उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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"तो क्या इसी तरह से चलता रहेगा?” पूर्णेन्दु की पत्नी अलका ने देखा और चुपचाप वहाँ से चली गयी।
ब्रतती बोली, “शायद ज़्यादा दिनों तक नहीं चलेगा।"
"इसके मतलब?'
"मतलब कुछ नहीं। माँ कहाँ हैं?"
"माँ कहाँ जायेगी? उनके पास तो पतितोद्धार का काम नहीं है।" अलका कमरे में चली गयी।
ब्रतती माँ के कमरे में अर्थात् अपने और माँ के कमरे में आयी। देखा, माँ मुँह फुलाये गुमसुम बैठी हैं।
लड़की को देखकर भी कुछ नहीं बोलीं। ब्रतती ने भी कुछ नहीं कहा, सीधे नहाने चली गयी।
देर तक शरीर पर पानी डालने के बाद जब निकली तब मन और शरीर दोनों ही तरोताज़ा और स्निग्ध लग रहे थे।
आकर देखा, माँ तब भी वैसी ही बैठी हैं। बोली, “माँ, बहुत नाराज़ हो?'
दरवाज़ा खोलकर एक बार ब्रतती के चाचा पूर्णेन्दु ने देखा। किसी तरह की बात नहीं की। ‘अवलोकन करने' की तरह एक बार भतीजी को आपादमस्तक देखने के बाद 'अवाटटर्न हुए और कमरे में चले गये।।
अपने कमरे में आते-आते ब्रतती ने चाची की आवाज़ सुनी, “आज तो फिर भी जल्दी आयी है जी।"
हड्डियाँ सुलग उठने के लिए इतना काफ़ी था। लेकिन इतनी-सी बात पर हड्डियाँ सुलगायी जायें तो अब तक ब्रतती की हड्डियाँ जलकर राख हो चुकी होतीं।
अपना कमरा माने माँ का कमरा। जिसको वर न मिले उसे कमरा क्या मिलेगा?
वर नहीं कमरा नहीं। पढ़ती थी जब तक अपने कमरे के नाम पर एक पढ़ने का कमरा था। इस समय उस पर चचेरे भाई-बहनों का अधिकार है। वे उसी कमरे में पढ़ते हैं। हर शाम मास्टर पढ़ाने आते हैं।
हालाँकि उस समय चाची ने दीवारों को सुना-सुनाकर कहा ज़रूर था, “घर में जीती-जागती स्कूल की बहनजी के होते हुए भी तनख्वाह देकर मास्टर रखना पड़ रहा है। इसी को भाग्य कहते हैं।"
बात-बात पर भाग्य को कोसना चाची की हॉबी है।
हाँ, ब्रतती एक स्कूल में पढ़ाती है। परन्तु बाकी बचा समय तो उसने भवेशदा की समिति को समर्पित कर दिया है। फिर उन्हें पढ़ाकर सुख मिल सकता है कभी? जब वे छोटे थे तब कोशिश की थी परन्तु चचेरी बहन इतनी शैतान थी कि पाठ याद भी नहीं करती थी और टें-टें करके रोती हुई जब-तब चाची के पास पहुँच जाती। कहती, “दीदी मारती है।"।
इस पर भला स्नेहमयी माँ कैसे चुप रहतीं? कह दिया, “रहने दो, तुम्हें पढ़ाने की ज़रूरत नहीं है।"
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