर्स्ट स्टेज में तो पकड़ ही में नहीं आता है कोई भी लक्षण नहीं पकड़ में आते हैं। और जव पकड़ में आते हैं तब कुछ करने को बाक़ी नहीं रहता है।"

“भवेशदा को कभी ऐसा होगा, मैं तो सोच भी नहीं सकती थी।" "इसके बाद किस तरह काम आगे बढ़ सकेगा?" उदास होकर सौम्य ने लम्बी साँस छोड़ी।

"फिर भी चलाना होगा। हमारे देश में ज्यादातर काम एक ही इन्सान पर निर्भर होता है इसीलिए उसके मरते ही प्रतिष्ठान भी मर जाता है।"

धीरे से ब्रतती बोली, “सबके भीतर आग कहाँ होती है? वे दूसरों की आग से आलोकित होते हैं। उतनी ही उनकी कर्मशक्ति होती है।"

सौम्य बोला, “शायद।” फिर बोला, “अब चाय पीने की इच्छा नहीं हो रही है लेकिन तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?"

ब्रतती हँस दी, “अवश्य ही चाय का प्रस्ताव मेरी ओर से नहीं आया था।" “तब फिर चला जाये?' “नहीं, कहीं बैठना सम्भव भी नहीं।"

“कभी कहीं दो युवक-युवती को पास बैठा देख लिया तो हज़ारों निगाहें उठ जाती हैं। इससे कहीं ज़्यादा निश्चिन्तता रहती है भीड़ के बीच बगल-बगल चलने में।"

“आश्चर्य की बात है न?”

“यह तो नारी-मुक्ति का समय है। स्त्री-पुरुष साथ-साथ काम कर रहे हैं। फिर भी दो नर-नारी एकत्र हुए नहीं कि गैर तो गैर, स्वयं को ही अजीब-सा लगने लगता

चलते-चलते बस रूट पर आ गये।

ब्रतती ने पूछा, “क्या करोगे? और चलोगे?

"नहीं, रहने दो। चलो बस पकड़ते हैं।"

यह बस ब्रतती के घर तक जाती है, सौम्य का भी थोड़ा रास्ता कवर हो जाता है। वे बस पर चढ़े।

दोनों को खड़े रहना पड़ा यद्यपि अगल-बगल नहीं। ब्रतती कब लोगों की दीवार भेदकर उतर गयी, सौम्य देख भी नहीं पाया।

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