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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

लाबू के पत्र का सारांश ही था-भगवान की कृपा से (जीवन भर भगवान की निर्दयता देख-देखकर भी न जाने कैसे लोग भगवान की दया पर मोहित हो जाते हैं।) उसके बड़े लड़के को बी. ए. पास करते ही कलकत्ते में एक नौकरी मिली है। हालाँकि केवल बी. ए. ही पास किया है। खैर, उसे नौकरी तो मिली है। पर अब समस्या है हर रोज़ हुगली से डेली पैसेंजरी करना। आज के इस गड़बड़ माहौल में बड़ा ही मुश्किल है बल्कि असुविधाजनक भी। अक्सर ही तो ट्रेनें ठप्प होकर खड़ी रहती हैं। उस पर कलकत्ते के मेस में रहकर अपना खर्च चलाते हुए माँ को घर पर रुपया भेजना भी तो असम्भव है। फिर एक अच्छे-भले घर के लड़कों के रहने योग्य मेस में सीट मिलना भी तो कम कठिन नहीं। इसीलिए वह अपने बेटे को प्रवासदा के पास भेज रही है। उनके पास रहकर दफ़्तर आना-जाना करेगा तो अनेकों समस्याओं का समाधान खुद-ब-खुद हो जायेगा।

प्रवासदा के घर में रहने की जगह का अभाव भी नहीं है। लाबू तो देख गयी है, कितने कमरे हैं। रही खर्च की बात? वह लाबू अपने प्रवासदा को लिखकर शर्मिन्दा करना नहीं चाहती है। लड़का खुद समझदार है कम खर्चे में वह काम चला लेगा।

जवाब पाने का 'समय' है नहीं "अतएव वह अगले सोमवार को ही जा रहा है उसी दिन उसकी ज्वाइनिंग डेट है।

लाबू ने और लिखा है- “बुद्ध लड़का अमीर मामा के यहाँ जाने से डर रहा है इसीलिए सस्ते मेस के लिए बार-बार ज़िद कर रहा है। मैंने भरोसा दिलाया है-आदमी अमीर ‘दूसरे अर्थ' से होता है। तुम जाओगे तो खुद देख लोगे प्रवास मामा ऐसे नहीं  लाबू लिखती साफ़ और स्पष्ट अक्षरों में है। पढ़ने में दिक्कत नहीं होती है। पत्र की भाषा में जो दाँव-पेंच था उसे पढ़कर चैताली मन-ही-मन हँसी।

कड़ुआहटपूर्ण तिरछी हँसी। लेकिन उसके चेहरे पर एक लक़ीर तक नहीं खिंची।

प्रवासजीवन के इतना कुछ कहने के बाद भी, चैताली ने, बिना किसी टिप्पणी के हमेशा की तरह पूछा, “आज रात को रोटी ही खाएँगे न पिताजी?''

हाँ, उस दिन के बाद से यह प्रश्न चैताली हमेशा करती है। न जाने कब की बात है, एक दिन प्रवासजीवन कह बैठे थे, “आज रोटी खाने की इच्छा नहीं हो रही है, दो टुकड़े टोस्ट खाने की बात सोच रहा हूँ।"।

उसी दिन से। प्रश्न की आकस्मिकता से हड़बड़ाकर बोले, “हाँ, हाँ।"

चैताली चली गयी।

प्रवासजीवन सोचने लगे-ये लोग कितनी आसानी से मनुष्य की सत्ता को झुठला सकते हैं।

मनुष्य ! अब क्या ऐसा कहना ठीक होगा?

प्रवासजीवन ने अपने पिछले जीवन के “एल्बम' को खोलकर देखने का प्रयास किया। घर के प्रधान तो थे ही।

हालाँकि बात-बात पर प्रनति कहती थी, 'तुम चुप तो रहो जी। हर बात में नाक डालने की कोशिश मत करो।' परन्तु इससे क्या उनके 'प्रधान' होने में कोई बाधा पहँचती थी? अपनी इच्छापूर्ति के लिए उन्हें क्या किसी के आगे अर्जी पेश करनी पड़ती थी? या कि अपने को अनधिकारी अनधिकारी-सा लगता था?

अब तो हर कदम पर. हर मामले में अपने को अधिकाररहित-सा पाते हैं। पता नहीं क्यों साहस खो बैठे हैं !

प्रनति ही क्या उनके भरोसे की खूटी थी? उनकी निगाहें एल्बम के पराने-पराने पृष्ठों पर बार-बार ठहरने लगीं।

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